अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झझकैं कपटी जे निसाँक नहीं।।
घन आनँद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन धौं पाटी पढ़ेहौ कहौ, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं।।

प्रेम का रास्ता बहुत सीधा है, सरल है.. जहाँ छल और कपट के लिए कोई स्थान नहीं है। उस रास्ते पर सच्चे प्रेमी अहं (अभिमान) को छोड़कर बिना किसी संकोच चलते हैं और जो निःशंक नहीं हैं, कपटी हैं, प्रेम में कपट रखते हैं, वे इस रास्ते पर चलने में हिचकते हैं!

मुझे बहुत आनंद देने वाले प्रिय सुजान! मेरे हृदय में तुम्हारे अतिरिक्त अब किसी का प्रेम नहीं है लेकिन तुमने जाने कौन सी पट्टी पढ़ी है कि तुम मेरे मन पर तो अपना अधिकार कर चुके हो, लेकिन मुझे छटाँक भर (थोड़ा भी) नहीं देते!

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घनानंद
घनानंद (१६७३- १७६०) रीतिकाल की तीन प्रमुख काव्यधाराओं- रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त के अंतिम काव्यधारा के अग्रणी कवि हैं। ये 'आनंदघन' नाम से भी प्रसिद्ध हैं।