‘Bhagwan Ke Paas’, a short story by Pradeep Dewani

पुणे से 80 मील दूर शायदारी की पहाड़ियों में तिकोना दुर्ग की चढ़ाई करते समय एक 32 साल के पिता और 4-5 साल की बेटी के बीच हुआ एक वार्तालाप कब इतना मार्मिक और भावुक हो गया कि बिना कहे ज़िन्दगी की सबसे पहली और कठिन सच्चाई से रूबरू करा गया।

पापा : “बेटा यहाँ शिवजी महाराज अपने साथियों के साथ रहते थे।”

युविका (बेटी) : “अब कहाँ गए शिवजी महाराज? अब वो कहाँ रहते है?”

पापा : “बेटा, वो अब भगवान के पास चले गए।”

युविका : “क्यों? वो भगवान के पास क्यों चले गए? अपना क़िला और अपना शहर छोड़कर?”

पापा : “बेटा, जब हम बूढ़े हो जाते हैं तो हम भगवान के पास चले जाते हैं।”

युविका : “सब बूढ़े होने के बाद भगवान के पास चले जाते हैं क्या?”

पापा : “हाँ बेटा, जैसे मेरी दादी चली गयीं।”

युविका : “पापा, क्या आप भी जब बूढ़े हो जाओगे तो भगवान के पास चले जाओगे?”

पापा: “हाँ बेटा, मैं भी चला जाऊँगा।”

युविका ने मेरा हाथ, जितनी ज़ोर से पकड़ सकती थी, उतनी ज़ोर से पकड़ा। उसकी आँखों से उसकी शरारत चली गयी थी और उसका स्थान ले लिया था कुछ आँसुओं की नमी और कुछ उसकी ज़िद्द ने।

और फिर वो मुझसे बोली।

युविका : “पापा, मैं आपको नहीं जाने दूँगी। …मैं भगवान जी को मना कर दूँगी कि मेरे पापा को मत ले जाओ। बोलो पापा, आप नहीं जाओगे ना प्लीज़! बोलो ना पापा।”

मेरे पास 3500 फ़ीट की ऊँचाई पर ट्रेकिंग करते हुए एक नन्हे से मन का हौसला बनाये रखने के लिए जीवन के सबसे पहले सत्य को असत्य बताने के सिवाए कोई चारा ना था।

और मैंने बोला : “नहीं जाऊँगा बेटा,  मैं भगवान के पास कभी नहीं जाऊँगा तुझे छोड़ के।”