नवम्बर में न अधिक सर्दी रहती है, न अधिक गर्मी। गाँवों में गन्ना, गंजी, मटर का नाश्ता शुरू हो जाता है। सब्ज़ियाँ अपेक्षाकृत सस्ती और सुलभ रहती हैं। बिना चाकू की मदद से छिल जानेवाली गोल आलू चलने में आ जाती है। इतना ही नहीं, रात में पेशाब करने के लिए खुले में निकलने पर जगत विराट और रहस्यमय लगने लगता है।

इसी स्वस्थ मौसम में राजदेव ने सावित्री की माँग में सिंदूर डालकर वधू बनाया था। उस क्षण वह असीम भावुकता, उदात्तता और आस्तिकता से ओतप्रोत था। उसे यकीन हो गया था, राजनीति में लगातार दुनमुनिया खा रही उसकी किस्मत अब पलटकर सरपट धावक हो जाएगी। वह खुश था, “अभी तक मेरे पास अपना डगमगाता भाग्य था पर अब सावित्री का होनहार मुकद्दर भी होगा।” वह गुनगुनाया था, “हम दो नावों के पथिक एक हुए।” और अपना ब्राउन कलर का जूता कसने लगा था…।

लेकिन इस वक्त वह खिन्न और परेशान था। वह स्वयं पर झुंझला रहा था कि आखिर उसने क्यों सावित्री को मैके भेजा।

थोड़ी देर पहले तक वह प्रसन्नता से गद्गद था जब कि अब खिन्न और परेशान था। बात यह थी कि स्टेट की पालिटिक्स उसे पुकार रही थी लेकिन जेब में पड़ा सावित्री का पत्र दिमाग में बार-बार टनक जाता था। वह तल्खी से ऐंठा, “मेरी बीवीजी ने पत्र लिखा है। बड़ी आईं पत्र लिखने वाली।”

सावित्री ने मैके से जो पत्र लिखा था, उसका मुख्य अंश था:

“प्राणप्यारे! अब आपके पापा बनने का समय बहुत नजदीक है पर क्या कहूँ, मेरी तबीयत खराब हो गई है। कैसे ठीक रहे, वह तो हमेशा आप पर लगी रहती है। मैं विनती करती हूँ… हाथ जोड़ती हूँ… पाँव पड़ती हूँ कि जल्द से जल्द आ जाइए… डॉक्टर और बुजुर्ग जिस तरह मुँह बनाते हैं, उसे देखकर मुझे डर लग रहा है कि कुछ भारी गड़बड़ है। सो आप आइए ज़रूर। मेरी हार्दिक इच्छा है कि हमारी औलाद सबसे पहले अपने पिता अर्थात आपको देखे। तो आपको मेरी कसम – अपनी प्राणप्यारी की कसम – आइए ज़रूर। दर्शनाभिलासिनी – आपकी सेविका – सावित्री।”

राजदेव ने चलते-चलते एक सुनसान में पत्र निकाला। उस पर बूंसा मारते हुए बड़बड़ाया, “यह पत्र है या कवित्त।” अचानक वह इस तरह चुप हो गया, जैसे अभी कुछ बोला ही नहीं था। दरअसल वह सावित्री और मोती सिंह के द्वन्द्व को सुलझाने की तरकीब निकालने में दत्तचित्त हो गया था।

मोती सिंह सत्ता पार्टी की युवा शाखा के अभी-अभी प्रदेश अध्यक्ष मनोनीत हुए थे। गृह जनपद में उनके चार शागिर्द थे। एक उनके अध्यक्ष बनने के पहले ही प्रतिद्वन्द्वी गुट में जाकर पछताने का काम कर रहा था। दो क्षत्रिय थे। मोती सिंह का दृढ़ मत था, राजनीति में बिरादरी के लोगों को आगे बढ़ाना अपने को ही बाँस करना है। अत: उनकी दृष्टि चौथे शागिर्द राजदेव पर टिकी। राजदेव ने उनको ‘कृपालु’ कहा और स्वीकार किया, “मेरा भाग्य कमल आपके वरदहस्त से खिलने वाला है।”

“भक्साले,” मोती सिंह भड़क गए। “कबे तुम्हारा भाग्य कमल की तरह है?”

“नाहीं कदापि नहीं अध्यक्षजी, वह कीचड़ है, शुद्ध कीचड़। माफ कर दें।”

राजदेव गिड़गिड़ाया तो मोती सिंह बोले, “ज्यादा डायलागबाजी न झाड़ो। जाओ कुछ माल-पानी का जुगाड़ फिट करो। दिल्ली में हफ्ता दस दिन रहना पड़ेगा। साम-दाम-दंड-भेद से सबकी लेंडी तर करनी होगी। तब ढुकेंगी तुम्हारी प्रदेश सचिवल्ली की नियुक्ति पर पक्की मुहर।”

उसके सामने विकराल समस्या मुँह बाए खड़ी थी कि माल-पानी का जुगाड़ कैसे हो। उसने निश्चय किया कि वह माँ-भाभी के गहने चुरा लेगा फिर खँखारकर कहेगा, “अगर कोतवाल ने हफ्ते-भर में चोर न पकड़ा तो बोरिया-बिस्तर बँधवा दूंगा बच्चू का।” लेकिन इस उपाय को उसने भविष्य के लिए सुरक्षित रखा, क्योंकि कहीं से कुछ रुपए चपेट में आ गए थे…

जेब में पड़े सावित्री के पत्र ने अँगड़ाई ली और वह झुलसकर राख हो गया। हालाँकि वह सावित्री के स्वास्थ्य और सन्तान-जन्म की अवहेलना करने में निपुण था, लेकिन दो झंझटें उसे उलझन में डाल देती थीं। एक- बचा-खुचा नैतिक बोध उसे चित्त कर देता कि सावित्री की चिट्ठी पाने के बाद भी दिल्ली जाना नीचता होगी। दो- राजनीति में सब एक-दूसरे के दुश्मन होते हैं। कुत्ते की तरह पोल-पट्टी सूँघने के लिए मारा-मारा फिरते हैं। अब सावित्री या बच्चे दोनों को खुदा न खास्ता कुछ हो जाए और वह दिल्ली में रहे, तो इसे हमारे खिलाफ हथियार बना लेंगे भाई साहब लोग और कहीं यह लेटर हाथ पड़ जाए… उसका हाथ जेब में चला गया। जेब में जाकर वह थरथराने लगा। वह पत्र को मसलता रहा… मसलता रहा… अचानक उसे झटके से बाहर निकाला। सड़क के किनारे आया। उसकी चिन्दी-चिन्दी की। ढलान पर फेंका और बिखरे हुए उन कागज के टुकड़ों पर मूतने लगा।

मूत लेने के बाद वह इस तरह प्रफुल्ल हुआ, जैसे उसने पेशाब नहीं अपनी साँसत विसर्जित की है। नामालूम ऐसा था अथवा नहीं, पर यह जरूर था कि एक तरकीब सूझ गई थी। अनोखी और बुद्धिमत्ता से भी पूरी। उसने तय किया था कि घर पहुँचकर सावित्री को पत्र लिखेगा, जिसका मजमून होगा: “दुनिया में सबसे प्यारी और न्यारी मेरी सावित्री। इतने दिन हो गए, तुम्हारा कोई हाल-चाल नहीं मिला। कम-से-कम पन्द्रह पैसे का एक पोस्टकार्ड ही डाल देती। आखिर मेरे किस कसूर की सजा दे रही हो तुम? मैं बेकरार हूँ, तुम्हारी सुन्दर-सुन्दर मोती जैसी लिखावट देखने को। हमारे होनेवाले ‘उसका’ ख्याल रखना। अपना तो रखना ही। दिन-रात तुम्हारी याद सताया करती है….।” वह मुस्कराया।

उसने सावित्री को एक ठेठ गाली दी और हँसने लगा। उसके दाँत चमक रहे थे। हालाँकि न वह काला था और न ही इस समय रात थी पर लगता था, जैसे घनी रात में किसी काले चेहरे के दाँत चमक रहे थे… वह इन दिनों अक्सर अपनी छत्तीस की उम्र को कोसता था जिसमें वह विवाहित हुआ था। दरअसल उसने बाईस की उम्र में प्रतिज्ञा की थी, “शादी तभी करूंगा, जब राजनीति में कुछ कर गुजरूंगा। यानी कि कुछ नहीं तो जिला स्तर का कोई पद प्राप्त कर लूंगा।” लेकिन वह पैंतीस वर्ष का हो चुका था और पदहीन था। स्थिति यह हो चुकी थी कि फर्क इतना मुश्किल हो गया था कि वह पद राजनीति के लिए चाहता है अथवा विवाह हेतु। वस्तुत: उसके जीवन में विवाह और राजनीति की विभाजक रेखाएं धुंधली होकर आपस में गड्-मड् करने लगी थीं।।

कई बार दिमाग में आया कि झूठ-मूठ में घोषणा कर दे : “दुर्गा माँ ने मुझे सपने में दर्शन दिया और कहा कि रे राजदेव! तू हमारी बेटियों का अनादर कर रहा है। जा जब तू मेरी किसी बेटी से ब्याह करेगा, तभी राजनीति में सफलता पाएगा।” पर अंततः उसे यह योजना सटीक नहीं लगी। एक से एक घाघ साले इस फील्ड में हैं। तुरन्त भाँप जाएँगे और मजाक बनाएँगे।

अजीब दशा थी अभागे राजदेव मिश्र की। कुंवारा था, क्या हुआ, प्रेम एवं वासना की बिल्कुल निर्धनता नहीं थी। इन निधियों से ठसाठस था वह। लेकिन शरीर पर नेता का बाना था और आत्मा में राजनीति, राजनीतिक तरक्की की दरकार। नतीजन वह अपनी प्रेम एवं वासना की संपदा का विनिमय करने में असमर्थ था। कितनी कारुणिक दशा थी। वह अभी तक मुहब्बत से बेदखल था। महज एक बार थोड़े से वक्त के लिए कुछ इंतजाम हुआ था। मगर वे रेल मद्धिम-मद्धिम चल रही थी कि ऐसा पटरा हुआ कि जिन्दगी की दिशा बदल गई।

हुआ यह था, वह उम्र के बाईसवें जाड़े में था तभी भाई की शादी हो गई। शादी बड़े भाई की हुई लेकिन जीवन राजदेव का बदल गया था। वह पालतू कुत्ते की तरह भाभी के पीछे-पीछे लगा रहता था। उनका छोटा-मोटा कार्य करके उसका हदय अनुपम तृप्ति से भर उठता और वह गर्व का अनुभव करने लगता था। भाभी भी अपने पिछलग्गू देवर का विशेष ध्यान रखती थी। उसके कपड़े साफ कर देती थी और हौके मौके दो-चार रुपयों की बख्शीश पकड़ा देती। इतना ही नहीं, बात-बेबात वे उसे देखकर मुस्करा भी देतीं। उसे लगा भाभी उस पर फ़िदा हैं और वह एक दिन भाई के ऑफिस जाते ही भाभी की गोद में लुढ़क पड़ा।

“ये क्या हरकत है?” भाभी आग-बबूला।

वह बहाना पेश करने लगा, “मेरे सिर में जुआँ पड़ा है, खोज दो।”

“जब तुम्हारी मेहरी आ जाएगी तो उसी से जुआ-चीलर खोजवाना।” भाभी ने घृणा से कहा और ऐसा धक्का दिया कि राजदेव मिश्र ढहकर नीचे आ गया।

उसी शाम पिता उसे लाठी से मार रहे थे। वे मारते और कहते, “और जुआँ निकलवाओगे सरऊ।”

