मूल बंगला कविता: जीवनानंद दास | Poem by Jibanananda Das
अनुवाद: सुशील कुमार झा

बीस साल बाद एक बार फिर अगर मिल जाओ तुम?

कम नहीं होते बीस साल,
धुँधली पड़ जाती हैं यादें भी किसी भूली बिसरी सदी की तरह,
और ऐसे में मैदान के पार अगर तुम अचानक ही दिख जाओ?

कार्तिक की एक अलसाई शाम
दूर कहीं लम्बी घासों में गुम होती
बलखाती सुरमई नदी के किनारे
पक्षी लौट रहे हों जब घोसलों को
ओस की बूँदों से घास हो रही हो नर्म
कोई ना हो दूर धान के खेतों में
स्तब्धता-सी पसरी हो चारों ओर
चिड़ियों के घोसलों से गिर रहे हों तिनके

और ऐसे में
एक बार
फिर से अगर तुमसे मुलाक़ात हो जाए?

और दूर मनिया के घर शिशिर की शीत-सी झर रही हो रात
अँधेरी गलियों में खुली खिड़कियों से झाँक रही हो काँपते दीये की लौ

हो सकता है
चाँद निकला हो आधी रात को
पेड़ों की झुरमुट के पीछे से
जामुन, कटहल या आम के पत्तों से मुँह छुपाये
या बाँस की लहराती टहनियों के बीच लुकाछिपी करते हुए

दूर मैदान में चक्कर काट उतर रहा हो कोई एक उल्लू
बबूलों के काँटों या फिर बरगद की जटाओं से बचता हुआ

झुकी पलकों सा समेट रहा हो पंखों को वही सुनहला चील,
जिसे चुरा ले गया था शिशिर पिछले साल

कोहरे से धुँधलाती इस रात में
अगर मिल जाओ
अचानक
बीस साल बाद…

कहाँ छुपाऊँगा तुमको?

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