रहस्यमयी लगती थी
हम बहनों को
हरे रंग की
बाबा की छोटी अलमारी,
मुरचाई मैली-सी
फिर भी
लगती हमको प्यारी।
यूँ तो घर के हर कोने में
होती अपनी आवाजाही
पर उसको छूने की थी
हम सबको सख़्त मनाही।
बाबा के शुद्ध सूत में
अलमारी की छोटी कुँजी
झूले सुबहो शाम,
पाने की ख़ातिर
जिसको हम
करते जुगत तमाम।
बाबा के बाहर जाते ही
जाते उसके पास,
क्या है इसके भीतर आख़िर?
ये क्यों इतनी ख़ास!
बहुत सोचते, बहुत सोचते
इसके भीतर की दुनिया की
कुछ तो पोल मिले,
बहुत पूछते, बहुत पूछते
इसमें आख़िर क्या है
इसका भेद खुले।
दादी कहती
बहुत ज़रूरी काग़ज़ात हैं,
चाचा कहते
क़ीमती जवाहरात हैं,
मम्मी कहती- बिटिया
हाथ कटेगा मुरचाई है,
इसके भीतर क्या है
वो भी जान नहीं पायी है।
एक दिन देखा
अलमारी को
रंग रोगन से चमक रही थी,
सबकी नज़रें
वहीं टिकी थीं।
भेद खुला
जब भैया आया
खुली तभी अलमारी,
निकले कपड़े नन्हे-नन्हे
ऊन का गोला
शहद की शीशी
हँसता जोकर, नटखट बौना
हाथी, घोड़ा, खेल-खिलौना
थी बच्चों की दुनिया सारी…
तब से लगती
हम बहनों को
बहुत पराई
बाबा की छोटी अलमारी।