मूल बंगला कविता: जीवनानंद दास | Poem by Jibanananda Das
अनुवाद: सुशील कुमार झा

हजारों वर्ष तक भटकता रहा इस धरा के पदचिन्हों पर,
नीरव अन्धकार में ही, सिंहल समुद्र हो या मलय सागर;
वहाँ भी, जहाँ था अशोक और बिम्बसार का धूमिल संसार;
और भी दूर विदर्भ में भी था, छाया था जहाँ धुंधला अन्धकार;
थका हारा क्लांत मैं; और चारों ओर था बिखरा जीवन;
हो मानो समुद्र का फेन;
दो घड़ी की भी शान्ति जिस ने दी, वह थी नाटोर की बनलता सेन!

श्रावस्ती के विश्वश्रुत शिल्प सा उसका मुख,
विदिशा की काली रात के अन्धकार से घने उसके केश;
और भी दूर समुद्र में, जैसे टूटी नावों में दिशाएँ खो चुका नाविक,
अचानक देखे दालचीनी के द्वीपों के बीच हरी पत्तियों का कोई देश;
उसी अन्धकार में देखा था; पूछा था ‘कहाँ थे तुम’ होकर बेचैन,
भटकों को ठौर दिखाती नजरों से तकती नाटोर की बनलता सेन!

दिन के बाद धीरे धीरे ओस की बूँद सी लरजती आती शाम;
डैनों से पोंछती चील गंध धूप की; बुझते हुए सभी रंग और
थमती हुई आवाज़ें; रहती केवल कोरी पाण्डुलिपि सी रात,
और उसमें कुछ भूली-बिसरी कहानियाँ बुनते झिलमिलाते जुगनु;
लौट जातीं सब चिड़ियाँ – सभी नदियाँ – खत्म जीवन का सब लेन देन;
बच जाता है सिर्फ अन्धकार, और सामने बैठी बनलता सेन!

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