उन्होंने ही किया सर्वाधिक दोहन भरोसे का
जिनकी शिराओं में सभ्यताओं की रसोई का नमक घुला था

पुरखों की कही ये सूक्ति स्मरण करती हूँ बार-बार
पर उतार नहीं पाती इसका अंश-भर भी जीवन में
उम्र के इस पड़ाव पर जब हाथ ख़ाली हैं
और मन भरा, तब सोचती हूँ कि
अपने समय का कितना हिस्सा अनगिन बार
उन हित साधकों के लिए रसोई बनाने में गुज़ार दिया
जो केवल अपने हित संधान के लिए आए थे

जिनके चेहरे पर उमग आयी
विपन्नता
को ठौर देकर
उलझनें अपने लिए ही बढ़ायीं
पर आश्वस्त रहा मन का हर कोना हमेशा
लकदक

भरोसे के जल से
सींचती रही हित साधकों के हित
मन के भीतर की छठी इन्द्रिय भी
ऐसे अवसरों पर सदा सुप्त रही
जो सूँघ सकती हित साधने आये मीठी मुस्कान धारकों को
हित साधकों के पृष्ठ में छिपी मंशा को
भाँपने का चातुर्य हर किसी में नहीं होता

स्वार्थ साधते लोग अपनी नम बोली
मीठी मुस्कान से जमाते रहे पाँव अपने
उन्हें खड़ा करने की जद्दोजहद में निष्ठा के साथ खड़ी रही
और वो स्वावलम्बी हो
मेरे ही पाँव के नीचे से जड़े काटने लगे

ईश्वर के दिये इतने समय में से
उम्र का एक मनचीता हिस्सा चला गया इन हितसाधकों के हिस्से

जिन पलों में हित साधकों के हित साधने का ज़रिया बनी रही
ठीक उन्ही पलों में कर सकती थी सृजन
मन के भीतर और बाहर के आह्लाद से
या
बेफ़िक्री की एक लम्बी नींद
को बुला सकती थी आँखों में…

शालिनी सिंह की कविता 'स्त्रियों के हिस्से का सुख'

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