‘Bijli Pehalwan’, a story by Saadat Hasan Manto
बिजली पहलवान के मुतअल्लिक़ बहुत से क़िस्से मशहूर हैं कहते हैं कि वो बर्क़-रफ़्तार था। बिजली की मानिंद अपने दुश्मनों पर गिरता था और उन्हें भस्म कर देता था लेकिन जब मैंने उसे मुग़ल बाज़ार में देखा तो वो मुझे बेज़रर कद्दू के मानिंद नज़र आया- बड़ा फुसफुस सा, तोंद बाहर निकली हुई, बंद बंद ढीले, गाल लटके हुए, अलबत्ता उस का रंग सुरख़-ओ-सफ़ैद था।
वो मुग़ल बाज़ार में एक बज़्ज़ाज़ की दुकान पर आलती पालती मारे बैठा था, मैंने उस को ग़ौर से देखा मुझे उस में कोई गुंडापन नज़र न आया हालाँकि उस के मुतअल्लिक़ मशहूर यही था कि हिंदूओं का वो सब से बड़ा गुंडा है।
वो गुंडा हो ही नहीं सकता था इसलिए कि उस के ख़द्द-ओ-ख़ाल उस की नफ़ी करते थे। मैं थोड़ी देर सामने वाली किताबों की दुकान के पास खड़ा उस को देखता रहा। इतने में एक मुस्लमान औरत जो बड़ी मुफ़लिस दिखाई देती थी बज़्ज़ाज़ की दुकान के पास पहुंची, बिजली पहलवान से उस ने कहा, “मुझे बिजली पहलवान से मिलना है।”
बिजली पहलवान ने हाथ जोड़ कर उसे परिणाम किया, “माता, मैं ही बिजली पहलवान हूँ।”
उस औरत ने उस को सलाम किया, “ख़ुदा तुम्हें सलामत रखे, मैंने सुना है कि तुम बड़े दयालू हो।”
बिजली ने बड़ी इंकिसारी से कहा, “माता, दयालू परमेश्वर है, मैं क्या दया कर सकता हूँ लेकिन मुझे बताओ कि मैं क्या सेवा कर सकता हूँ?”
“बेटा मुझे अपनी जवान लड़की का ब्याह करना है, तुम अगर मेरी कुछ मदद कर सको तो मैं सारी उम्र तुम्हें दुआएं दूंगी।”
बिजली ने उस औरत से पूछा, “कितने रूपों में काम चल जाएगा।”
औरत ने जवाब दिया, “बेटा! तुम ख़ुद ही समझ लो, मैं तो एक भिखारन बन कर तुम्हारे पास आई हूँ।”
बिजली ने कहा, “भिखारन मुँह से न कहो, मेरा फ़र्ज़ है कि मैं तुम्हारी मदद करूं।”
इसके बाद उसने बज़्ज़ाज़ से जो थान तह कर रहा था, कहा, “लाला जी दो हज़ार रुपये निकालिये।”
लाला जी ने दो हज़ार रुपये फ़ौरन अपनी संदूकची से निकाले और गिन कर बिजली को दे दिए। ये रुपये उस ने उस औरत को पेश कर दिए, “माता, भगवान करे कि तुम्हारी बेटी के भाग अच्छे हों।”
वो औरत चंद लमहात के लिए नोट हाथ में लिए बुत बनी खड़ी रही। ग़ालिबन उस को इतने रुपये एकदम मिल जाने की तवक़्क़ो ही नहीं थी।
जब वो सँभली तो उस ने बिजली पहलवान पर दुआओं की बोछार कर दी। मैंने देखा कि पहलवान बड़ी उलझन महसूस कर रहा था। आख़िर उसने उस औरत से कहा, “माता, मुझे शर्मिंदा न करो। जाओ अपनी बेटी के दान, जहेज़ का इंतिज़ाम करो, उस को मेरी अशीरबाद देना।”
मैं सोच रहा था कि ये किस क़िस्म का गुंडा और बदमाश है जो दो हज़ार रुपये एक ऐसी औरत को जो मुस्लमान है और जिसे वो जानता भी नहीं, दो हज़ार रुपये पकड़ा देता है लेकिन बाद में मुझे मालूम हुआ कि वो बड़ा मख़ी्यर है, हर महीने हज़ारों रुपये दान के तौर पर देता है।
मुझे चूँकि उसकी शख़्सियत से दिलचस्पी पैदा हो गई थी इसलिए मैंने काफ़ी छानबीन के बाद बिजली पहलवान के मुतअल्लिक़ कई मालूमात हासिल कीं।
मुग़ल बाज़ार की अक्सर दुकानें उसकी थीं। हलवाई की दुकान है, बज़्ज़ाज़ की दुकान है, शर्बत बेचने वाला है, शीशे फ़रोख़्त करने वाला है, पंसारी है। ग़रज़-कि इस सिरे से उस सिरे तक जहां वो बज़्ज़ाज़ की दुकान में बैठा था उस ने एक लाईन आफ़ कम्यूनीकेशन क़ायम कर रख्खी थी ताकि अगर पुलिस छापा मारने की ग़र्ज़ से आए तो उसे फ़ौरन इत्तिला मिल जाये।
दरअसल उसकी दो बैठकों में जो बज़्ज़ाज़ की दुकान के बिलकुल सामने थीं, बहुत भारी जुवा होता था हर रोज़ हज़ारों रुपये नाल की सूरत में उसे वसूल हो जाते थे।
वो ख़ुद जुवा नहीं खेलता था, न शराब पीता था मगर उसकी बैठकों में शराब हर वक़्त मिल सकती थी, इससे भी उस की आमदन काफ़ी थी।
शहर के जितने बड़े बड़े गुंडे थे, उनको इसने हफ़्ता मुक़र्रर कर रख्खा था यानी हफ़तावार उन्हें उन के मरतबे के मुताबिक़ तनख़्वाह मिल जाती थी। मेरा ख़याल है उसने ये सिलसिला बतौर हिफ़्ज़ मा-तक़द्दुम शुरू किया था कि वो गुंडे बड़ी ख़तरनाक क़िस्म के थे।
जहां तक मुझे याद है कि ये गुंडे सब के सब मुस्लमान थे, ज़्यादातर हाथी दरवाज़े के। हर हफ़्ते बिजली पहलवान के पास जाते और अपनी तनख़्वाह वसूल कर लेते, वो उनको कभी नाउमीद न लौटाता। इसलिए कि उसके पास रुपया आम था।
मैंने सुना कि एक दिन वो बज़्ज़ाज़ की दुकान पर हस्बेमामूल बैठा था कि एक हिंदू बनिया जो काफ़ी मालदार था उसकी ख़िदमत में हाज़िर हुआ और अर्ज़ की, “पहलवान जी! मेरा लड़का ख़राब हो गया है, उसको ठीक कर दीजिए।”
पहलवान ने मुस्कुरा कर उससे कहा, “मेरे दो लड़के हैं, बहुत शरीफ़। लोग मुझे गुंडा और बदमाश कहते हैं लेकिन मैंने उन्हें इस तरह पाला पोसा है कि वो कोई बुरी हरकत कर ही नहीं सकते। महाशय जी ये आप का क़ुसूर है, आप के बड़े लड़के का नहीं।”
बनिए ने हाथ जोड़ कर कहा, “पहलवान जी, मैंने भी उस को अच्छी तरह पाला पोसा है पर उसने अब चोरी चोरी बहुत बुरे काम शुरू कर दिए हैं।”
बिजली ने अपना फ़ैसला सुना दिया, “उसकी शादी कर दो।”
इस वाक़े को दस रोज़ गुज़रे थे कि बिजली पहलवान एक नौजवान लड़की की मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गया हालाँकि उससे इस किस्म की कोई तवक़्क़ो नहीं हो सकती थी।
लड़की की उम्र सोला सतरह बरस के लगभग होगी और बिजली पच्चास से ऊपर होगा। आदमी बा-असर और मालदार था। लड़की के वालिदैन राज़ी हो गए चुनांचे शादी हो गई।
उसने शहर के बाहर एक आली शान कोठी बनाई थी। दूल्हन को वो जब उसमें लेकर गया तो उसे महसूस हुआ कि तमाम झालर और फ़ानुस मानद पड़ गए हैं।
लड़की बहुत ख़ूबसूरत थी। पहली रात बिजली पहलवान ने कसरत करना चाही मगर न कर सका। इसलिए कि इसके दिमाग़ में अपनी पहली बीवी का ख़याल करवटें ले रहा था। उस के दो जवान लड़के थे जो उसी कोठी के एक कमरे में सौ रहे थे या जाग रहे थे।
उसने अपनी पहली बीवी को कहीं बाहर भेज दिया था। उस को इस का क़तअन इल्म नहीं था कि उसके पति ने दूसरी शादी कर ली है। बिजली पहलवान सोचता था कि उसे और कुछ नहीं तो अपनी पहली बीवी को मुत्तला कर देना चाहिए था।
सारी रात नई नवेली दूल्हन जिस की उम्र सोला सतरह बरस के क़रीब थी, चौड़े चकले पलंग पर बैठी बिजली पहलवान की ऊटपटांग बातें सुनती रही। उसकी समझ में नहीं आता था कि ये शादी क्या है? क्या उसे हर रोज़ इसी क़िस्म की बातें सुनना होंगी?