इस हादसे ने राजदेव को छिछोरेपन की दुनिया से खींच आत्मालोचन की प्रक्रिया में डाल दिया था। उसके सम्मुख लांछना के शूल तीर, तलवार थे, जबकि वह बेबस और निहत्था था। उसने खुद को मर्माहत अनुभव किया और सुबकने लगा। आँसू थमे तो वह नूतन राजदेव था। उसे दिव्य ज्ञान हो गया था कि इस अपमान की भरपाई तभी हो सकती है जब वह कुछ बनकर दिखा दे लोगों को। उसने तय किया, वह कुछ बनकर दिखाएगा
और परिवारवालों के गाल पर उल्टा झापड़ मारेगा। क्या बनना है, इसके बारे में उसके विचार स्पष्ट थे।

वह दृढ़प्रतिज्ञ था कि उसे नेतागीरी करनी है क्योंकि उसने जान लिया था कि सुख की सर्वोत्तम मलाई राजनीति के दूध में पड़ती है। पहुँचे हुए नेता हो, तो चोरी कराओ, स्मगलिंग कराओ, कत्ल कराओ- कोई बाल-बांका नहीं कर सकता। बलात्कार करो, रंडीबाजी करो, प्यार करो या वासना, दारू पियो, कानून की ऐसी-तैसी कर दो, कोई खौफ नहीं। पुलिस, पी.एस.सी. हो, हाकिम-हुक्काम हों, डाकू-बदमाश हो- सब हाथ जोड़े मिलेंगे। ईश्वर की अनुकंपा से माल-पानी की कमी नहीं। इंजीनियर वगैरह का ट्रांसफर करा दो तो चाँदी। रुकवाओं, तो चाँदी। चुनाव का पैसा है, उसमें खसोट लो। सूखा-बाढ़ का पैसा है, उसे हड़प लो। यहाँ भौजाई से जुआँ खोजवाने में लात खानी पड़ी, वहाँ सैकड़ों हँसीनाएँ हासिल हो जाएँ। चाहे जितने गुलछरें उड़ाओं, कोई चूँचपड़ करनेवाला नहीं है। ऊपर से फायदा कि पब्लिक में दबदबा भी। हमेशा जय-जयकार होती रहे। काम कुछ खास नहीं। बस कुर्ता-पायजामा पहन लो और मौका पड़ने पर भाषण झाड़ दो। वह कल्पना में भाषण करने लगा, “भाइयो और बहनो। सज्जनो और देवियो…”

कल्पना में ही उसने पाया कि भाई घूस लेते पकड़ लिया गया और हवालात में बन्द है। भाभी हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा रही हैं, “मेरे नेता देवर! छुड़ा लो मेरे पति अर्थात अपने भइया को।”

भाभी उस पर लुढ़की आ रही हैं… लुढकी आ रही हैं। उसने झिटक दिया- “हम पर न लुढ़को। हमारे सिर में जुआँ और बदन में चीलर है।”

भाभी गई और पिता आ गए। उन्होंने उससे मिलने की पर्ची पर अपना नाम लिखकर भेजा। उसने नौकर से कहा, “जाओ कह दो कि अभी मैं जुआँ निकलवा रहा हूँ। मेरे पास फुर्सत नहीं है। तीन दिन बाद आएँ तो मिलने पर विचार करूंगा।”

भाई को तो उसने पहचानने तक से इन्कार कर दिया। वह शनैः-शनै कुर्ता पहन रहा था। शनैः-शनै: पायजामा पहन रहा था। वह जेबदार बनियान पहनना भूल गया था, कुर्ता उतारकर जेबदार बनियान पहन रहा था।

उसने पलके झपकाई, उसने पलकें उठाई और प्रतिज्ञा की: “अब मैं अमनी मेहरी से जुआँ खोजवाऊँगा और चीलर भी लेकिन तब जब नेता बन जाऊँगा। हाँ… हाँ मैं शादी तभी करूंगा, जब राजनीति में कुछ कर गुज़रूंगा। यानी कि कम से कम जिला स्तर पर कोई पद हथिया लूंगा।”

वह केंचुल से निकल रहा था… वह केंचुल में घुस रहा था… केंचुल से निकलकर वह रेंग रहा था। राजनीति की ऊबड़खाबड़ डगर पर रेंगते-रेंगते राजदेव के बाल झड़ने लगे, आँखों की ज्योति मंद होने लगी, दाँत पायरिया के घेरे में आ गए। मसूड़े फूले रहते और दबने पर मवाद फेंक देते। अब उसे अधिक मेहनत पर हल्की थकान लगने लगती थी। छत्तीस की उम्र में वह काफी कुछ थक गया था। इसलिए जब जिलामंत्री बना, तो शुभचिंतक बधाई की जग यह मशविरा देने लगे, “अरे राजदेव, अब शादी कर ही लो। ज्यादा टालमटोल करोगे, तो बाद में होगी ही नहीं तुम्हारी मैरिज। टापते रह जाओगे।”

राजदेव को दान-दहेज खास हासिल नहीं हुआ था पर वह संतुष्ट था, चलो शादी हुई, नहीं जिंदगी भर रंडुवा बना व्याकुल घूमता रहता। प्रेम तथा वासना का दलिद्दर घेरे रहता। कुल मिलाकर स्थिति यह थी कि उसके जीवन के हँसी-खुशी के गुब्बारे में सावित्री की नेमत पम्प कर रही थी। कोई दोस्त मिलता, राजदेव कहता, “अरे भाई एक दिन घर आओ, अपनी भाभी के हाथ की चाय पियो।”

बुजुर्ग मिलता तो वह कहता, “आइए, एक दिन अपनी बहू को आशीर्वाद तो दीजिए।”

