अथातो घुम्मकड़ जिज्ञासा | Athato Ghumakkad Jigyasa

संस्कृत से ग्रंथ को शुरू करने के लिए पाठकों को रोष नहीं होना चाहिए। आखिर हम शास्‍त्र लिखने जा रहे हैं, फिर शास्‍त्र की परिपाटी को तो मानना ही पड़ेगा। शास्त्रों में जिज्ञासा ऐसी चीज के लिए होनी बतलाई गई है, जोकि श्रेष्‍ठ तथा व्‍यक्ति और समाज सबके लिए परम हितकारी हो। व्‍यास ने अपने शास्‍त्र में ब्रह्म को सर्वश्रेष्‍ठ मानकर उसे जिज्ञासा का विषय बनाया। व्‍यास-शिष्‍य जैमिनि ने धर्म को श्रेष्‍ठ माना। पुराने ऋषियों से मतभेद रखना हमारे लिए पाप की वस्‍तु नहीं है, आखिर छ शास्त्रों के रचयिता छ आस्तिक ऋषियों में भी आधों ने ब्रह्म को धत्ता बता दिया है। मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्‍ठ वस्‍तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्‍यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। कहा जाता है, ब्रह्म ने सृष्टि को पैदा, धारण और नाश करने का जिम्‍मा अपने ऊपर लिया है। पैदा करना और नाश करना दूर की बातें हैं, उनकी यथार्थता सिद्ध करने के लिए न प्रत्‍यक्ष प्रमाण सहायक हो सकता है, न अनुमान ही। हाँ, दुनिया के धारण की बात तो निश्‍चय ही न ब्रह्म के ऊपर है, न विष्‍णु के और न शंकर ही के ऊपर। दुनिया – दु:ख में हो चाहे सुख में – सभी समय यदि सहारा पाती है, तो घुमक्कड़ों की ही ओर से। प्राकृतिक आदिम मनुष्‍य परम घुमक्कड़ था। खेती, बागबानी तथा घर-द्वार से मुक्‍त वह आकाश के पक्षियों की भाँति पृथ्‍वी पर सदा विचरण करता था, जाड़े में यदि इस जगह था तो गर्मियों में वहाँ से दो सौ कोस दूर।

आधुनिक काल में घुमक्कड़ों के काम की बात कहने की आवश्‍यकता है, क्‍योंकि लोगों ने घुमक्कड़ों की कृतियों को चुराके उन्‍हें गला फाड़-फाड़कर अपने नाम से प्रकाशित किया, जिससे दुनिया जानने लगी कि वस्‍तुत: तेली के कोल्‍हू के बैल ही दुनिया में सब कुछ करते हैं। आधुनिक विज्ञान में चार्ल्स डारविन का स्‍थान बहुत ऊँचा है। उसने प्राणियों की उत्‍पत्ति और मानव-वंश के विकास पर ही अद्वितीय खोज नहीं की, बल्कि सारे ही विज्ञानों को उससे सहायता मिली। कहना चाहिए, कि सभी विज्ञानों को डारविन के प्रकाश में दिशा बदलनी पड़ी। लेकिन क्या डारविन अपने महान आविष्‍कारों को कर सकता था, यदि उसने घुमक्कड़ी का व्रत नहीं लिया होता?

