आसमान की ओर तकती निगाहें
रोटी माँगती हैं
मगर किससे?
छत माँगती हैं
मगर किससे?
हक़ माँगती हैं
मगर किससे?
सुलेमानी ज़ायक़े वाला
अकबरी फ़रमान जारी होता है,
वायरस से नहीं तो भूख से मरो
भूख से नहीं तो प्रतीक्षा से मरो
मरो कि किसी की
सहानुभूति ना पहुँचे
मरो कि किसी के
स्वार्थ को
ठेस ना पहुँचे
पेट की आग मार डालेगी
हवा की राख मार डालेगी
नंगा बदन मार डालेगा
बच्चे की निगाह मार डालेगी
मरो कि कोई आँसू तक न बहे
मरो कि कोई परवाह तक ना रहे
मरो कि कोई अभाव में ज़िंदा न रहे
क्योंकि लाल क़िले की
पीछे की दीवारों पर
सब झूठ लिखा है
तुम्हारी प्रशंसा में
— क्योंकि युद्ध में
कौन मरा
कौन पूछेगा?