सुपरिचित पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई की किताब ‘भारत के प्रधानमंत्री : देश, दशा, दिशा’ भारत के पहले प्रधानमंत्री से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री तक, हमारे शीर्ष नेतृत्वकर्ताओं के विचारों और कार्यों का तटस्थ मूल्याँकन करती है। एक लोकतंत्र के रूप में भारत की प्रगति और उसके रास्ते में खड़े अवरोधों के बारे में भी सोचने का सूत्र देती है। व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी के दौर में यह किताब तथ्यपरक ढंग से बतलाती है कि जब कभी देश के विकास की ज़रूरतों पर शीर्षस्थ नेतृत्व की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा हावी हुई, तब भारतीय लोकतंत्र प्रभावित हुआ। किताब राजकमल प्रकाशन के उपक्रम सार्थक से प्रकाशित हुई है। प्रस्तुत है किताब के अध्याय ‘लालबहादुर शास्त्री’ से एक अंश—
शास्त्री 19 माह प्रधानमंत्री रहे और उनके इस कार्यकाल का ज़्यादातर समय भारत-पाक के बीच मौजूद तनाव व दोनों देशों के आपसी रिश्तों को सामान्य करने के संघर्ष से जूझते गुज़रा। यह कार्य शुरुआत से ही उनके लिए भारी साबित हुआ। हालाँकि उन्होंने यह घोषणा की थी कि “भारत-पाक साझा इतिहास व परम्पराओं से बंधे दो महान देश हैं। एक-दूसरे का मित्र होना दोनों की ही अनिवार्य आवश्यकता है। दोनों के बीच गहन आपसी सहयोग न सिर्फ़ दोनों के लिए बहुत फ़ायदेमंद होगा बल्कि यह एशिया में शान्ति स्थापना व समृद्धि लाने में भी कारगर होगा। भारत-पाक बहुत दिनों तक एक-दूसरे से द्वेष पाले बैठे रहे… अब हमें इस परिस्थिति को बदल देना है। इसके लिए कड़े संकल्प तथा भारत व पाक दोनों तरफ़ की सरकारों व लोगों में अच्छी समझ की आवश्यकता है।”
इसके बावजूद पाकिस्तान धोखा देता रहा। 1965 के प्रारम्भ में उसने कच्छ के इलाक़े पर दावा जताते हुए भारी शस्त्रों से लैस अपनी सेना सीमा पार करके भारत के क्षेत्र में भेज दी। तब शास्त्री ने भी हुंकार भरते हुए घोषणा की कि “जब तक ज़रूरत पड़ी, हम भले ग़रीबी में रह लेंगे, लेकिन अपनी स्वतंत्रता व अखंडता से समझौता नहीं करेंगे।”
युद्ध के चलते देश में खाद्यान्न की कमी हो गई। संयुक्त राज्य अमेरिका ने मौक़ापरस्ती का सबूत देते हुए भारत को खाद्यान्न का निर्यात रोकने की धमकी दे डाली। शास्त्री जानते थे कि खाद्यान्न के लिए भारत पूरी तरह अमेरिका पर निर्भर है, लेकिन वे इस धमकी के आगे नहीं झुके। उन्होंने वियतनाम के विरुद्ध अमेरिका के युद्ध को अतिक्रमण व मनमानी क़रार दिया। ज़ाहिर है अमेरिका को उनका यह कथन पसन्द नहीं आया और उसने भारत को खाद्यान्न का निर्यात रोक दिया। इससे भारत की स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक हो गई, तब संयुक्त राष्ट्र को अमेरिका से अपील करनी पड़ी कि वह भारत के लिए खाद्यान्न का निर्यात फिर से शुरू कर दे।
उस समय की नाज़ुक परिस्थितियों के मद्देनज़र शास्त्री ने देश के आमजन से आह्वान किया कि सप्ताह एक दिन उपवास रखा जाए। इसके लिए उन्होंने अपना उदाहरण सामने रखा कि ‘कल से शाम को एक सप्ताह तक मेरे घर में चूल्हा नहीं जलेगा।’ उनके इस आग्रह का देश पर ज़बर्दस्त प्रभाव पड़ा। घर तो ठीक, कई रेस्त्राँ व होटलों ने भी कुछ दिनों तक शाम को अपने चूल्हे बन्द रखे।
