“सो गए थे?”
“नहीं… बताओ?”
“यार मैं सोच रही थी कि लड़कों के पास वे अंग क्यों होते हैं जिनकी उन्हें ज़रूरत नहीं? आई मीन… तुम समझ रहे हो ना?”
“बेब, कल!”
“क्या…? नहीं, अभी बताओ। बताओ ना!!!”
“क्योंकि टेस्टोस्टेरोन…”
(बीच में ही काटते हुए) “यार ये मुझे पता है, साइंस से हटके कुछ बताओ ना!”
“उम्म्म!! क्योंकि शायद भगवान सिर्फ़ लड़कियाँ बनाना चाहता होगा, लेकिन जैसे किसी कलाकार की कला उसकी किसी रचना में क्या रूप लेगी, वह सिर्फ़ रचना ख़त्म होने पर ही निर्धारित हो पाता है, वैसे ही लड़के, जब लड़के बन गए, तब ही भगवान को पता लगा होगा कि ओह! ये हो गया है।”
“हाहाहाहाहा… तो फिर उसने अनडू क्यों नहीं किया?”
“हमें देख-देखकर अपनी पहली रचना यानी ‘तुम’ पर इतराते रह सकने के लिए!”
“अव्व्व्व्व! (कुछ सोचकर) ओके, जाओ सो जाओ! मुआह!”
“सुनो, लेकिन ये तो बताओ कि तुम्हें रात के एक बजे ये सवाल सूझते कैसे हैं?”
“कल बताऊँगी बेब, कल!” :-p