राजनीतिक हमजोलियों के बीच उसने घोषणा कर दी थी, “मैंने दहेज नहीं लिया है और एक गरीब लड़की का उद्धार किया है।” वह अपनी इस गप्प पर मुग्ध होता और अकस्मात् दहेज प्रथा के विरुद्ध संक्षिप्त भाषण करने लगता है। वह कहता, “भारतवर्ष के नवयुवकों को बाल-विधवाओं और विपन्न कुंवारी कन्याओं के उद्धार के लिए आगे बढ़कर महानता की मिसाल कायम करनी चाहिए। मुझे देखिए, मैंने तो दुखियारी की ज़िन्दगी सँवार दी। मेरी बीवी सावित्री आज सुखी है और मेरा एहसान मानती है।”

वह अपनी इस मुक्ति पर गद्गद था और सोच चुका था टिकट के लिए अपने बायोडाटा में जोड़ देगा कि उसने विपदा की मारी एक लड़की को बिना दान-दहेज अपना बनाकर सेवा की है। वह बुदबदाता, “हे भगवान्! मुझ पर कृपा दृष्टि डालकर टिकट दिलाओ। जिलामंत्री की पोस्ट कोई पोस्ट होती है ससुरी। अनुकंपा करो, प्रभु! मैं पानी तो पानी, सावित्री के पुण्य से ही एवमस्तु बोलो।”

सावित्री पर वह फ़िदा था। एक तो उसके भाग्य से बाउम्मीद था। दूसरे वह छत्तीस वर्षों का एक ऐसा अतृप्त कामुक था, जिसका विवाह हुए आधा साल भी नहीं हुआ था। सावित्री की एक-एक अदा उसे फिरकी की तरह नचाती। मसलन वह रसमलाई पसन्द करती थी, अत: वह अक्सर कुल्हड़ में रसमलाई छुपाकर लाता और रात में बिस्तर पर मनुहार करके खिलाता। बाजार में कभी वह केथा तलाशता हुआ मिलता, तो कभी टिकिया का दोना बँधाता हुआ। वह इन खाद्य पदार्थों को तस्करी के सामान की तरह सनसनीखेज लुकाछिपी के साथ लाता और एकांत में सावित्री के मुँह में डाल देता।

दोस्तों ने घोषणा कर दी, राजदेव की राजनीति बीवी के पेटीकोट में घुस गई। उन्हें विश्वास हो गया कि राजदेव की राजनीतिक मृत्यु हो चुकी है और वह जोरू की गुलामी में जीवनयापन करेगा। लेकिन परिवार के लोग प्रसन्न थे कि लड़का रास्ते पर आ रहा है। भाभी मुस्करातीं कि लालाजी अब मेरी गोद में नहीं लुढ़केंगे, जुआँ खोजवाने को। वह उदास हो जातीं कि लालाजी पूरे चौदह बरस कैसी बेरुखी बरते हैं। कहाँ हरदम छुछवाते रहते थे और कहाँ चौदह बरस बोले नहीं लेकिन वह सहर्ष संतुष्ट थी कि लालाजी की जिन्दगी अब सुधर रही है।

पर राजदेव की जिन्दगी के सुधरने में कुछ बाधामूलक तत्व थे। जैसे एक दिन सावित्री माँग कर बैठी, “हमको एक ठो बढ़िया साड़ी खरीदो ना।”

“खरीद देंगे… खरीद देंगे…” वह कैसे बतलाए कि रसमलाई टिकिया इत्यादि से तो प्रेम का सबूत दिया जा सकता है, पर साड़ी भेंट करना तभी मुमकिन है, जब दंगा-फुसाद में कोई दुकान लुट जाए। यह दिक्कत आती ही नहीं, यदि सावित्री को बतला देता कि वस्तुत: वह आर्थिक दृष्टि से एक जीर्ण-शीर्ण चिरकुट इन्सान है। उल्टे वह फोकस मारता था कि उसके जीवन में पैसे की झमाझम बारिश हो रही है। शायद इसीलिए सावित्री की छोटी-बड़ी चीजों की फरमाइश के जवाब में वह उत्कृष्ट बहाने पेश करता। जैसे कि एक गरीब के बेटे को इलाज के लिए लम्बी रकम दान करने के कारण उस वक्त उसका हाथ खाली हो जाता। इसी तरह कभी चेले-चपाड़ों को कपड़े सिलवाने, कभी उनकी खुराकी में पैसे खर्च हो जाते। चंदों में तो अच्छी-खासी रकम वह अक्सर फूँक चुका होता। तो इस प्रकार की कपोलकल्पनाओं को वह ढाल बनाता और सावित्री की हथेली पर कभी भी सम्मानजनक धनराशि न रखता। उल्टे वह शादी के समय प्राप्त सावित्री की मुद्रा को दिन-प्रतिदिन क्रमशः हड़प रहा था। वह कमा कुछ नहीं रहा था, पर खर्च पूरे मनोयोग से कर रहा था। सावित्री अधिक हुज्जत करती तो वह चिड़चिड़ा उठता, “ओफ, तंग आ गया मैं। सिर भन्नाने लगा है।”

नतीजन रात को सावित्री तेल डालकर उसके सिर की चंपी करती। पैर तो वह रोज़ दबवाता था। मगर जब हर्षित रहता तो न चंपी कराता, न पैर दबवाता। पर एक दिन ऐसा भी हुआ कि वह हर्षित नहीं था फिर भी उसने न चंपी कराई और न पैर दबवाए। सावित्री पास खिसकी तो वह दूर खिसक गया। वह और पास तो वह और दूर। जब वह एकदम किनारे पहुँच गया तो उठ बैठा और नाक में उँगली डालकर सोचने लगा। वह उद्विग्न दिख रहा था। दरअसल उसे राजनीति की याद सताने लगी थी। उस पर पुनः राजनीति का नशा चढ़ने लगा था। वह छपपटा रहा था कि कब तक गृहस्थी का घुइयाँ छीलता रहेगा और मंजिल से दूर होगा। उसके हृदय में सूक्ति उठती : “हम लोगों के लिए राजनीति जीवनसंगिनी है और जीवनसंगिनी रखैल। जो रखैल को जीवनसंगिनी समझता है, लक्ष्य सदैव उससे दूर रहता है।”

वह पछताता कि इस उम्र में लोग मिनिस्टर बन जाते हैं जबकि वह बीवी की चरण-रज धोकर पीने में जुटा हुआ है। उसने अपने को धिक्कारा और राजनीतिक चर्या को समर्पित हो गया। पार्टी ऑफिस पहुँचकर बोला, “अब तक मैं भ्रमित था। अब मैं फिर से अपने घर वापस आ गया हूँ।”

अब वह लगातार देर रात आता था और सुबह पूजा-पाठ के बाद निकल जाता था पर वह सावित्री के पास ऐसे आता था जैसे ट्रक डाइवर कहीं मुँह मारने जाता है। सावित्री पति की बेरुखी से थर-थर काँपती। वह सो जाता तो रोती। वह रोती कि उसका कसूर क्या है? प्रभु से विनती करती कोई ऐसा अवसर आए कि उसका पति खुश हो जाए। जल्दी ही अवसर आया, उसके गर्भ-द्वार पर शिशु ने दस्तक दी। वह पहले डरी, फिर चिंतित हुई और फिर खुशी के झरने में नहाने लगी। इस खुशख़बर को उसने राजदेव की आँखों में आँखें डालकर बताया, उसके कानों को अपने चिकने पेट पर लिटाकर सुनाया, नाली में उल्टी करके दिखाया…। राजदेव ने इच्छा प्रकट की थी, “मैं चाहता हूँ, हमारा बच्चा ननिहाल में जन्म ले। सो तुम मैके चली जाओ।”

“मैं मैके नहीं जाना चाहती। मैं तो आपके पास रहूँगी।”

“वहाँ तुम्हे आराम रहेगा। दुलारी बिटिया हो, सब ख़याल रखेंगे तुम्हारा और पेट के बच्चे का।” राजदेव ने समझाया।

“तो आप लोग ख़याल नहीं रख पाएँगे।” वह सुबकने लगी।

राजदेव ने प्यार से समझाया, “जैसे नए या तुरन्त आजादी पाए देश होते हैं न.. वे विदेशों से मदद लेते हैं न, यही जानों कि हम नए मियाँ-बीवी होनेवाले बच्चे के लिए उसके ननिहाल से मदद ले रहे हैं।”

सावित्री ने डबडबाई आँखों और मुस्कराते होंठो से अपने सामान्य ज्ञान का परिचय दिया- “लेकिन विदेशों से मिली मदद भी कर्ज होती है। ऐसे तो हमारी औलाद जन्मते ही कर्ज में घिर जाएगी। पैदा ही वह कर्ज में डूबी हुई होगी।”

“देखों ज्यादा विदेशनीति न झाड़ो। मैं कहता हूँ कि मान जाओ।” राजदेव ने कुछ क्रोध, कुछ प्यार से कहा पर वह उसी प्रकार सिकुड़ी की सिकुड़ी रही।

“तुम कुछ बोलती क्यों नहीं”, वह झुंझला गया, फिर भी कुछ न बोली।

“तो तुम मानोगी नहीं?”

“नहीं।”

“नहीं?” दाँत पीसते हुए उसने धमकी का लालमिर्चा झोंका।

“नहीं।”

वह भड़क गया, “ठीक है, देखता हूँ कैसे नहीं जाती हो। मैं बहुत ही ख़तरनाक इन्सान हूँ। तुमने मुझे समझा नहीं है। मेरी कमीनगी अभी देखी कहाँ है। मैं किसी बात पर अड़ जाता हूँ तो फिर अड़ ही जाता हूँ। मैं कहता हूँ, तुम्हें जाना पड़ेगा… जाना पड़ेगा… एक नहीं, हजार बार… जाना पड़ेगा….।”

उसे खाँसी आ गई, खों… खों… खों करने के बाद वह पुनः तड़का, “मैं किसी को आसमान पर चढ़ा सकता हूँ तो उसे धरती पर पटक भी सकता हूँ… कुतिया कहीं की…”

सावित्री जब मैके के लिए विदा हो रही थी तो सचमुच वह एक लाचार पिटी और थकी-हारी कुतिया की तरह कूँ-कूँ रो रही थी। बाहर रिक्शा खड़ा था और भीतर अपने कमरे में रो रही थी। राजदेव सोच रहा था, सावित्री अभी उससे लिपटकर फूट-फूट रोएगी। पर उसने केवल अपना सिर पति के बाएँ कंधे पर धीरे से रख दिया और कुतिया की तरह कूँ… कूँ… रोने लगी। राजदेव को कुछ न सूझा तो वह स्वामी विवेकानन्द की तरह सीने पर हाथ बाँध खड़ा हो गया और बोला, “चुप रहो… चुप रहो… बच्चे का खयाल करो… रोते नहीं…”

पर सावित्री थी कि कुतिया की तरह कुँ…कूँ रोए जा रही थी। उसकी आँख के कुछ आँसू रामदेव की छाती पर टिकी दाई हथेली के ऊपरी हिस्से पर इकट्ठा हो गए।

अगली सुबह सावित्री घर में नहीं थी और राजदेव को लग रहा था, हथेली के वे आँसू सूखे नहीं हैं। वह जगह अभी भी भीगी हुई है। वह बार-बार उस स्थान को अपनी आँखों से स्पर्श कराता और भावुक हो जाता। अपने बाल नोंचता और फुसफुसाता, “मैं पापी… मैं पापी…”

वह अपने कमरे में घुसता तो सूना महसूस करता। हालाँकि सभी कुछ उसी तरह था, केवल एक बक्सा नहीं था पर लगता ऐसा था कि कमरे की छत कुछ नीचे खिसक आई है और कोई दीवार कम हो गई है। वह तकिए में मुँह छिपाकर लेट गया। वह देर तक सोता रहा। शाम को नींद खुलने पर उदास था और तरोताजा था। उदास कम था तरोताजा ज्यादा था। उसने ज़ोर की अँगड़ाई ली और सोचा, चलो कुछ लोगों की चमचागीरी कर आए…।

वह अविराम चमचागीरी कर रहा था लेकिन सावित्री के पत्र ने अवरोध पैदा कर दिया था। मगर सावित्री को भेजनेवाले पत्र के मजमून ने अब सब समतल कर डाला था। वह मुस्कराया, क्या आइडिया है। साफ मुकर जाएगा। कहेगा कि उसे तो कोई पत्र मिला ही नहीं। उल्टे खुद तोहमत लगाएगा, मेरी तुम्हें परवाह नहीं… वह तृप्त और उल्लसित था।

उसने सावित्री को पत्र न भेजने की शिकायत लिखकर पत्र पेटिका में डाल दिया था, और अनवरत प्रदेश सचिव बनने के उत्साह में हिल रहा था। हृदय में इच्छा उठ रही थी कि बचपन की प्रार्थना गुनगुनाए– हे प्रभो आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिए… पर तभी यह तार…. कम सून। सावित्री ने उसे तुरन्त बुलाने के लिए तार कराया था : कम सून।

उसके होंठ विद्रूप से टेढ़े हो गए, “अंग्रेजी पेलती है।”

विपत्ति के घिरे अभागे की तरह उसने सिर थाम लिया, “अब क्या होगा?” एक लम्बी साँस खींची और उसे छोड़ते हुए कहा, “अब क्या होगा?”

तारवाले ने दस्तखत करा लिया था, इसलिए वह फँसा पा रहा था। तार चिट्ठी की तरह बेसबूत नहीं होता, निरीह खाँसी की तरह उसकी घिघ्घी बँध गई थी। वह तीसरी बार बुदबुदाया, “अब क्या होगा?”

मोती सिंह ने कहा है, किसी दिन-किसी भी समय दिल्ली-यात्रा का प्रोग्राम बन सकता है। लखनऊ तक ट्रेन के ए.सी. डिब्बे में फिर हवाई जहाज का सफर। वह चहचहाया, सचिव न भी बने, जहाज़ पर तो उड़ लेंगे अपने राम। वैसे मोती सिंह के कारण सचिव पद भी थोड़ा करीब खिसक आया है। एक बार उसे प्रदेश की राजनीति में घुसने का मौका मिल जाए तो दिखा दे अपना हाथ जगन्नाथ। सबसे पहले तो संगठन में जगह-जगह अपने आदमी फिट करेगा। इसके बाद मोती सिंह को चार लात लगाएगा और खुद अध्यक्ष हो जाएगा। इलक्शन में युवा शाखा कोटे से टिकट पाएगा फिर एम.पी., उपमंत्री, राज्यमंत्री, मंत्री… उसे सावित्री की बात याद आ गई, जो कहती थी तुम प्रधानमंत्री बन जाओ, इसके लिए मैं व्रत रखूँगी। कितना प्यार करती है वह मुझको। उसे अपने पर ग्लानि हुई और सावित्री पर प्यार। कैसे वह दुख में भी हँसती रही। मैंने कितना भी सताया, गुस्सा किया, बेइज्जत किया, झूठ बोला, चूँ न की। कैसे हमेशा मेरे फरेब पर भरोसा करती रही। कैसे सारी रसमलाई गप्प-गप्प खा जाती और मैं खुश होकर देखता रहता था… नामालूम कैसी तबियत होगी बेचारी की…’कम सून’ लिखकर मुझे पुकारा है। मुसीबत की मारी ने मुझे बुलाया है, मैं जरूर जाऊँगा। कोई भी ताकत अब मुझे ससुराल जाने से रोक नहीं सकती। मैं सचिव पद को भाड़ में झोंकूगा और पत्नी के पास पहुँच जाऊँगा। कभी न चुकानेवाले उधार का प्रबन्ध करूंगा। मिठाई, फल, मेवे, कपड़े खरीदकर ले जाऊँगा। वह खुश हो जाएगी। वह हँसा, कितना सरल है खुश करना।

ऐसे ही अगर पार्टी के आला नेता खुश हो जाते तो मजा आ जाता। बस वे चुटकी बजाएँ, तो मुझको लाल बत्तीवाली कार मिल जाए। अर्दली और अंगरक्षक भी ससुरे सेवा करते रहें… कौन ठीक, प्रदेश सचिव बनने के बाद मिनिस्टरी न सही जल्दी, निगम की चेयरमैनी ही अपने तंबू के नीचे आ जाए। तब भी तो लालबत्ती, बंगला, फोन वगैरह का बंदोबस्त पक्का समझो। खसोट लूँ सब रुपया। हड़पकर कंगाल कर दूंगा निगम। किसी दूसरे नेता को जाने का मन नहीं होगा फिर उस कुर्सी पर… जो भी हो, मोती सिंह की कृपा से भविष्य उज्ज्वल दिखाई दे रहा है। मगर यह सावित्री की बीमारी टपक पड़ी, वह भी ऐसे नाजुक वक्त में। फिर सुपरफास्ट स्पीड में चिट्ठी और… ओह… और… यह तार…

…वह बरस पड़ा, आखिर इतनी जल्दी प्रेगनेंट होने की क्या ज़रूरत थी और अगर भूल से चूक हो गई तो बीमार होने की क्या ज़रूरत? लेकिन यहाँ मम्मी बनने का शौक चर्राया था न। कुछ नहीं, बस मेरी किस्मत के रास्ते में रोड़ा खड़ा करना था। बड़ी चली आई ‘कम सून’ वाली। अब तो मैं कदापि नहीं जाऊँगा ससुराल। मुझे चिढ़ हो गई है। नहीं जाता, देखता हूँ मेरा कौन क्या बिगाड़ देता है… लेकिन यह तार… मुझसे दस्तख़त करा लिया था तारवाले ने। नहीं जाता… तो दुश्मन कहीं इस्तेमाल न कर लें। …क्या करे वह? वह रुआँसा-सा हो चला… उसने कुर्ते की जेबों में अपने हाथ डाल दिए और पैर हिलाते हुए सोचने लगा।

वह सोचता रहा… सोचता रहा कि मुस्करा उठा, मैं ऐसी हिकमत करूंगा कि साँप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी। यह एक नेता की बुद्धि है, जो हर मुसीबत का हल ढूँढ ही लेती है। उसने अद्भुत मेधा का परिचय दिया। उसने लिखा : “मेरी प्राणप्यारी! बड़े पशोपेश में हूँ। दरअसल जब तारवाला आया तो मैं ट्टीघर में था। अम्मा नहा रही थीं और भाभी सब्ज़ी लेने गई थीं, और कोई घर में था नहीं सो मैंने ही बाहर आकर दाएँ हाथ से तार लेकर कुर्ते में रख लिया। सोचा, हाथ माँजकर पढूंगा लेकिन तभी चेले-चापड़ आ गए, सो तार की बाबत भूल ही गया मेरी जान। फिर मुझे क्या पता कि तुम्हारा तार है यह तो तब पता चला, जब धोवी ने कहा, भइया इ कुर्ते में एक कागज था। अब दुर्भाग्य देखो, सारी लिखावट धुल गई थी, खाली तुम्हारा नाम कुछ-कुछ पढ़ने में आ रहा है। कोई खुशखबरी ही भेजी होगी पर कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं है, यह सोचते ही दिल काँप जाता है। इसीलिए यह पत्र अपने एक विश्वासपत्र चेले के हाथ भिजवा रहा हूँ। जवाब इसी के हाथ भिजवा देना। मैं खुद आता, पर एक ज़रूरी काम से दिल्ली जाना है, बड़ा फायदा होना है लेकिन मैं अपने लिए थोड़े यह सब कर रहा हूँ। यह सब तो मैं बच्चे और तुम्हारे जीवन की बगिया में खुशियों के फूल बिखेरने के लिए कर रहा हूँ। तुम्हारे ऊपर जान न्यौछावर करनेवाला राजदेव!” पत्र लिफाफे में बन्द हो गया था।

राजदेव ने चार-छ: नौजवानों को चारा दिखाया था : मैं प्रदेश सचिव बना नहीं कि तुम जिला सचिव बने! इस कृपा कथन के पीछे मकसद था कि वह पद पाकर दिल्ली से लौटेगा तो ये चिरकुट शहर में स्वागत का इंतज़ाम पाती करेंगे। भीड़-भाड़ इकट्ठी करके जय जिन्दाबाद लगवाएँगे। बाद में इनमें से कुछ को उपसचिव बनाकर सचिव बनने के चक्कर में हमेशा पापड़ बेलवाएगा! उन्हीं में से एक टुटपुजिया को उसने लिफ़ाफ़ा पकड़ाकर आवश्यक निर्देश दिए और कहा, “ये लेटर पहुँचाकर आराम से आना। मैं कल शहर में रहूँगा नहीं, परसों मिलना।”

टुटपुजिया चला गया तो वह मुस्कराया, परसों घंटा मिलोगे। कल दोपहर ही तो दिल्ली के लिए चल पड़ेगा। लखनऊ तक ए.सी. डिब्बे में फिर जहाज़ से। अर्र… राजा जहाज़ से उडूंगा।…. एयर होस्टेज पर नज़रे गड़ाऊँगा तो हटाने का नाम नहीं लूंगा। ए.सी डिब्बे में कोई हुस्न की मलका रही तो आँख सेकते हुए रास्ता गुजार दूंगा।

प्रदेश सचिव बनने के बाद चुनाव की तैयारी करनी है यानि कि धन-धान्य इकट्ठा करना है और असलहे। गुंडों-बदमाशों की लम्बी फ़ौज खड़ी करूंगा। सब बूथों पर कब्ज़ा करवा लो, किला फतेह। बहुत हुआ, मुकदमा ठुका। वहाँ भी कौन इंसाफ़ है? हो भी क्या फ़र्क। फैसले तक तो अगला इलक्शन आ जाएगा।

यदि मैं मंत्री बन गया तो फिर क्या कहने। अपने क्षेत्र में योगी मुनि रहूँगा। पर बड़े-बड़े शहरों में ऐय्याशी का नंगा नाच खेलूँगा। मेरी प्रेम तथा वासना की जो नदिया सूख चली हैं फिर भर जाएगी। अच्छा मैं अपनी ब्लैक मनी छिपाऊँगा केसे? फैक्ट्रियों में, विदेशी बैंको में, फिर भी इफरात हुआ तो राजनीतिक भ्रष्टाचार विरोधी फिल्मों का निर्माता हो जाऊँगा…

उसने अपने सिर पर चपत लगाई, “पंडित राजदेव, ज्यादा न उड़ो अभी। पहले प्रदेश सचिवल्ली पद पा लो, फिर डेमोक्रेसी पर आग मूतना।” उसने निश्चय किया, हाँ तभी वह डेमोक्रेसी पर आग मूतेगा…

…ट्रेन छूटने न पाए, इस चक्कर में वह पौन घंटा पहले ही स्टेशन पर धमक गया था। वह मोती सिंह का इंतज़ार कर रहा था। उसकी व्यग्रता का आलम यह था कि वह चार समोसे खा चुकने के बाद पाँचवीं बार चाय पी रहा था। उसने चाय का गिलास उठाया था कि किसी ने उसे आवाज़ दी। मुड़कर देखने के पहले वह झुंझलाया, “एक रुपए का चूना लगा चाय पिलाने में।”

आवाज़ देनेवाला राजदेव का पत्रवाहक टुटपुजिया था। टुटपुजिया पास आया, “आपके घर गया था, पता चला आप यहीं आ गए हैं।”

टुटपुजिया की आवाज़ में लहर थी और वह काँप रहा था- “तो तुम गए नहीं वहाँ चिट्ठी लेकर?”

“मैं गया था वहाँ, और लौट भी आया।”

“अबे इतनी जल्दी क्या थी लौटने की? कहा तो था कि परसों मिलना।”

“बात ही कुछ ऐसी थी तुरन्त लौटना पड़ा।”

“बात ही कुछ ऐसी थी… बात ही कुछ ऐसी थी।” राजदेव मुँह बिराने लगा फिर डाँटकर कहा, “क्या बात थी?”

टुटपुजिया हकलाने लगा- “….बात यह थी कि सावित्री माँ बन गई थी। वह अजीबोगरीब सन्तान थी। उसके मुँह से हमेशा चारों पहर, सोते-जागते लार बहती थी, वह लार से लिथड़ी सन्तान थी। जैसे उसके पेट में लार की टंकी हो- जब देखो तब लार बहती रहती।

वह पीली और दुर्बल थी। चिचुकी हुई। बहुत बासी तरोई की तरह। उसमें जीवन के चिह्न नहीं थे। जीवन गायब था। बस जीवन की परछाईं जैसे धूप से गिर पड़ी हो। वह हँसती थी न रोती थी। हाँ कोई उसके हाथ छुए, तो चिल्लाने लगती थी। हाथ में जीवन था पर हाथों की गति असह्य थी उसको। वह गोरी-गोरी और पिलपिली थी। लगता, मृत्यु ने ढेर सारा बलगम थूका है।

सावित्री बगल में पड़ी रो रही थी। वह कहती, ‘आज एक माँ का भाग्य फूट गया।’

उसके आँसू और सन्तान की लार मिलकर एक हो गए थे। आँसुओं का लार में विलयन हो गया था। लार ज्यादा थी आँसू कम। आँसू दिखते नहीं, सब जगह लार ही लार। लोग बोले…. ‘ऐसी सन्तानें बचती नहीं। माँ के आँसुओं से प्यास बुझानेवाली औलादें ज्यादा दिन जीती नहीं। ये जल्दी से जल्दी मर जाने के लिए ही पैदा होती हैं।’

पर सन्तान मरी नहीं। वह तो ताजादम हो रही थी। जैसे कि किसी मायावी का छल हो, सन्तान स्फूर्त और गतिमय हो रही थी। बहुत द्रुत रफ्तार से। जबकि माँ पीली पड़ती जा रही थी। अजीब तारतम्य था, एक की चेतना और दूसरे की मूर्छा में ऐसा मालूम होता था, सन्तान अदृश्य नली में माँ का बूंद-बूंद रक्त पी रहा है। माँ निचुड़ रही है, कमजोर और अचेत होती जा रही है, सन्तान ताजादम और ललछौंह हो रही है….”

राजदेव को लोगों से घिरे मोती सिंह दिख गए। राजदेव ने चिल्लाकर और हाथ उठाकर उन्हें अपनी तरफ आकर्षित किया और टुटपुजिया से पूछा, “तो, तुमको हम यही समाचार लाने के लिए भेजे थे?”

टुटपुजिया की बुद्धि में नहीं आया कि जवाब में वह क्या बोले। वह आँख मुलमुलाते हुए, राजदेव को देखने लगा। राजदेव की इच्छा हुई कि उसकी आँखे फोड़ दे, लेकिन वह चुपचाप ससुराल में उपस्थित स्थिति के बारे में सोचने लगा।

“तो मेरे लिए क्या आदेश है?” टटपुजिया ने प्रश्न किया।

“तुम… तुम… ” वह हकलाने लगा, “तुम फिर वहीं चले जाओ। तब तक रहो जब तक सब ठीक न हो जाए। कोई खास बात हो, तो यहाँ और दिल्ली के पते पर तार कर देना। फौरन।”

टुटपुजिया जा रहा था और ट्रेन आ रही थी। वह मोती सिंह की तरफ लपका।

“तो चल रहे हो न!” मोती सिंह मुँह में पान भरे थे। ट्रेन रूकी। राजदेव पागलों की तरह ए.सी. डिब्बे में घुसा। माती सिंह इतमीनान से।

ट्रेन भाग रही थी।

राजदेव के हाथ में मोती सिंह का दिया एक संतरा था। संतरे को पकड़े हुए वह विचारमग्न था।

– यदि बच्चा मर गया तो?

– तो क्या, दूसरा पैदा कर लेंगे।

– बीवी मर गई तो?

– तो क्या.. तो क्या…।

– दोनों मर गए तो?

उसने निश्चय किया, यदि ऐसा हुआ तो, अपने बायोडाटा में जोड़ेगा : पब्लिक की सेवा में, पार्टी की खिदमत में, गृहस्थी तबाह हो गई। परिवार उजड़ गया। इस सम्बन्ध में टुटपुंजिया का तार मिला तो नत्थी कर देगा।

उसने लम्बी साँस छोड़ी और संतरा छीलने लगा।

संतरे में बड़ा रस था।

अखिलेश
जन्म : 1960, सुल्तानपुर (उ.प्र.)। शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी साहित्य), इलाहाबाद विश्वविद्यालय। प्रकाशित कृतियाँ—कहानी-संग्रह : आदमी नहीं टूटता, मुक्ति, शापग्रस्त, अँधेरा। उपन्यास : अन्वेषण। सृजनात्मक गद्य : वह जो यथार्थ था। आलोचना : श्रीलाल शुक्ल की दुनिया (सं.)। पुरस्कार/सम्मान : श्रीकांत वर्मा सम्मान, इन्दु शर्मा कथा सम्मान, परिमल सम्मान, वनमाली सम्मान, अयोध्या प्रसाद खत्री सम्मान, स्पन्दन पुरस्कार, बाल कृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार, कथा अवार्ड।