‘Bhaar Arth Aur Aabhaar’, a poem by Manoj Meek
भारत के अर्थ में भार छुपा है
और त की तरलता भी
भारी तरल द्रव्य पारे-सा है
बिखरते ही जुड़ने के जतन करता है
इसके अर्थ में रजत वर्णीय शीतलता छिपी है
भारत के अर्थ में सोने की चिड़िया चहकती है
फ़िरंगियों के पिंजड़े से आज़ाद चिड़िया ने
नयी सदी के साथ पंख खोल लिए हैं
तीसरे आसमान की उड़ान पर है
बादल गरज रहे हैं
चिड़िया को पता है कि ये बरसते नहीं
पाँचवें आसमान की बिजली चमक रही है
इसके अर्थ में स्वर्ण वर्णीय उष्णता छिपी है
भारत के अर्थ धर्म में अव्यवस्थाओं का वर्ण छिपा है
वर्ण धर्म में कई वर्ग छिपे हैं
और उनमें छिपे हैं स्वार्थ
पारा बिखर रहा है
जुड़ने के जतन बीच स्वार्थ खड़ा है
पाँचवें आसमान की ललक है
परन्तु तीसरे से पहले ही दिख रहा है कि
स्वार्थ सातवें आसमान पर है
इसके अर्थ में छिपे निःस्वार्थ प्रेम को
ये पंक्तियाँ खोज रही हैं
आपके जुड़ाव का भारत आभारी रहेगा।
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© मनोज मीक
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