‘Bachpan’, a poem by Raginee
न जाने कब कहाँ,
रूठ गया हमसे,
मगर
रेत में छिपे शंख
आज भी बिखरे हैं यहाँ।
रंग-बिरंगी तितलियाँ,
स्मृतियों में दिख जाती हैं कभी
गुलाब-गेंदे की महक,
बाक़ी है भीतर ही कहीं।
ग्रीष्म की जलती दुपहरी,
लू के थपेड़ों में निडर मन
माँ की धमकी को भुलाकर,
अमिया पे निशाना साधता था
खट्टे-मीठे कच्चे आमों
का
वो स्वाद
आज भी ज़ुबाँ को बाँधता-सा।
जाड़े की वो लुका-छुपी खेलती धूप,
या बरसात के
काग़ज़ी नावों का,
निर्वाध चलना
हर मौसम छूकर चला जाता है।
बचपन…
न जाने कब कहाँ
छूट गया हमसे,
पास की बावड़ी पर
ब्याह गुड़ियों का
रचाने में रमा जो,
आज भी
रात के नीरव पहर में
गुड़िया की साड़ी में
सितारे टाकता है।
बचपन…
न जाने कब कहाँ
रूठ गया हमसे,
घोंसले से चूज़े गिर
न गए हो कहीं
रात दिन इस एक
चिन्ता में सजग था
जो बालमन
आज भी छत की मुंडेरों पर
दाने डालता है।
बचपन…
न जाने कब कहाँ
रूठ गया हमसे,
मगर
तितलियों के पीछे भागते
पैरों में चुभे
काटों की तड़प को,
महसूसता मन
जेब से कंचो की आती
छनछनाहट भी वही है,
बीत गए जो पल जीवन के
आगे बढ़ते रेले में
किसको याद नहीं आता वो
सब,
फ़ुर्सत और अकेले में।