भटक गया हूँ—
मैं असाढ़ का पहला बादल!
श्वेत फूल-सी अलका की
मैं पंखुरियों तक छू न सका हूँ!
किसी शाप से शप्त हुआ
दिग्भ्रमित हुआ हूँ।
शताब्दियों के अंतराल में घुमड़ रहा हूँ, घूम रहा हूँ।
कालिदास! मैं भटक गया हूँ,
मोती के कमलों पर बैठी
अलका का पथ भूल गया हूँ।

मेरी पलकों में अलका के सपने जैसे डूब गए हैं।
मुझमें बिजली बन आदेश तुम्हारा
अब तक कड़क रहा है।
आँसू धुला रामगिरी काले हाथी जैसा मुझे याद है।
लेकिन मैं निरपेक्ष नहीं, निरपेक्ष नहीं हूँ।
मुझे मालवा के कछार से
साथ उड़ाती हुई हवाएँ
कहाँ न जाने छोड़ गयी हैं!
अगर कहीं अलका बादल बन सकती!
मैं अलका बन सकता!
मुझे मालवा के कछार से
साथ उड़ाती हुई हवाएँ
उज्जयिनी में पल भर जैसे
ठिठक गयी थीं, ठहर गयी थीं,
क्षिप्रा की वह क्षीण धार छू
सिहर गयी थीं।
मैंने अपने स्वागत में तब कितने हाथ जुड़े पाये थे।
मध्य मालवा, मध्य देश में
कितने खेत पड़े पाये थे।
कितने हलों, नागरों की तब
नोकें मेरे वक्ष गड़ी थीं।
कितनी सरिताएँ धनु की ढीली डोरी-सी क्षीण पड़ी थीं।
तालपत्र-सी धरती,
सूखी, दरकी, कब से फटी हुई थी।
माएँ मुझे निहार रही थीं, वधुएँ मुझे पुकार रही थीं,
बीज मुझे ललकार रहे थे,
ऋतुएँ मुझे गुहार रही थीं।

मैंने शैशव की
निर्दोष आँख में तब पानी देखा था।
मुझे याद आया,
मैं ऐसी ही आँखों का कभी नमक था।
अब धरती से दूर हुआ
मैं आसमान का धब्बा भर था।

मुझे क्षमा करना कवि मेरे!
तब से अब तक भटक रहा हूँ।
अब तक वैसे हाथ जुड़े हैं;
अब तक सूखे पेड़ खड़े हैं;
अब तक उजड़ी हैं खपरैलें;
अब तक प्यासे खेत पड़े हैं।
मैली-मैली संध्या में –
झरते पलाश के पत्तों-से
धरती के सपने उजड़ रहे हैं।
और इस नदी में कुछ लहरें हैं,
जो बहुत उदास हैं।

मैं भी एक नदी हूँ, मुझ पर भी शाम है,
मुझ पर भी
धुआँ है,
मुझमें भी लहरें हैं, जो बहुत उदास हैं।
मुझको भी त्याग गये कुछ स्नेही,
मेरी भी नावें ले
चले गये कुछ यात्री,
मेरे भी गान सब पालों की
ओट हुए।
मैं बहुत उदास हूँ, बहुत ही उदास हूँ।

क्या अब वे सुख-सहचर कभी नहीं लौटेंगे?
क्या अब वे छायाएँ
यहाँ नहीं डोलेंगी?
क्या अब कोई मुझसे नहीं कहेगा –
“ओ प्रिय! तुम
नहीं अकेले।
मैं भी हूँ।”

यदि मुझमें आज भी कटाव है, गति है,
तो इसलिए,
शायद कोई मुझ जैसा
उदास, मनमारा
कल मुझ तक आए।
और इस उदासी में एक गान गाए।
शायद कोई
दिया जलाए,
फिर यह कहे –
ओ प्रिय! तुम नहीं अकेले!
मैं भी हूँ।

शाम है, धुआँ है, एक नदी है
और उस नदी में
कुछ लहरें हैं,
जो बहुत उदास हैं, बहुत ही उदास हैं।

श्रीकान्त वर्मा
श्रीकांत वर्मा (18 सितम्बर 1931- 25 मई 1986) का जन्म बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ। वे गीतकार, कथाकार तथा समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं। ये राजनीति से भी जुड़े थे तथा राज्यसभा के सदस्य रहे। 1957 में प्रकाशित 'भटका मेघ', 1967 में प्रकाशित 'मायादर्पण' और 'दिनारम्भ', 1973 में प्रकाशित 'जलसाघर' और 1984 में प्रकाशित 'मगध' इनकी काव्य-कृतियाँ हैं। 'मगध' काव्य संग्रह के लिए 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित हुये।