कोयला हो चुकी हैं हम बहनों ने कहा रेत में धँसते हुए
ढक दो अब हमें चाहे हम रुकती हैं यहाँ तुम जाओ

बहनें दिन को हुलिए बदलकर आती रहीं
बुख़ार था हमें शामों में
हमारी जलती आँखों को और तपिश देती हुई बहनें
शाप की तरह आती थीं हमारी बर्राती हुईं
ज़िन्दगियों में बहनें ट्रैफ़िक से भरी सड़कों पर
मुसीबत होकर सिरों पर हमारे मण्डराती थीं
बहनें कभी सान्त्वना पाकर बैठ जाती थीं हमारी पत्नियों के
अँधेरे गर्भ में बहनें पहरा देती रहीं

चूल्हे के पीछे अँधेरे में प्याज़ चुराकर जो हमें चकित करते हैं
उन चोरों को कोसती थीं बहनें
ख़ुश हुईं बहनें हमारी ठीक-ठाक चलती नौकरियों में भरी
सम्भावनाएँ देखकर

बहनें बच्चों को परी-दरवेश की कथाएँ सुनाती थीं
उनकी कल्पना में जंगल जानवर बहनें लाती थीं
बहनों ने जो नहीं देखा उसे और बढ़ाया अपने
आन की पूँजी
बटोरते-बटोरते।
‘यह लकड़ी नहीं जलेगी किसी ने
यों अगर कहा तो हम बुरा मान लेंगी
किसलिए आख़िर हम हुई हैं लड़कियाँ
लकड़ियाँ चलती हैं जैसे हम जानती हैं तुम जानते हो
लकड़ियाँ हैं हम लड़कियाँ
जब तक गीली हैं धुआँ देंगी पर इसमें
हमारा क्या बस? हम
पतीलियाँ हैं तुम्हारे घर की भाई पिता’

‘माँ देखो हम पतीलियाँ हैं
हमारी कालिख धोयी जाएगी, नहीं धोया गया हमें तो
हम बनकर कालिख
बढ़ती रहेंगी और चीथड़े
भरती रहेंगी शरीर में जब तक है गीलापन और स्वाद
हम सूखेंगी अपनी रफ़्तार से’

‘हम सूख जाएँगी
हम खड़खड़ाएँगी इस धरती पर सन्नाटे में
मोखों में चूल्हों पर दोपहरियों में
अपना कटोरा बजाएँगी हम हमारा कटोरा
भर देना—मोरियों पर पानी मिल जाता है कुनबेवालो
पर घूरों पर दाना नहीं मिलता
हमारा कटोरा भर देना’

‘हम तुम्हारी दुनिया में मकड़ी भर होंगी
हम होंगी मकड़ियाँ
घर के किसी बिसरे कोने में जाला ताने पड़ रहेंगी
हम होंगी मकड़ियाँ धूल भरे कोनों की
हम होंगी धूल
हम होंगी दीमकें किवाड़ों की दरारों में
बक्से के तले पर रह लेंगी
नीम की निबौलियाँ और कमलगट्टे खा लेंगी
हम रात झींगुरों की तरह बोलेंगी
कुनबे की नींद को सहारा देती हमीं होंगी झींगुर।’

कोयला हो चुकी हैं हम
बहनों ने कहा रेत में धँसते हुए
कोयला हो चुकीं
कहा जूतों से पिटते हुए
कोयला
सुबकते हुए

बहनें सुबकती हैः ‘राख हैं हम
राख हैं हम : गर्द उड़कर बैठ जाएँगी सभी के माथे पर
सूखेंगी तुम्हारी आँखों में ग्लनि की पपड़ियाँ
गरदन पर तेल की तह जमेगी, देखना!’

बहनें मैल बनेंगी एक दिन
एक दिन साबुन के साथ निकल जाएँगी यादों से
घुटनों और कोहनियों को छोड़कर

मरती नहीं पर वे, बैठी रहती हैं शताब्दियों तक घरों में

बहनों को दबाती दुनिया गुज़रती जाती है जीवन के
चरमराते पुल से परिवारों के चीख़ते भोंपू को
जैसे-तैसे दबाती गर्दन झुकाए अपने फफोलों को निहारती
एक दिन रास्ते में जब हमारी नाक से ख़ून निकलता होगा
मिट्टी में जाता हुआ
पृथ्वी में जाता हुआ
पृथ्वी की सलवटों में खोयी बहनों के खारे शरीर जागेंगे
श्रम के कीचड़ से लिथड़े अपने आँचलों से हमें घेरने आएँगी बहनें
बचा लेना चाहेंगी हमें अपने रूखे हाथों से

बहुत बरस गुज़र जाएँगे
इतने कि हम बच नहीं पाएँगे।

असद ज़ैदी की कविता 'सरलता के बारे में'

Book by Asad Zaidi: