भीड़ विमर्शो के बीच फँसी सच की तलाश में है
तलाशना कुआँ खोदना-सा हो गया है
घृणा-द्वेष के साँप-बिच्छू बिलबिलाते हुए हाथ लगते हैं
मारो-काटो की फुसफुसाहट कुएँ की दीवारों के छिद्रों से आती रहती है
पुराने ज़ख़्मों का केंचुआ भी सरसराने लगता है यहाँ-वहाँ

प्रेम का जल सतह पर है ज़रूरत-भर का
भीड़ नहीं जानती कि उसे हक़ नहीं है सत्य की तलाश का
राजनीति की नौटंकी में वह एक तमाशाबीन है
जितना बड़ा मदारी, उतना लम्बा खेल-तमाशा

खेल में कई मदारियों के होने से भीड़ अनगिन हिस्सों में बँट गई है
भीड़ तो भीड़ ही है
मदारियों के इशारे पर वो रोती है, हँसती है, तालियाँ पिटती है
मदारियों के कहने पर चीख़ती है, नारे लगाती है, लड़ती है और फिर घर जाकर सो जाती है।

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महिमा श्री
रिसर्च स्कॉलर, गेस्ट फैकल्टी- मास कॉम्युनिकेशन , कॉलेज ऑफ कॉमर्स, पटना स्वतंत्र पत्रकारिता व लेखन कविता,गज़ल, लधुकथा, समीक्षा, आलेख प्रकाशन- प्रथम कविता संग्रह- अकुलाहटें मेरे मन की, 2015, अंजुमन प्रकाशन, कई सांझा संकलनों में कविता, गज़ल और लधुकथा शामिल युद्धरत आदमी, द कोर , सदानीरा त्रैमासिक, आधुनिक साहित्य, विश्वगाथा, अटूट बंधन, सप्तपर्णी, सुसंभाव्य, किस्सा-कोताह, खुशबु मेरे देश की, अटूट बंधन, नेशनल दुनिया, हिंदुस्तान, निर्झर टाइम्स आदि पत्र- पत्रिकाओं में, बिजुका ब्लॉग, पुरवाई, ओपनबुक्स ऑनलाइन, लधुकथा डॉट कॉम , शब्दव्यंजना आदि में कविताएं प्रकाशित .अहा जिंदगी (साप्ताहिक), आधी आबादी( हिंदी मासिक पत्रिका) में आलेख प्रकाशित .पटना के स्थानीय यू ट्यूब चैनैल TheFullVolume.com के लिए बिहार के गणमान्य साहित्यकारों का साक्षात्कार