‘Bane Raho Na Sada Sabse Juda’, a poem by Ruchi
तुम मेरे थे, मैं तुम्हारी
सब कुछ सुखद,
तुम अपना प्यार जताते
हमेशा लगे सबसे जुदा।
सिनेमा हाॅल से वापिस आते वक़्त
सीट में फँसी मेरे बालों की क्लिप
याद से निकाल अपनी जेब में रखते
तो मैंने आदत पाल ली भूल जाने की,
बहुत अच्छा लगता तुम्हारे चेहरे का
वो ज़िम्मेदाराना भाव एक अदना-सी
क्लिप के लिए और सोचती
उसको ख़ास बनाया मैंने और
मैं विशेष महसूस करने लगी ख़ुद को।
अचानक किसी सुबह बढ़िया चाय पिलाते,
सबकी जोरू के ग़ुलाम वाली नज़र को अनदेखा कर
तो वो सुबह ख़ास हो जाती,और सहेज लेती मैं यादों के बक्से में।
कभी किसी दोपहर कोई मुझे पुकारता तो
मुझको कहते तुम आराम करो, सुबह से थक गयी होंगी
और ख़ुद चल देते घरवालों की ज़रूरतें पूरी करने।
जब कभी बेतहाशा थकान के बाद कह देते,
‘बहुत थक गयी ना आज!’ पता नहीं कैसे पर
बहुत हद तक आराम मिल जाता था मुझको,
और मुझे परवाह होने लगी ख़ुद की।
जब कभी घर परिवार से उकताहट और
आवेगों से भरी, फट पड़ती तुम्हारे सामने
तो बालों में हाथ फेर कहते कि
तुम सब कर लोगी, मुझे पता है,
मैं तुम्हारे साथ हूँ हमेशा।
कभी जो ग़लतियाँ मेरी नहीं,
उनके लिए भी कटघरे में खड़ी की जाती तो
एकान्त पाते ही बाँहों में भर कहते,
मुझे पता है तुम ऐसा नहीं कर सकती,
जाने दो बड़े हैं, क्यूँ दिल से लगाना,
और मुझे विश्वास होने लगा ख़ुद पर।
जब कभी अपनी ग़लतियों को जान
मैंने क्षमा माँगी सभी से,
तब तुमने कहा, तुम्हें मुझ पर गर्व है।
मेरे सारे गाढ़े समय में तुम हमेशा साथ रहे,
मेरे आधार आराध्य सबकी जगह तुम्हारे प्रेम ने ले ली।
मैंने अपनी पहचान बनानी चाही, तुम ख़ुश हुए
तुमने मुझे मदद करनी चाही, पर मैंने कहा,
नहीं तुम बस साथ रहना हर क़दम
तुम मेरे हौसले हो पर उड़ान तो मैं ख़ुद ही भरूँगी
अन्यथा मेरे पाँव धरती पर ही सही।
थोड़ा कुछ चिटका तुम्हारे भीतर,
पहली बार मैंने तुम्हारी मदद ठुकरायी,
हर एक क़दम मैं जितना आगे बढ़ती,
तुम उतना ही पीछे छूटने लगे।
मेरी ताक़त तो तुम थे, तो
हर बार मैं फिर फिर पीछे आती,
तुमको याद दिलाती, अपने साथ खिंचती।
हर बार का खिंचाव तानने लगा था
हमारे रिश्ते की डोर,
मैं भी दोहरे सफ़र से थकने लगी थी।
कभी उड़ने का ख़्याल छोड़ देती,
तो उगे हुए पंख बेचैन कर देते,
कभी हल्की-सी उड़ान जो भर लेती,
तुम्हारे साथ की कमी धम्म से ला ज़मीन
पर पटक देती।
मैं नहीं जानती क्या होगा भविष्य उड़ानों का,
क्या खोया क्या पाया में क्या संजो पाऊँगी,
पर मुझे ये बख़ूबी है पता,
मेरी विशिष्टता, आत्मविश्वास, स्वार्थ, आत्मनिर्भरता,
ये सब तुम्हारे दिये उपहार हैं,
जिन्हें मैं लौटा तो नहीं सकती और
उपयोग करने से तुम्हारा दिल दुखता है।
मैं जानती हूँ ये भी,
मझधार में हूँ मैं,
हलकान हुआ जाता है मन
पर मेरी ताक़त भी तुम
और कमजोरी भी तुम।
हम अजनबी होने लगे, सब कुछ बोझिल,
शायद ये अहम् था जो रहा सदा सा ही एक पुरूषों का,
जो सुना है बचपन से नानी, दादी, माँ से,
पर देख पायी मैं इतने दिनों बाद।
मेरे पास तो सब कुछ दिया तुम्हारा था ना,
मेरी रफ़्तार प्रवाह सब तुमसे ही तो है,
बहने दो ना मुझे निर्बाध।
बने रहो ना सदा सबसे जुदा।
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