मैं मानता हूँ, पुस्‍तकें भी कुछ-कुछ घुमक्कड़ी का रस प्रदान करती हैं, लेकिन जिस तरह फोटो देखकर आप हिमालय के देवदार के गहन वनों और श्‍वेत हिम-मुकुटित शिखरों के सौन्‍दर्य, उनके रूप, उनके गंध का अनुभव नहीं कर सकते, उसी तरह यात्रा-कथाओं से आपको उस बूँद से भेंट नहीं हो सकती, जो कि एक घुमक्कड़ को प्राप्‍त होती है। अधिक-से-अधिक यात्रा-पाठकों के लिए यही कहा जा सकता है, कि दूसरे अन्‍धों की अपेक्षा उन्‍हें थोड़ा आलोक मिल जाता है और साथ ही ऐसी प्रेरणा भी मिल सकती है, जो स्‍थायी नहीं तो कुछ दिनों के लिए उन्‍हें घुमक्कड़ बना सकती हैं। घुमक्कड़ क्‍यों दुनिया की सर्वश्रेष्‍ठ विभूति है? इसीलिए कि उसीने आज की दुनिया को बनाया है। यदि आदिम-पुरूष एक जगह नदी या तालाब के किनारे गर्म मुल्‍क में पड़े रहते, तो वह दुनिया को आगे नहीं ले जा सकते थे। आदमी की घुमक्कड़ी ने बहुत बार खून की नदियाँ बहाई हैं, इसमें संदेह नहीं, और घुमक्कड़ों से हम हर्गिज नहीं चाहेंगे कि वह खून के रास्‍ते को पकड़ें, किंतु अगर घुमक्कड़ों के काफिले न आते-जाते, तो सुस्‍त मानव-जातियाँ सो जातीं और पशु से ऊपर नहीं उठ पातीं। आदिम घुमक्कड़ों में से आर्यों, शकों, हूणों ने क्या-क्या किया, अपने खूनी पथों द्वारा मानवता के पथ को किस तरह प्रशस्‍त किया, इसे इतिहास में हम उतना स्‍पष्ट वर्णित नहीं पाते, किंतु मंगोल-घुमक्कड़ों की करामातों को तो हम अच्छी तरह जानते हैं। बारूद, तोप, कागज, छापाखाना, दिग्‍दर्शक, चश्‍मा यही चीजें थीं, जिन्‍होंने पश्चिम में विज्ञान-युग का आरंभ कराया और इन चीजों को वहाँ ले जाने वाले मंगोल घुमक्कड़ थे।

कोलंबस और वास्‍को द-गामा दो घुमक्कड़ ही थे, जिन्‍होंने पश्चिमी देशों के आगे बढ़ने का रास्‍ता खोला। अमेरिका अधिकतर निर्जन-सा पड़ा था। एशिया के कूप-मंडूकों को घुमक्कड़-धर्म की महिमा भूल गई, इसलिए उन्‍होंने अमेरिका पर अपनी झंडी नहीं गाड़ी। दो शताब्दियों पहले तक आस्‍ट्रेलिया खाली पड़ा था। चीन और भारत को सभ्‍यता का बड़ा गर्व है, लेकिन इनको इतनी अकल नहीं आई कि जाकर वहाँ अपना झंडा गाड़ आते। आज अपने 40-50 करोड़ की जनसंख्‍या के भार से भारत और चीन की भूमि दबी जा रही है और आस्‍ट्रेलिया में एक करोड़ भी आदमी नहीं हैं। आज एसियायियों के लिए आस्‍ट्रेलिया का द्वार बंद है, लेकिन दो सदी पहले वह हमारे हाथ की चीज थी। क्‍यों भारत और चीन आस्‍ट्रेलिया की अपार संपत्ति और अमित भूमि से वंचित रह गये? इसीलिए कि वह घुमक्कड़-धर्म से विमुख थे, उसे भूल चुके थे।

हाँ, मैं इसे भूलना ही कहूँगा, क्‍योंकि किसी समय भारत और चीन ने बड़े-बड़े नामी घुमक्कड़ पैदा किए। वे भारतीय घुमक्कड़ ही थे, जिन्‍होंने दक्षिण-पूर्व में लंका, बर्मा, मलाया, यवद्वीप, स्‍याम, कंबोज, चंपा, बोर्नियो और सेलीबीज ही नहीं, फिलिपाईन तक का धावा मारा था और एक समय तो जान पड़ा कि न्‍यूजीलैंड और आस्‍ट्रेलिया भी बृहत्तर भारत का अंग बनने वाले हैं; लेकिन कूप-मंडूकता तेरा सत्‍यानाश हो! इस देश के बुद्धुओं ने उपदेश करना शुरू किया कि समुंदर के खारे पानी और हिंदू-धर्म में बड़ा वैर है, उसके छूने मात्र से वह नमक की पुतली की तरह गल जाएगा। इतना बतला देने पर क्या कहने की आवश्‍यकता है कि समाज के कल्‍याण के लिए घुमक्कड़-धर्म कितनी आवश्‍यक चीज है? जिस जाति या देश ने इस धर्म को अपनाया, वह चारों फलों का भागी हुआ और जिसने इसे दुराया, उसके लिए नरक में भी ठिकाना नहीं। आखिर घुमक्कड़-धर्म को भूलने के कारण ही हम सात शताब्दियों तक धक्‍का खाते रहे, ऐरे-गैरे जो भी आए, हमें चार लात लगाते गये।

