माँ!
मेरा बचपन तो
तुम्हारी पीठ पर बँधे बीता—
जब तुम घास का भारी बोझ
सिर पर रखकर
शहर को जाती थीं।
जब भी आँखें खोलता
घास की गठरी तुम्हारी
मेरी छाँह होती
और धूप में धुमसाए
घास की गंध
मेरे नथुनों में समा जाती।
यह ज़रूर था कि तुम्हारी घास खाकर
बहुत दूध देती थी गाय।
लेकिन मेरे पंजरों को गिनकर
क्या कह सकती हो
कि तुमने मुझे भरपूर दूध पिलाया था?
जब तुम मुझे पीठ पर बाँधकर
हंड़िया बेचने जाती
मैं उसकी गंध से मत्त होकर सो जाता था।
रोता था भूख से जब,
पिला देती थीं, एक दोना हंड़िया
उसी ख़ुमारी में
भींज गया बचपन,
भींज गया यौवन
भींज गई नस-नस
और
मदहोश होते रहे सपने।
नीम बेहोशी में।
माँ!
मैंने तो हमेशा तुम्हारी पीठ को जाना
तुम कितनी सुंदर हो
यह कभी नहीं देखा
सुनता रहा सिर्फ़
तुम्हारी ख़बसूरती!
काले हीरे-सा दमकता
तुम्हारा रूप!
स्वर्ण रेखा-सी खिलखिलाती
तुम्हारी हँसी।
आज
जब तूने बदली है करवट
मेरे-तुम्हारे बीच
उग आया है एक फासला
और न जाने वहाँ कौन तो बो गया
बिचौलियों के बीज?
ग्रेस कुजूर की कविता 'प्रतीक्षा'