“कल मैं तुम्हारे लिए दस हज़ार के ज़ेवर और लाऊँगा।”
“तुम बड़ी सुंदर हो।”
“बर्फ़ी खाओगी या पेड़े।”
“ये सारा शहर समझो कि तुम्हारा है।”
“ये कोठी मैं तुम्हारे नाम लिख दूँगा।”
“कितने नौकर चाहिऐं तुम्हें मुझे बता दो, एक मिनट में इंतिज़ाम हो जाएगा।”
“मेरे दो जवान लड़के हैं, बहुत शरीफ़। तुम उनसे जो काम लेना चाहो ले सकती हो, वो तुम्हारा हुक्म मानेंगे।”
दूल्हन हर रोज़ इसी क़िस्म की बातें सुनती रही, हत्ता कि छः महीने गुज़र गए। बिजली पहलवान दिन-ब-दिन उसकी मुहब्बत में ग़र्क़ होता गया। वो उसके तीखे तीखे नक़्श देखता तो अपनी सारी पहलवानी भूल जाता।
उसकी पहली बीवी बदशकल थी। इन मानों में कि उस में कोई कशिश नहीं थी। वो एक आम खतरानी थी जो एक बच्चा जनने के बाद ही बूढ़ी हो जाती है लेकिन उसकी ये दूसरी बीवी बड़ी ठोस थी। दस बच्चे पैदा करने के बाद भी वो साबित-ओ-सालिम रह सकती थी।
बिजली पहलवान का एक वेद दोस्त था। इसके पास वो कई दिनों से जा रहा था। उसने बिजली को यक़ीन दिलाया कि अब किसी क़िस्म के तरद्दुद की ज़रूरत नहीं, सब ठीक हो जाएगा।
पहलवान ख़ुश था। वेद के हाँ से आते हुए उस ने कई स्कीमें तैय्यार कीं, रास्ते में मिठाई ख़रीदी, सोने के दो बड़े बड़े ख़ुशनुमा कड़े लिए, बारह क़मीसों और बारह शलवारों के लिए बेहतरीन कपड़ा, क़ीमत अदा किए बग़ैर हासिल किया। इसलिए कि वो लोग जो दुकान के मालिक थे उस से मरऊब थे और क़ीमत लेने से इंकारी थे।
शाम को सात बजे वो घर पहुंचा। आहिस्ता आहिस्ता क़दम उठाते हुए अपने कमरे में गया। देखा तो वहां उसकी दूसरी बीवी नहीं थी। उसने सोचा शायद ग़ुसलख़ाने में होगी चुनांचे उसने अपना बोझ मेरा मतलब है वो थान वग़ैरा पलंग पर रख कर ग़ुसलख़ाने का रुख़ किया मगर वो ख़ाली था।
बिजली पहलवान बड़ा मुतहय्यर हुआ कि उसकी बीवी कहाँ गई। तरह तरह के ख़यालात उस के दिमाग़ में आए मगर वो कोई नतीजा बरामद न कर सका। उस ने वेद की दी हुई गोलियां खाईं और पलंग पर बैठ गया कि उसकी बीवी आ जाएगी, आख़िर उसे जाना कहाँ है!
वो गोलियां खाकर पलंग पर बैठा क़मीसों के कपड़ों को उंगलियों में मसल मसल कर देख रहा था कि उसे अपनी बीवी की हंसी की आवाज़ सुनाई दी। वो चौंका, उठकर उस कमरे में गया जो उसने अपने बड़े लड़के को दे रख्खा था। अंदर से उसकी बीवी और उसके बेटे की हंसी की आवाज़ निकल रही थी। उसने दस्तक दी लेकिन दरवाज़ा न खुला फिर बड़े ज़ोर से चिल्लाना शुरू किया कि दरवाज़ा खोलो। उस वक़्त उस का ख़ून खोल रहा था।
दरवाज़ा फिर भी न खुला, उसे ऐसा महसूस हुआ कि उस कमरे के अंदर उसकी बीवी और इसके बड़े लड़के ने सांस लेना भी बंद कर दिया है।
बिजली पहलवान ने बड़े कमरे में जाकर गुरमुखी ज़ुबान में एक रुक्का लिखा, जिसकी इबारत उर्दू में कुछ यूं हो सकती है:
“ये कोठी अब तुम्हारी है, मेरी बीवी भी अब तुम्हारी बीवी है, ख़ुश रहो।”
“तुम्हारे लिए कुछ तोहफ़े लाया था। वो यहाँ छोड़े जा रहा हूँ।”
ये रुक्का लिख इसने साटन के थान के साथ टाँक दिया।
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