नईम टहलता-टहलता एक बाग़ के अन्दर चला गया। उसको वहाँ की फ़ज़ा बहुत पसंद आयी। घास के एक तख़्ते पर लेटकर उसने ख़ुद कलामी शुरू कर दी।
“कैसी पुरफ़िज़ा जगह है… हैरत है कि आज तक मेरी नज़रों से ओझल रही, नज़रें… ओझल…”
इतना कहकर वो मुस्कुराया।
नज़र हो तो चीज़ें नज़र भी नहीं आतीं… आह कि नज़र की बेनज़री! देर तक वो घास के इस तख़्ते पर लेटा और ठंडक महसूस करता रहा। लेकिन उसकी ख़ुद कलामी जारी थी…
“ये नर्म-नर्म घास कितनी फ़रहतनाक है!”
“आँखें पाँव के तलवों में चली आयीं और ये फूल… ये फूल इतने ख़ूबसूरत नहीं जितनी उनकी हरजाई ख़ुशबू है। हर शय जो हरजाई हो, ख़ूबसूरत होती है… हरजाई औरत, हरजाई मर्द… कुछ समझ में नहीं आता। ये ख़ूबसूरत चीज़ें पहले पैदा हुई थीं या ख़ूबसूरत ख़याल… हर ख़याल ख़ूबसूरत होता है, मगर मुसीबत ये है कि हर फूल ख़ूबसूरत नहीं होता… मिसाल के तौर पर ये फूल…”
उसने उठकर एक फूल की तरफ़ देखा और अपनी ख़ुद कलामी जारी रखी।
“ये उस टहनी पर उकड़ूँ बैठा है, कितना सुफ़्ला दिखायी देता है बहरहाल, ये जगह ख़ूब है। एक बहुत बड़ा दिमाग़ मालूम होती है… रोशनी भी है, साये भी हैं। ऐसा महसूस होता है कि इस वक़्त मैं नहीं बल्कि ये जगह सोच रही है।”
“ये पुरफ़िज़ा जगह जो इतनी देर मेरी नज़रों से ओझल रही।”
इसके बाद नईम फ़र्त-ए-मसर्रत में कोई ग़ज़ल गाना शुरू कर देता है कि अचानक मोटर के हॉर्न की करख़्त आवाज़ उसके साज़-ए-दिल के सारे तार झिंझोड़ देती है।
वो चौंककर उठता है… देखता है कि एक मोटर पास की रविश पर खड़ी है और एक लम्बी-लम्बी मूँछों वाला आदमी उसकी तरफ़ क़हर आलूद निगाहों से देख रहा है। उस मूँछों वाले आदमी ने गरज कर कहा, “ए, तुम कौन हो?”
नईम जो अपने ही नशे में सरशार था चौंका…
“ये मोटर इस बाग़ में कहाँ से आ गई?”
मूँछों वाला जो इस बाग़ का मालिक था बड़बड़ाया, “वज़ा क़ता से तो आदमी शरीफ़ मालूम होता है मगर यहाँ कैसे घुस आया? किस इत्मिनान से लेटा था जैसे उसके बावा का बाग़ है। फिर उसने बुलंद आवाज़ में ललकार के नईम से कहा, “अमाँ, कुछ सुनते हो?”
नईम ने जवाब दिया, “हुज़ूर सुन रहा हूँ… तशरीफ़ ले आइए, यहाँ बहुत पुरफ़िज़ा जगह है।”
बाग़ का मालिक भुना गया, “तशरीफ़ का बच्चा… इधर आओ।”
नईम लेट गया, “भई मुझसे न आया जाएगा, तुम ख़ुद ही चले आओ। वल्लाह! बड़ी दिल-फ़रेब जगह है, तुम्हारी सब कोफ़्त दूर हो जाएगी।”
बाग़ का मालिक मोटर से निकला और ग़ुस्से में भरा हुआ नईम के पास आया, “उठो यहाँ से।”
नईम के कानों में उसकी तीखी आवाज़ बहुत नागवार गुज़री, “इतने ऊँचे न बोलो… आओ, मेरे पास लेट जाओ, बिल्कुल ख़ामोश जिस तरह कि मैं लेटा हुआ हूँ… आँखें बंद कर लो। अपना सारा जिस्म ढीला छोड़ दो, दिमाग़ की सारी बत्तियाँ गुल कर दो, फिर जब तुम इस अंधेरे में चलोगे तो टटोलती हुई तुम्हारी उंगलियाँ ग़ैर इरादी तौर पर ऐसे क़ुमक़ुमे रोशन करेंगी जिनके वजूद से तुम बिल्कुल ग़ाफ़िल थे। आओ मेरे साथ लेट जाओ।”
बाग़ के मालिक ने एक लहज़ा सोचा, नईम से कहा, “दीवाने मालूम होते हो।”
नईम मुस्कुराया, “नहीं, तुमने कभी दीवाने देखे ही नहीं। मेरी जगह यहाँ अगर कोई दीवाना होता तो वो इन बिखरी हुई झाड़ियों और टहनियों पर बच्चों के गालों के मानिंद लटके हुए फूलों से कभी मुतमइन न होता। दीवानगी इत्मिनान का नाम नहीं मेरे दोस्त, लेकिन आओ! दीवानगी की बातें करें।”
“बकवास बंद करो… निकल जाओ यहाँ से।”
बाग़ के मालिक को तैश आ गया, उसने अपने ड्राईवर को बुलाया और कहा कि “नईम को धक्के मारकर बाहर निकाल दे।”
“अरे तुम कौन हो, बड़े बदतमीज़ मालूम होते हो।”
जब नईम बाहर जा रहा था तो उसने गेट पर एक बोर्ड देखा जिस पर ये लिखा था, “बग़ैर इजाज़त अंदर आना मना है।”
वो मुस्कुराया।
“हैरत है कि ये मेरी नज़रों से ओझल रहा… नज़र हो तो बाज़ चीज़ें नज़र नहीं भी आतीं, आह, नज़र की ये बे नज़री…”
यहाँ से निकलकर वो एक आर्ट की नुमाइश में चला गया ताकि अपना ज़ेहनी तकद्दुर दूर कर सके।
हॉल में दाख़िल होते ही उसको औरतों और मर्दों का झुरमुट नज़र आया जो दीवारों पर लगी पेंटिंग्ज़ देख रहा था।
एक मर्द किसी पारसी औरत से कह रहा था, “मिसेज़ फ़ौजदार, ये पेंटिंग देखी आप ने?”
मिसेज़ फ़ौजदार ने तस्वीर को एक नज़र देखने के बाद एक औरत शीरीं की तरफ़ बड़े ग़ौर से देखा और उस मर्द से जो ग़ालिबन उसका होने वाला शौहर था कहा, “तुम ने देखा, शीरीं कितनी सज-बनकर आयी है!”
एक नौजवान औरत एक नौ-उम्र लड़की से कह रही थी, “सुरय्या! इधर आ के तस्वीरें देख, तू वहाँ खड़ी क्या कर रही है?”
सुरय्या को तस्वीरों से कोई दिलचस्पी नहीं थी, असल में उसको एक ब्वॉयफ़्रेंड से मिलना था।
एक अधेड़ उम्र का मर्द जिसे पेंटिंग से कोई दिलचस्पी नहीं थी, अपने अधेड़ उम्र के दोस्त से कह रहा था, “ज़ुकाम की वजह से निढाल है, वर्ना ज़रूर आती। आप जानते ही हैं पेंटिंग्ज़ से उसे कितनी दिलचस्पी है, अब तो वो बहुत अच्छी तस्वीरें बना लेती है, परसों उसने पेंसिल काग़ज़ लेकर अपने छोटे भाई की साईकल की तस्वीर उतारी… मैं तो दंग रह गया।”
नईम पास खड़ा था, उसने हल्के से तंज़ के साथ कहा, “हुबहू साईकल मालूम होती होगी!”
दोनों दोस्त भौंचक्के से होकर रह गए कि ये कौन बदतमीज़ है, चुनांचे उनमें से एक ने नईम से पूछा, “आप कौन?”
नईम बौखला गया… “मैं… मैं…”
“मैं, मैं क्या करते हो… बताओ तुम कौन हो?”
नईम ने सम्भलकर कहा, “आप ज़रा आराम से पूछिए, मैं आप को बता सकता हूँ…”
“तुम यहाँ आए कैसे!”
नईम का जवाब बड़ा मुख़्तसर था, “जी पैदल…”
औरतों और मर्दों ने—जो आसपास खड़े तस्वीरें देखने की बजाय ख़ुदा मालूम किन-किन चीज़ों पर तब्सिरा कर रहे थे—हँसना शुरू कर दिया। इतने में उस नुमाइश का नाज़िम आया। उसको नईम की गुस्ताख़ी के मुतअल्लिक़ बताया गया तो उसने बड़े कड़े अंदाज़ में उससे पूछा, “तुम्हारे पास कार्ड है?”
नईम ने बड़े भोलेपन से जवाब दिया, “कार्ड… कैसा कार्ड… पोस्टकार्ड?”
नाज़िम ने अपना लहजा और कड़ा करके नईम से कहा, “बग़ैर इजाज़त तुम अंदर चले आए। जाओ भाग जाओ यहाँ से!”
नईम एक तस्वीर को देखकर देर तक देखना चाहता था मगर उसे बा-दिल-ए-ना-ख़्वास्ता वहाँ से निकलना पड़ा।
सीधा अपने घर गया। दरवाज़े पर दस्तक दी, उसका नौकर फ़ज़लू बाहर निकला। नईम ने उससे दरख़्वास्त की, “क्या मैं अंदर आ सकता हूँ?”
फ़ज़लू बौखला गया, “हुज़ूर… हुज़ूर, ये आपका अपना घर है। इजाज़त कैसी?”
नईम ने उससे कहा, “नहीं फज़लू, ये मेरा घर नहीं। ये घर जो मुझे राहत बख़्शता है, कैसे मेरा हो सकता है? मुझे अब एक नई बात मालूम हुई है।”
फ़ज़लू ने बड़े अदब से पूछा, “क्या सरकार?”
नईम ने कहा, “यही कि ये मेरा घर नहीं। अलबत्ता इसका गर्द-ओ-ग़ुबार, इसकी तमाम ग़लाज़तें मेरी हैं। वो तमाम चीज़ें जिनसे मुझे कोफ़्त होती है, मेरी हैं लेकिन वो तमाम चीज़ें जिनसे मुझे राहत पहुँचती है किसी और की… ख़ुदा जाने किसकी? मैं अब डरता हूँ… किसी अच्छी चीज़ को अपनाने से ख़ौफ़ लगता है। ये पानी मेरा नहीं, ये हवा मेरी नहीं, ये आसमान मेरा नहीं, वो लिहाफ़ जो मैं सर्दियों में ओढ़ता हूँ, मेरा नहीं, इसलिए कि मैं इससे राहत तलब करता था। फ़ज़लू जाओ, तुम भी मेरे नहीं।”
नईम ने फज़लू को कोई बात करने न दी।
वो चला गया।
रात के दस बज चुके थे।
हीरा मंडी के एक कोठे से, “पिया बिन नाहीं आवत चैन” के बोल बाहर उड़-उड़के आ रहे थे।
नईम उस कोठे पर चला गया।
अंदर मुजरा सुनने वाले तीन-चार मर्दों की तरफ़ देखा और तवाइफ़ से कहा, “इन अस्हाब को कोई एतराज़ तो नहीं होगा?”
तवाइफ़ मुस्कुराई, “इन्हें क्या एतराज़ हो सकता है? उधर मसनद पर बैठिये, गाव तकिया ले लीजिए!”
नईम बैठ गया। उसने कमरे का जायज़ा लिया और उस तवाइफ़ से कहा, “ये कितनी अच्छी जगह है!”
तवाइफ़ संजीदा हो गई, “आप क्या मेरा मज़ाक़ उड़ाने आए हैं, ये अच्छी जगह है जिसे तमाम शुरफ़ा हद से ज़्यादा गंदी जगह समझते हैं?”
नईम ने उससे कहा, “ये अच्छी जगह इसलिए है कि यहाँ ‘बग़ैर इजाज़त के आना मना है’ का बोर्ड आवेज़ां नहीं है।”
ये सुनकर तवाइफ़ और उसका मुजरा सुनने वाले तमाशबीन हँसने लगे। नईम ने ऐसा महसूस किया कि दुनिया एक इस क़िस्म की तवाइफ़ है जिसका मुजरा सुनने के लिए इस क़िस्म के चुग़द आते हैं।