इसी के साथ विदेशी आक्रमण का सामना करने के लिए शास्त्री ने देशवासियों से आर्थिक मदद की अपील की। इसके लिए उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा निधि की स्थापना की। साथ ही भारत सरकार ने पूर्व राजे-महाराजों, नवाबों से आग्रह किया कि वे भी इस फ़ंड में सहायता दें। उन्होंने हैदराबाद के निज़ाम मीर उस्मान अली ख़ान से सम्पर्क भी किया और निज़ाम हैदराबाद ने सकारात्मक प्रत्युत्तर देते हुए इस राष्ट्रीय सुरक्षा निधि में पाँच टन सोना दान किया। यह इतनी बड़ी धनराशि थी कि इसकी घोषणा मात्र से ही लोग भौचक्के रह गए। आज के समय में इस सोने का मूल्य दो हजार करोड़ रुपये के क़रीब होता है।
देश निर्माण व उसकी सुरक्षा में शास्त्री सैनिकों व किसानों का महत्त्व अच्छे से समझते थे, इसीलिए उन्होंने उस दौर में ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया, जो आज भी फ़िज़ा में गूँजता रहता है।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पारित एक प्रस्ताव के आधार पर पाकिस्तान के साथ जारी युद्ध 23 सितम्बर, 1965 को थम गया। जैसा कि लालबहादुर शास्त्री ने पहले भी कहा था कि दोनों देशों को सिर्फ़ युद्ध विराम के साथ ही नहीं रहना है, बल्कि उनके बीच स्थायी शान्ति व परस्पर सहयोग का भाव भी होना चाहिए। जिस दिन युद्ध विराम लागू हुआ, उस दिन राष्ट्र के नाम सम्बोधन में उन्होंने इस स्थायी शान्ति स्थापना की एक रूपरेखा भी प्रस्तुत की। तब उन्होंने कहा था, “दोनों देशों की सशस्त्र सेनाओं के बीच टकराव ख़त्म हो गया है। अब संयुक्त राष्ट्र संघ और वे तमाम शक्तियाँ, जो शान्ति स्थापना के लिए प्रयासरत हैं, उन्हें इस गहन पेचीदा हो चुकी समस्या का कोई स्थायी हल खोजना है…। यह शान्ति कैसे स्थापित की जा सकती है? हमारी दृष्टि में शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व इस समस्या का स्थायी हल है।”
युद्ध विराम के बाद भारत के प्रधानमंत्री तथा पाकिस्तान के राष्ट्रपति को सोवियत रूस ने दोनों देशों के बीच शान्ति स्थापना की वार्ता के लिए ताशकन्द में आमंत्रित किया। छह दिन की चर्चा के बाद पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने भारत के इस दृष्टिकोण की सराहना की कि दोनों देशों द्वारा अपनी सेनाएँ वापस बुलाने से वातावरण बदलेगा तथा भारत-पाक के बीच मतभेदों को सुलझाने में आसानी होगी। तब ताशकन्द में एक क़रार किया गया, ऐसा क़रार जिसे उचित ही ‘शान्ति की विजय’ क़रार दिया गया।
सार्वजनिक जीवन में सत्यनिष्ठा, ईमानदारी को लेकर आमजन की सोच शास्त्री मंत्री बनने से पहले ही भाँप चुके थे। इसीलिए 1956 में जब एरियालुर (तमिलनाडु) के निकट रेल हादसे में 144 लोगों की मौत हो गई तो उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया। तब प्रधानमंत्री नेहरू से उन्होंने कहा था, “मुझे इसके लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए। कृपया मुझे छोड़ दीजिए।”
ऐसे अद्वितीय क़दम का संसद व देश की जनता ने भाव-विभोर होकर स्वागत किया। ख़ुद प्रधानमंत्री नेहरू ने शास्त्री की निष्ठा व उच्चतम आदर्शों की सराहना करते हुए कहा कि शास्त्री इस दुर्घटना के लिए किसी भी तरह ज़िम्मेदार नहीं हैं, लेकिन यह त्यागपत्र इसलिए स्वीकार किया जा रहा है कि वह सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों के लिए उदाहरण बन जाए। यह राष्ट्र की सम्पत्ति के निगहबानों के लिए भी उदाहरण हो। इस लोमहर्षक रेल दुर्घटना पर संसद में चली लम्बी बहस का जवाब देते हुए लालबहादुर शास्त्री ने कहा कि “हो सकता है मेरे दुबले-पतले शरीर, छोटे क़द व मुलायम भाषा के कारण लोगों को लगता हो कि मैं मज़बूत नहीं हो सकता। हालाँकि भले मैं शारीरिक रूप से बहुत मज़बूत न हूँ, लेकिन मुझे लगता है कि मैं आन्तरिक रूप से बहुत कमज़ोर नहीं हूँ।”
अविनाश कल्ला की किताब 'अमेरिका 2020' का किताब अंश