शायद किसी को संदेह हो कि मैंने इस शास्‍त्र में जो युक्तियाँ दी हैं, वह सभी लौकिक तथा शास्‍त्र-बाह्य हैं। अच्छा तो धर्म से प्रमाण लीजिए। दुनिया के अधिकांश धर्मनायक घुमक्कड़ रहे। धर्माचार्यों में आचार-विचार, बुद्धि और तर्क तथा सहृदयता में सर्वश्रेष्‍ठ बुद्ध घुमक्कड़-राज थे। यद्यपि वह भारत से बाहर नहीं गये, लेकिन वर्षा के तीन मासों को छोड़कर एक जगह रहना वह पाप समझते थे। वह अपने ही घुमक्कड़ नहीं थे, बल्कि आरंभ ही में अपने शिष्‍यों को उन्‍होने कहा था – ”चरथ भिक्‍खवे!” जिसका अर्थ है – भिक्षुओ! घुमक्कड़ी करो। बुद्ध के भिक्षुओं ने अपने गुरु की शिक्षा को कितना माना, क्या इसे बताने की आवश्‍यकता है? क्या उन्‍होंने पश्चिम में मकदूनिया तथा मिश्र से पूरब में जापान त‍क, उत्तर में मंगोलिया से लेकर दक्षिण में बाली और बांका के द्वीपों तक को रौंदकर रख नहीं दिया? जिस बृहत्तर-भारत के लिए हरेक भारतीय को उचित अभिमान है, क्या उसका निर्माण इन्‍हीं घुमक्कड़ों की चरण-धूलि ने नहीं किया? केवल बुद्ध ने ही अपनी घुमक्कड़ी से प्रेरणा नहीं दी, बल्कि घुमक्कड़ों का इतना जोर बुद्ध से एक दो शताब्दियों पूर्व ही था, जिसके ही कारण बुद्ध जैसे घुमक्कड़-राज इस देश में पैदा हो सके। उस वक्त पुरुष ही नहीं, स्त्रियाँ तक जम्‍बू-वृत्त की शाखा ले अपनी प्रखर प्रतिभा का जौहर दिखातीं, बाद में कूपमंडूकों को पराजित करती सारे भारत में मुक्‍त होकर विचरा करतीं थीं।

कोई-कोई महिलाएँ पूछती हैं – क्या स्त्रियाँ भी घुमक्कड़ी कर सकती हैं, क्या उनको भी इस महाव्रत की दीक्षा लेनी चाहिए? इसके बारे में तो अलग अध्‍याय ही लिखा जाने वाला है, किंतु यहाँ इतना कह देना है, कि घुमक्कड़-धर्म ब्राह्मण-धर्म जैसा संकुचित धर्म नहीं है, जिसमें स्त्रियों के लिए स्‍‍थान नहीं हो। स्त्रियाँ इसमें उतना ही अधिकार रखती हैं, जितना पुरुष। यदि वह जन्‍म सफल करके व्‍यक्ति और समाज के लिए कुछ करना चाहती हैं, तो उन्‍हें भी दोनों हाथों इस धर्म को स्वीकार करना चाहिए। घुमक्कड़ी-धर्म छुड़ाने के लिए ही पुरुष ने बहुत से बंधन नारी के रास्‍ते में लगाये हैं। बुद्ध ने सिर्फ पुरुषों के लिए घुमक्कड़ी करने का आदेश नहीं दिया, बल्कि स्त्रियों के लिए भी उनका वही उपदेश था।

