‘Bachche Ka Khel’, a poem by Nirmal Gupt
बच्चे क्लाशिनोकोव से खेलते हैं
निकालते हैं मुँह से
गड़-गड़, तड़-तड़ की आवाज़
खेल ही खेल में
वे धरती पर लोटपोट हुए जाते हैं
ज़िन्दगी के पहले पहर में कर रहे
मृत्यु का पूर्वाभ्यास
खेलते हुए बच्चे के भीतर
रगों के दौड़ते लहू को
जल्द से जल्द उलीचने की आतुरता है
लड़ते हुए मर जाना
उनके लिए
रिंगा रिंगा रोज़ेज़ और
छुपम-छुपाई से अधिक रोमांचक है
बच्चे जिसे समझते हैं खेल
वह खेल होकर भी दरअसल
खेल जैसा खेल है ही नहीं
अमन और वमन के संधिस्थल पर
अपरिहार्य युद्ध की सम्भवनाओं से भरी
एक खूँखार हिमाक़त है
बच्चे सिर्फ़ बारूद से खेलना जानते हैं
हथगोले हमारे अहद की फ़ुटबाल हैं
कटी हुई गर्दनें हैं शांति का रूपक
भुने हुए सफ़ेद कबूतर
पसंददीदा पौष्टिक आहार
एटम बम को लिटिल बॉय कहते हुए
गदगद हुए जाते है
बच्चे अब बेबात खिलखिलाते नहीं
गुर्राते हैं हिंसक षड़यंत्र रचते
खेलते हैं घात प्रतिघात से भरे खेल
झपटते हैं एक दूसरे की ओर
नैसर्गिक उमंग के साथ
बच्चे सीख गये हैं
मारने और मरने का खेल!
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