औरतें यहाँ नहीं दिखतीं
वे आटे में पिस गई होंगी
या चटनी में पुदीने की तरह महक रही होंगी

वे तेल की तरह खौल रही होंगी, उनमें
घर की सबसे ज़रूरी सब्ज़ी पक रही होगी

गृहस्थाश्रम की झाड़ू बनकर
अन्धेरे कोने में खड़े होकर
वे घरनुमा स्थापत्य का मिट्टी होना देखती होंगी

सीलन और अन्धेरे की अपठ्य पाण्डुलिपियाँ होकर
वे गल रही होंगी

वे कुएँ में होंगी या धुएँ में होंगी
आवाज़ें नहीं कनबतियाँ होकर वे
फुसफुसा रही होंगी

तिलचट्टे-सी कहीं घर में दुबकी होंगी वे
घर में ही होंगी
घर के चूहों की तरह वे
घर छोड़कर कहाँ भागेंगी

चाय पिएँ यह
उनकी ही बनायी है।

देवी प्रसाद मिश्र की कविता 'आवारा के दाग़ चाहिए'

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