भारत के प्राचीन धर्मों में जैन धर्म भी है। जैन धर्म के प्रतिष्‍ठापक श्रमण महावीर कौन थे? वह भी घुमक्कड़-राज थे। घुमक्कड़-धर्म के आचरण में छोटी-से-बड़ी तक सभी बाधाओं और उपाधियों को उन्‍होंने त्‍याग दिया था – घर-द्वार और नारी-संतान ही नहीं, वस्‍त्र का भी वर्जन कर दिया था। ”करतलभिक्षा, तरुतल वास” तथा दिग-अम्‍बर को उन्‍होंने इसीलिए अपनाया था, कि निर्द्वंद्व विचरण में कोई बाधा न रहे। श्‍वेताम्‍बर-बंधु दिगम्‍बर कहने के लिए नाराज न हों। वस्‍तुत: हमारे वैशालिक महान घुमक्कड़ कुछ बातों में दिगम्‍बरों की कल्‍पना के अनुसार थे और कुछ बातों में श्‍वेताम्‍बरों के उल्‍लेख के अनुसार। लेकिन इनमें तो दोनों संप्रदाय और बाहर के मर्मज्ञ भी सहमत हैं, कि भगवान् महावीर दूसरी तीसरी नहीं, प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ थे। वह आजीवन घूमते ही रहे। वैशाली में जन्‍म लेकर विचरण करते ही पावा में उन्‍होंने अपना शरीर छोड़ा। बुद्ध और महावीर से बढ़कर यदि कोई त्‍याग, तपस्‍या और सहृदयता का दावा करता है, तो मैं उसे केवल दम्‍भी कहूँगा। आज-कल कुटिया या आश्रम बनाकर तेली के बैल की तरह कोल्‍हू से बँधे कितने ही लोग अपने को अद्वितीय महात्मा कहते हैं या चेलों से कहलवाते हैं; लेकिन मैं तो कहूँगा, घुमक्कड़ी को त्‍यागकर यदि महापुरुष बना जाता, तो फिर ऐसे लोग गली-गली में देखे जाते। मैं तो जिज्ञासुओं को खबरदार कर देना चाहता हूँ, कि वह ऐसे मुलम्‍मेवाले महात्‍माओं और महापुरुषों के फेर से बचें रहें। वे स्वयं तेली के बैल तो हैं ही, दूसरों को भी अपने ही जैसा बना रखेंगे।

बुद्ध और महावीर जैसे सृष्टिकर्त्ता ईश्‍वर से इनकारी महापुरुषों की घुमक्कड़ी की बात से यह नहीं मान लेना होगा, कि दूसरे लोग ईश्‍वर के भरोसे गुफा या कोठरी में बैठकर सारी सिद्धियाँ पा गये या पा जाते हैं। यदि ऐसा होता, तो शंकराचार्य, साक्षात् ब्रह्मस्वरूप थे, क्‍यों भारत के चारों कानों की खाक छानते फिरे? शंकर को शंकर किसी ब्रह्मा ने नहीं बनाया, उन्‍हें बड़ा बनाने वाला था यही घुमक्कड़ी घर्म। शंकर बराबर घूमते रहे – आज केरल देश में थे तो कुछ ही महीने बाद मिथिला में, और अगले साल काश्‍मीर या हिमालय के किसी दूसरे भाग में। शंकर तरुणाई में ही शिवलोक सिधार गये, किंतु थोड़े से जीवन में उन्‍होंने सिर्फ तीन भाष्‍य ही नहीं लिखे; बल्कि अपने आचरण से अनुयायियों को वह घुमक्कड़ी का पाठ पढ़ा गये, कि आज भी उसके पालन करने वाले सैकड़ों मिलते हैं। वास्‍को-द-गामा के भारत पहुँचने से बहुत पहिले शंकर के शिष्‍य मास्‍को और योरुप तक पहुँचे थे। उनके साहसी शिष्‍य सिर्फ भारत के चार धामों से ही सन्‍तुष्‍ट नहीं थे, बल्कि उनमें से कितनों ने जाकर बाकू (रूस) में धूनी रमाई। एक ने पर्यटन करते हुए वोल्‍गा तट पर निज्‍नीनोवोग्राद के महामेल को देखा। फिर क्या था, कुछ समय के लिए वहीं डट गया और उसने ईसाइयों के भीतर कितने ही अनुयायी पैदा कर लिए, जिनकी संख्‍या भीतर-ही-भीतर बढ़ती इस शताब्‍दी के आरंभ में कुछ लाख तक पहुँच गई थी।

रामानुज, मध्‍वाचार्य और दूसरे वैष्‍णवाचार्यों के अनुयायी मुझे क्षमा करें, यदि मैं कहूँ कि उन्‍होंने भारत में कूप-मंडूकता के प्रचार में बड़ी सरगर्मी दिखाई। भला हो, रामानंद और चैतन्‍य का, जिन्‍होंने कि पक से पंकज बनकर आदिकाल से चले आते महान घुमक्कड़ धर्म की फिर से प्रतिष्‍ठापना की, जिसके फलस्वरूप प्रथम श्रेणी के तो नहीं किंतु द्वितीय श्रेणी के बहुत-से घुमक्कड़ उनमें भी पैदा हुए। ये बेचारे बाकू की बड़ी ज्वालामाई तक कैसे जाते, उनके लिए तो मानसरोवर तक पहुँचना भी मुश्किल था। अपने हाथ से खाना बनाना, मांस-अंडे से छू जाने पर भी धर्म का चला जाना, हाड़-तोड़ सर्दी के कारण हर लघुशंका के बाद बर्फीले पानी से हाथ धोना और हर महाशंका के बाद स्नान करना तो यमराज को निमन्‍त्रण देना होता, इसी लिए बेचारे फूँक फूँककर ही घुमक्कड़ी कर सकते थे। इसमें किसे उज्र हो सकता है, कि शैव हो या वैष्‍णव, वेदान्‍ती हो या सदान्‍ती, सभी को आगे बढ़ाया केवल घुमक्कड़-धर्म ने।

