भीड़ विमर्शो के बीच फँसी सच की तलाश में है
तलाशना कुआँ खोदना-सा हो गया है
घृणा-द्वेष के साँप-बिच्छू बिलबिलाते हुए हाथ लगते हैं
मारो-काटो की फुसफुसाहट कुएँ की दीवारों के छिद्रों से आती रहती है
पुराने ज़ख़्मों का केंचुआ भी सरसराने लगता है यहाँ-वहाँ
प्रेम का जल सतह पर है ज़रूरत-भर का
भीड़ नहीं जानती कि उसे हक़ नहीं है सत्य की तलाश का
राजनीति की नौटंकी में वह एक तमाशाबीन है
जितना बड़ा मदारी, उतना लम्बा खेल-तमाशा
खेल में कई मदारियों के होने से भीड़ अनगिन हिस्सों में बँट गई है
भीड़ तो भीड़ ही है
मदारियों के इशारे पर वो रोती है, हँसती है, तालियाँ पिटती है
मदारियों के कहने पर चीख़ती है, नारे लगाती है, लड़ती है और फिर घर जाकर सो जाती है।
यह भी पढ़ें:
आदर्श भूषण की कविता ‘भीड़’
राघवेंद्र शुक्ल की कविता ‘भीड़ चली है भोर उगाने’