ईश्वर में विश्वास नहीं मुझे
लेकिन विश्वास है कि यह सृष्टि
जिसने भी रची होगी
रची होगी वैसे
जैसे कोई ‘ईश्वर’ रचता

युद्ध रचे होंगे
बद की उपस्थिति से मज़बूर होकर
कि जब कोई भेड़िया टूट पड़े किसी नवजात पर
तो उसकी जननी जानती हो लड़ने के मायेने
रहते हुए बेपरवाह भी वह अपनी सामर्थ्य से
कम से कम महसूस न करे विकल्पहीन..
इसलिए नहीं रचे होंगे युद्ध ईश्वर ने
कि भौगोलिक चौसर पर फेंके जाने लगें
औपनिवेशिक खानों में
महत्त्वाकांक्षाओं के पासे
और हर सदी में पैदा हों सदाचारी पाण्डव
छातियों से लहू पीने के बाद
शांति का अश्वमेध यज्ञ करने के लिए

विरोध रचा होगा ईश्वर ने
क्योंकि नहीं रचना चाहता होगा और सृष्टियाँ
निबट लेना चाहता होगा अपने काम से
चाहता होगा कि सभी हो जाएँ ईश्वर
‘दूसरे’ का विरोध
और ‘स्वयं’ का अनुसरण कर..
नहीं रचा होगा विरोध ईश्वर ने
सीढ़ी, पुल या आवरण के रूप में
या फिर उस गुफ़ा के जैसे
जिसमें ईर्ष्या, द्वेष, कुण्ठा और प्रतिशोध
भीतर बैठे गुर्राते हों

व्यंग्य रचा होगा ईश्वर ने
क्योंकि निराश हुआ होगा वह अपनी सभी रचनाओं से
और मन बहलाने का ज़रिया खोजता होगा
या रचा होगा उस मनुष्य के लिए
जिसे उसने गुर्राने के लिए गला
और पासे फेंकने के लिए उंगलियाँ नहीं दीं..
नहीं रचा होगा व्यंग्य ईश्वर ने इसलिए
कि धारण कर ले वह भी दमन का एक रूप
और मनुष्य समझ ले उसे अपनी
महीने भर की अट्टहास की सामग्री!

■■■

पुनीत कुसुम
कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!