महान घुमक्कड़-धर्म, बौद्ध धर्म का भारत से लुप्‍त होना क्या था, तब से कूप-मंडूकता का हमारे देश में बोलबाला हो गया। सात शताब्दियाँ बीत गईं, और इन सातों शताब्दियों में दासता और परतंत्रता हमारे देश में पैर तोड़कर बैठ गई, यह कोई आकस्मिक बात नहीं थी। लेकिन समाज के अगुओं ने चाहे कितना ही कूप-मंडूक बनाना चाहा, लेकिन इस देश में माई-के-लाल जब-तब पैदा होते रहे, जिन्‍होंने कर्मपथ की ओर संकेत किया। हमारे इतिहास में गुरु नानक का समय दूर का नहीं है, लेकिन अपने समय के वह महान घुमक्कड़ थे। उन्‍होंने भारत-भ्रमण को ही पर्याप्‍त नहीं समझा और ईरान और अरब तक का धावा मारा। घुमक्कड़ी किसी बड़े योग से कम सिद्धिदायिनी नहीं है, और निर्भीक तो वह एक नम्‍बर का बना देती है। घुमक्कड़ नानक मक्‍के में जाके काबा की ओर पैर फैलाकर सो गये, मुल्‍लों में इतनी सहिष्‍णुता होती तो आदमी होते। उन्‍होंने एतराज किया और पैर पकड़ के दूसरी ओर करना चाहा। उनको यह देखकर बड़ा अचरज हुआ कि जिस तरफ घुमक्कड़ नानक का पैर घूम रहा है, काबा भी उसी ओर चला जा रहा है। यह है चमत्‍कार! आज के सर्वशक्तिमान, किंतु कोठरी में बंद महात्‍माओं में है कोई ऐसा, जो नानक की तरह हिम्‍मत और चमत्‍कार दिखलाए?

दूर शताब्दियों की बात छोड़िए, अभी शताब्‍दी भी नहीं बीती, इस देश से स्वामी दयानंद को विदा हुए। स्वामी दयानंद को ऋषि दयानंद किसने बनाया? घुमक्कड़ी धर्म ने। उन्‍होंने भारत के अधिक भागों का भ्रमण किया; पुस्‍तक लिखते, शास्‍त्रार्थ करते वह बराबर भ्रमण करते रहे। शास्त्रों को पढ़कर काशी के बड़े-बड़े पंडित महा-महा-मंडूक बनने में ही सफल होते रहे, इसलिए दयानंद को मुक्त-बुद्धि और तर्क-प्रधान बनाने का कारण शास्त्रों से अलग कहीं ढूँढ़ना होगा। और वह है उनका निरन्‍तर घुमक्कड़ी धर्म का सेवन। उन्‍होंने समुद्र यात्रा करने, द्वीप-द्वीपान्‍तरों में जाने के विरुद्ध जितनी थोथी दलीलें दी जाती थीं, सबको चिंद्दी-चिंद्दी उड़ा दिया और बतलाया कि मनुष्‍य स्‍थावर वृत्त नहीं है, वह जंगम प्राणी है। चलना मनुष्‍य का धर्म है, जिसने इसे छोड़ा वह मनुष्‍य होने का अधिकारी नहीं है।

