जा रही है गाँव की कच्ची सड़क से
लड़खड़ाती बैलगाड़ी!

एक बदक़िस्मत डगर से,
दूर, वैभवमय नगर से,
एक ही रफ़्तार धीमी,
एक ही निर्जीव स्वर से,
लादकर आलस्य, जड़ता और
दुःख का बोझ भारी!

आ रहे प्रतिदिन वहाँ के
अन्न, रस, मधु, वायु सुन्दर;
लौट जाती शाम को है
वह यहाँ का दैन्य भरकर!
एक सौदा है यही, जिसमें
लगी है शक्ति सारी!

एक यह दुनिया, जहाँ है
बिजलियों से रात जगमग!
एक वह, दिन भी अँधेरा,
कर रहे हैं पैर डगमग!
दौड़ता जीवन, उड़ाती रेल,
मोटर, ट्राम, लारी!

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राह सदियों की पुरानी,
और युग-युग से कहानी,
आ रही है एक ही वह
धूप-वर्षा, आग-पानी!
दूर से अपने वतन को
जा रहा है एक प्राणी!
प्यास से है कण्ठ सूखा,
आह, वह कितने दिनों का,
कौन जाने, आज भूखा!
प्राण में ज्वालामुखी है;
किन्तु, है मुख में न वाणी!
जा रहे हैं आज खींचे
ये विवश-से ज़िन्दगी के बैल दो,
नर और नारी!

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एक ही वह लीक पकड़े,
रूढ़ियों को और जकड़े,
जो हज़ारों साल से हैं,
आ रही चिरकाल से हैं;
—जा रही है, जा रही है!
और, उस सुनसान मरघट से
सदा यह आ रही है—
“जागता या सो रहा है?
होश क्यों तू खो रहा है?
सच बता, क्या रो रहा है?
जाग तो, उठ, खोल आँखें,
क्यों विकल तू हो रहा है?
ओ मुसाफ़िर! ओ मुसाफ़िर!
है कहाँ मंज़िल तुम्हारी?”

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बैल ये हारे, थके हैं,
हाल, कल-पुर्जे घिसे हैं,
चल रहे हैं ऊँघते-से
राह में रुक-रुक, कहीं पर
तोड़ दें दम ये न जैसे!
स्वेद से है देह लथपथ,
ख़ून से भीगा मनोरथ,
और अपने आँसुओं से,
जो हुई कीचड़ धरा पर,
पाँव उसको है रहा मथ!
किन्तु, गाड़ीवान निष्ठुर
ऐंठता है पूँछ, चाबुक
मारता ही जा रहा है!
पन्थ ऊबड़ और खाबड़,
तंग, चारों ओर डाबड़!
है कहीं मिट्टी पकड़ती,
तो कहीं दलदल जकड़ता,
और वह ललकारता है—
“आह, यह कैसा लड़कपन?
आ, अरे, ओ, चल, बढ़े चल!”
जा रही गाड़ी अकेली,
एक भी साथी नहीं है!
सृष्टि यह चुपचाप, दारुण
एक सन्नाटा यहाँ है!
है खुला आकाश, दोनों
हाथ भूतल के बँधे हैं!
माँगता है एक मुट्टी प्राण,
यह अन्धा भिखारी!

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और जो लेटा हुआ है,
बैल गाड़ी पर सिहरता,
जानते हो कौन है वह?
एक युग से मौन है वह!
वह न कुछ भी बोलता है,
वह न तिल-भर डोलता है,
साँस अन्तिम ले चुकी जो,
सभ्यता वह है हमारी!

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आज मुर्दे-सी पड़ी है,
देह लकड़ी-सी कड़ी है,
तुम उसे ज़िन्दा समझते,
किन्तु वह कब की मरी है!
लाश जो उसकी सड़ी है,
और बदबू से भरी है;
आज गाड़ीवान चंचल,
वह निठुरता जा रहा है,
लाश को ले जाएगा घर,
रोशनी का नाम मत हो,
घोर अँधियाली जहाँ पर,
पोंछकर सिन्दूर, कोई
तोड़कर की चूड़ियों को,
छिन्न तरु-सी आ गिरेगी,
रो रही नारी चिपटकर,
हाय, पैरों से लिपटकर,
किन्तु, जिसकी आँख में,
चिनगारियाँ-सी भर उठी हैं,
है खड़ी पत्थर बनी वह,
क्यों उसे उस पार भेजा?
बज्र-सा माँ का कलेजा!
किन्तु, वे नादान बच्चे,
पूछ मत, वे कौन हैं?
हिलते नहीं, डुलते नहीं जो,
एक कोने में अचल-से,
देखते हैं एकटक, उस ओर
आहट-सी जहाँ पर!
और गाड़ीवान निर्मम
जानता मजबूरियाँ वह,
और अपनी बेक़रारी!

X

कौन-सा इन्साफ़ है यह?
रे कहाँ का न्याय है यह?
क्या यही है सत्य तेरा?
झूठ पर ही जो टिका हो,
क्या यही है मर्म तेरा?
पाप ही घोंटे गला,
जिसका वही है धर्म तेरा?
यह असर गहरा हुआ है,
मन्दिरों में इसलिए तू
भ्रान्ति पर ठहरा हुआ है!
यदि नहीं तो तू कहाँ है?
बन गया पाषाण निर्मम,
सिर्फ़ पूजा के लिए तू?
आज जो जय बोलता है,
मूर्ख, तेरी आँख में जो
धूल हरदम झोंकता है!
सुन रहा यश-गान अपना,
तू प्रशंसा सुन रहा है!
किन्तु, सुन पाता नहीं तू,
कौन तेरे द्वार पर ये
एक दाने को तरसते,
पेट की डफ़ली बजा,
मासूम जो रोते बिलखते,
सीढ़ियों पर सर पटककर,
गीदड़ों की मौत मरते,
रोज़ हाहाकार करते!
मात्र बस कंकाल हैं जो
ये फटे बेहाल हैं जो,
माफ़ करना, चाहता जी
मैं कहूँ शैतान तुझको,
बोल ओ भगवान! क्या है
यह न तेरा ही पुजारी?

रात जाड़े की कँपाती,
हड्डियों को भी चबाती,
बर्फ़-सी ठण्डी हवा है!
मौत की भी क्या दवा है?
देखकर इतना अँधेरा,
आज लगता है कि आए
ही नहीं जैसे सबेरा!
एक वह मनहूस पंछी
चीख़ता उल्लू अभागा,
गूँजती आवाज़ उसकी,
गूँज उठते खेत, जंगल,
दूर, दरिया का किनारा!
आह, इतने में अचानक
टूटता है एक तारा,
और, सब फिर शेष होता,
और फिर ख़ामोश सारा!
डूब जाता चाँद भी है
शर्म से अम्बर विहारी!

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आरसी प्रसाद सिंह
मैथिली और हिन्दी के महाकवि आरसी प्रसाद सिंह (१९ अगस्त १९११ - नवम्बर १९९६) रूप, यौवन और प्रेम के कवि के रूप में विख्यात थे। बिहार के चार नक्षत्रों में वियोगी के साथ प्रभात और दिनकर के साथ आरसी सदैव याद किये जायेंगे।