बीसवीं शताब्‍दी के भारतीय घुमक्कड़ों की चर्चा करने की आवश्‍यकता नहीं। इतना लिखने से मालूम हो गया होगा कि संसार में यदि कोई अनादि सनातन धर्म है, तो वह घुमक्कड़ धर्म है। लेकिन वह कोई संकुचित संप्रदाय नहीं है, वह आकाश की तरह महान है, समुद्र की तरह विशाल है। जिन धर्मों ने अधिक यश और महिमा प्राप्‍त की है, वह केवल घुमक्कड़ धर्म ही के कारण। प्रभु ईसा घुमक्कड़ थे, उनके अनुयायी भी ऐसे घुमक्कड़ थे, जिन्‍होंने ईसा के संदेश को दुनिया के कोने-कोने में पहुँचाया। यहूदी पैगम्‍बरों ने घुमक्कड़ी धर्म को भुला दिया, जिसका फल शताब्दियों तक उन्‍हें भोगना पड़ा। उन्‍होने अपने जान चूल्‍हे से सिर निकालना नहीं चाहा। घुमक्कड़-धर्म की ऐसी भारी अवहेलना करने वाले की जैसी गति होनी चाहिए वैसी गति उनकी हुई। चूल्‍हा हाथ से छूट गया और सारी दुनिया में घुमक्कड़ी करने को मजबूर हुए, जिसने आगे उन्‍हें मारवाड़ी सेठ बनाया; या यों कहिए कि घुमक्कड़ी-धर्म की एक छींट पड़ जाने से मारवाड़ी सेठ भारत के यहूदी बन गये। जिसने इस धर्म की अवहेलना की, उसे रक्‍त के आँसू बहाने पड़े। अभी इन बेचारों ने बड़ी कुर्बानी के बाद और दो हजार वर्ष की घुमक्कड़ी के तजर्बे के बल पर फिर अपना स्‍थान प्राप्‍त किया। आशा है स्‍थान प्राप्‍त करने से वह चूल्‍हे में सिर रखकर बैठने वाले नहीं बनेंगे। अस्‍तु। सनातन-धर्म से पतित यहूदी जाति को महान पाप का प्रायश्चित या दंड घुमक्कड़ी के रूप में भोगना पड़ा, और अब उन्‍हें पैर रखने का स्‍थान मिला। आज भारत तना हुआ है। यह यहूदियों की भूमि और राज्‍य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। जब बड़े-बड़े स्वीकार कर चुके हैं, तो कितने दिनों तक यह हठधर्मी चलेगी? लेकिन विषयान्‍तर में न जाकर हमें यह कहना था कि यह घुमक्कड़ी धर्म है, जिसने यहूदियों को केवल व्‍यापार-कुशल उद्योग-निष्‍णात ही नहीं बनाया, बल्कि विज्ञान, दर्शन, साहित्‍य, संगीत सभी क्षेत्रों में चमकने का मौका दिया। समझा जाता था कि व्‍यापारी तथा घुमक्कड़ यहूदी युद्ध-विद्या में कच्‍चे निकलेंगे; लेकिन उन्‍होंने पाँच-पाँच अरबी साम्राज्‍यों की सारी शेखी को धूल में मिलाकर चारों खाने चित्त कर दिया और सबने नाक रगड़कर उनसे शांति की भिक्षा माँगी।

इतना कहने से अब कोई संदेह नहीं र‍ह गया, कि घुमक्कड़-धर्म से बढ़कर दुनिया में धर्म नहीं है। धर्म भी छोटी बात है, उसे घुमक्कड़ के साथ लगाना ”महिमा घटो समुद्र की, रावण बसा पड़ोस” वाली बात होगी। घुमक्कड़ होना आदमी के लिए परम सौभाग्य की बात है। यह पंथ अपने अनुयायी को मरने बाद किसी काल्‍पनिक स्वर्ग का प्रलोभन नहीं देता, इसके लिए तो कह सकते हैं – ”क्या खूब सौदा नक्द है, इस हाथ ले इस हाथ दे।” घुमक्कड़ी वही कर सकता है, जो निश्चिंत है। किन साधनों से संपन्‍न होकर आदमी घुमक्कड़ बनने का अधिकारी हो सकता है, यह आगे बतलाया जायगा, किंतु घुमक्कड़ी के लिए चिंताहीन होना आवश्‍यक है, और चिंताहीन होने के लिए घुमक्कड़ी भी आवश्‍यक है। दोनों का अन्‍योन्‍याश्रय होना दूषण नहीं भूषण है। घुमक्कड़ी से बढ़कर सुख कहाँ मिल सकता है? आखिर चिंता-हीनता तो सुख का सबसे स्‍पष्‍ट रूप है। घुमक्कड़ी में कष्‍ट भी होते हैं, लेकिन उसे उसी तरह समझिये, जैसा भोजन में मिर्च। मिर्च में यदि कड़वाहट न हो, तो क्या कोई मिर्च-प्रमी उसमें हाथ भी लगायेगा? वस्‍तुत: घुमक्कड़ी में कभी-कभी होने होने वाले कड़वे अनुभव उसके रस को और बढ़ा देते हैं, उसी तरह जैसे काली पृष्‍ठभूमि में चित्र अधिक खिल उठता है।

व्‍यक्ति के लिए घुमक्कड़ी से बढ़कर कोई नगद धर्म नहीं है। जाति का भविष्‍य घुमक्कड़ों पर निर्भर करता है, इसलिए मैं कहूँगा कि हरेक तरुण और तरुणी को घुमक्कड़-व्रत ग्रहण करना चाहिए, इसके विरुद्ध दिये जाने वाले सारे प्रमाणों को झूठ और व्‍यर्थ का सामना करना चाहिए, यदि माता-पिता विरोध करते हैं, तो समझाना चाहिए कि वह भी प्रह्लाद के माता-पिता के नवीन संस्‍करण हैं। यदि हित-बांधव बाधा उपस्थित करते हैं, तो समझाना चाहिए कि वे दिवांध हैं। धर्म-धर्माचार्य कुछ उलटा-सीधा तर्क देते हैं, तो समझ लेना चाहिए कि इन्‍हीं ढोंगों और ढोंगियों ने संसार को कभी सरल और सच्‍चे पथ पर चलने नहीं दिया। यदि राज्‍य और राजसी-नेता अपनी कानूनी रुकावटें डालते हैं, तो हजारों बार की तजर्बा की हुई बात है, कि महानदी के वेग की तरह घुमक्कड़ की गति को रोकनेवाला दुनिया में कोई पैदा नहीं हुआ। बड़े-बड़े कठोर पहरेवाली राज्‍य-सीमाओं को घुमक्कड़ों ने आँख में धूल झोंककर पार कर लिया। मैंने स्वयं ऐसा एक से अधिक बार किया है। (पहली तिब्‍बत यात्रा में अंग्रेजों, नेपाल-राज्‍य और तिब्‍बत के सीमा-रक्षकों की आँख में धूल झोंककर जाना पड़ा था।)

संक्षेप में हम यह कह सकते हैं, कि यदि कोई तरुण-तरुणी घुमक्कड़ धर्म की दीक्षा लेता है – यह मैं अवश्य कहूँगा, कि यह दीक्षा वही ले सकता है, जिसमें बहुत भारी मात्रा में हर तरह का साहस है – तो उसे किसी की बात नहीं सुननी चाहिए, न माता के आँसू बहने की परवाह करनी चाहिए, न पिता के भय और उदास होने की, न भूल से विवाह लाई अपनी पत्‍नी के रोने-धोने की फिक्र करनी चाहिए और न किसी तरुणी को अभागे पति के कलपने की। बस शंकराचार्य के शब्‍दों में यही समझना चाहिए – ”निस्‍त्रैगुण्‍ये पथि विचरत: को विधि: को निषेधा:” और मेरे गुरु कपोतराज के बचन को अपना पथप्रदर्शक बनाना चाहिए –

”सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहाँ?
जिंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ?”

दुनिया में मनुष्‍य-जन्‍म एक ही बार होता है और जवानी भी केवल एक ही बार आती है। साहसी और मनस्वी तरुण-तरुणियों को इस अवसर से हाथ नहीं धोना चाहिए। कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ो! संसार तुम्‍हारे स्वागत के लिए बेकरार है।

अगला अध्याय - 'जंजाल तोड़ो'

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राहुल सांकृत्यायन
राहुल सांकृत्यायन जिन्हें महापंडित की उपाधि दी जाती है हिन्दी के एक प्रमुख साहित्यकार थे। वे एक प्रतिष्ठित बहुभाषाविद् थे और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में उन्होंने यात्रा वृतांत/यात्रा साहित्य तथा विश्व-दर्शन के क्षेत्र में साहित्यिक योगदान किए। वह हिंदी यात्रासहित्य के पितामह कहे जाते हैं। बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिन्दी साहित्य में युगान्तरकारी माना जाता है, जिसके लिए उन्होंने तिब्बत से लेकर श्रीलंका तक भ्रमण किया था। इसके अलावा उन्होंने मध्य-एशिया तथा कॉकेशस भ्रमण पर भी यात्रा वृतांत लिखे जो साहित्यिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं।