वहाँ पहुँचते ही मुझे लगा कि आना गलत था। बिल्कुल गलत। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और लौटना मुमकिन नहीं था। मैं क्या करता सिवाय इसके कि चुपचाप उस दृश्य का हिस्सा बन जाऊँ। ‘क्या हो गया, क्या हो गया’, कहता हुआ मैं इसमें शामिल हो गया।

एक-दस बारह साल का छोकरा पिट रहा था – लात, घूँसों और थप्पड़ों से और आसपास खड़े सात-आठ लोग तमाशा देख रहे थे। नहीं, उस दृश्य में शामिल होते हुए मुझे लगा, तमाशा तो घरों के लोग देख रहे थे। वे सात-आठ लोग तो अपनी-अपनी जबानों से भी उस छोकरे को पीटने में लगे थे।

“क्या हो गया भई!” आखिर मैंने त्रिपाठी के मारते हुए हाथ को पकड़ लिया।

अब दृश्य बदल गया था और लोग पास-पास सिमट आए थे।

“चोरी”, किसी ने कहा, “साला, चोरी कर रहा था और क्या।”

मैंने त्रिपाठी को इतने गुस्से में इससे पहले कभी नहीं देखा था। उसका चेहरा तमतमा रहा था, नथुने फूल गए थे, सिर के बाल पेशानी पर आ गए थे। और झूमा-झटकी या मार-पीट में उसका गिरेबान फट चुका था।

“साले ने आज सारा घर ही खोल दिया था।” कहकर त्रिपाठी ने छोकरे को फिर एक घूँसा जड़ दिया, इतनी जोर का कि छोकरा औंधे मुँह गिर पड़ा और सूअर की तरह चिल्लाने लगा –

“मैंने चोरी नहीं की साब,” छोकरे ने मेरी ओर गुहार लगाई। उसका आधा चेहरा धूल में सन गया था और निचले होंठ से खून बह रहा था। वह बिलखने लगा, “अल्ला कसम, मैंने किसी चीज को हाथ नहीं लगाया। अल्ला कसम, कुछ भी नहीं लिया…”

“हरामजादे”, त्रिपाठी ने छोकरे को बाँह पकड़कर उठाया और दुबारा एक झापड़ रसीद करने वाला था कि मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। नर्मी से बोला, “रुको त्रिपाठी, मारो मत। आखिर समझने तो दो कि हुआ क्या।”

“अरे साहब, होगा क्या,” घेरे में से किसी ने कहा, “देख तो रहे हैं कि चोरी करता हुआ पकड़ा गया। वो तो किस्मत अच्छी थी, वरना…”

“त्रिपाठी जी और लगाइए साले को,” एक दूसरे ने कहा, “सूअर के बच्चे ने सारे मुहल्ले को तंग कर रखा है। आए दिन चोरी, आए दिन हंगामा…”

नेक मशविरा देने वाले इस सज्जन की ओर देखना मैंने मुनासिब नहीं समझा।

छोकरे को संबोधित कर मैंने जोर से डपटते हुए पूछा, “क्यों बे चोरी कर रहा था?”

छोकरे ने और जोर से बिलखना शुरू कर दिया और अपनी सफाई देने लगा। वैसे भी मेरे वहाँ पहुँचते ही उसने सीधे मुझे मुखातिब करना शुरू कर दिया था। शायद यह समझकर कि सारी भीड़ एक है और वहाँ हमदर्दी मुझसे ही मिल सकती है। वह एक ही रट लगाए हुआ था, “साब, मैंने कोई चोरी नहीं की, मैंने कुछ भी नहीं लिया…”

“इस हरामी से पूछो,” त्रिपाठी ने मुझसे कहा, “अगर यह चोर नहीं है तो सूने घर में घुसा यह क्या कर रहा था? पीछे की दीवार फाँदकर यह क्यों गया था?”

“गुसलखाने के पास था, मैं नहाने गया था”, छोकरे ने कहा।

“नहाने के लिए सूने घर की दीवार फाँदी जाती है, और वह भी दूसरे के घर की?”

कई लोग हँसने लगे। “देखो, कितना चालबाज है!” किसी ने कहा।

“यह अँगूठी आज चली गई थी।” त्रिपाठी मुझे बताने लगा, “वो तो पाँच मिनट की भी और देर हो गई होती तो साले ने अँगूठी तो आज मार ही दी थी – सारा घर भी कोल दिया था।”

किस्सा सिर्फ इतना था कि त्रिपाठी के एक मित्र, पड़ोसी और सहकर्मी अपने परिवार के साथ छुट्टियाँ बिताने कश्मीर गए हुए थे। चूँकि टी.टी. नगर में दिन-दहाड़े चोरियाँ आम बात थीं लिहाजा एहतियातन उन्होंने घर की चाबियाँ त्रिपाठी को सौंप दी थीं, इस आग्रह के साथ कि वे घर की देख-रेख करते रहें और हो सके तो रात को वहीं सो जाएँ। शरमा-हुजूरी में त्रिपाठी ने यह जिम्मा ओढ़ लिया था और पिछली रात वह अपने बीवी-बच्चों को छोड़कर पहली बार वहाँ सोया था। सुबह घर लौटने के बाद शेव करते वक्त सहसा ध्यान आया कि अपनी सोने की अँगूठी तो वह वहीं भूल आया है। गर्मियों का जमाना था। वह सहन में चारपाई डालकर सोया था और आदतन उसने अपनी अँगूठी उतारकर बगल के स्टूल पर रख दी थी। सोचा, लौटकर अँगूठी उठा लाऊँ वरना वहीं रह जाएगी लेकिन वहाँ पहुँचकर देखा तो होश उड़ गए। अँगूठी स्टूल से गायब थी। वह नीचे पड़ी हुई थी और एक छोकरा त्रिपाठी को देखकर गुसलखाने के पीछे दुबक रहा था।

“क्यों?” अब मैंने छोकरे को पकड़ लिया। डपटती आवाज में कहा, “बुलाऊँ पुलिस को! दूँ दो-एक हाथ मैं भी? हरामखोर कहीं का। याद रखना, आइंदा ऐसी हरकत की तो हड्डी-पसली बराबर हो जाएगी। भाग यहाँ से, चल फूट…”

अपने को छुड़ाकर जब वह छोकरा बगटुट भाग निकला तो मुझे लगा कि मैं सबकी जलती आँखों का केंद्र बना हुआ हूँ। उनमें से एक ने उसे आगे बढ़कर पकड़ने की भी कोशिश की थी लेकिन वह मछली की तरह हाथों से फिसल गया था – एक मिनट के अंदर यह जा, वह जा।

“भई, यह तो बड़ी ज्यादती है,” किसी ने तिलमिलाए स्वर में कहा, “मोहल्ले में चोरियाँ होती रहें और हमीं लोग शह दिए जाएँ।”

यह सरकारी कर्मचारियों का नेता बर्मन था, बनियान और पट्टीदार पजामे में। आवेश में वह कह रहा था, “मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि पिछले दिनों मेरी छत से सारी लकड़ियाँ इसी लौंडे ने पार की हैं। सोचते हैं, जाने दो, बच्चा है, गरीब है…”

“अरे बच्चा नहीं, उस्ताद है।” मुहकमए-मछलियात के भट्ट ने प्रतिवाद किया। भट्ट ने एक रद्दा कसा, “जो आपके भी कान काट दे, वह बच्चा कैसे हुआ?”

कुछ लोग हँसने लगे।

“अमाँ, हँसी की बात नहीं”, भट्ट ने सम्हलते हुए कहा, “छोकरे की उम्र देखो और उसकी हरकतें देखो। मैंने खुद अपने गार्डन का बल्ब चुराते इसे दो बार देखा है।”

“मैं बताता हूँ,” एकाएक आगे बढ़कर चौधरी बोला, “गया इतवार को हाम पिक्चर गया था फैमिली का साथ। मैटनी शो। तारपोरे लौटकर देखा तो पीछू के आँगन से वाइफ का शाड़ी गायब। उहाँ एक लोटा परा था, शाला वो भी ले गिया…”

मुहल्ला छोटे अफसरों और बड़े बाबुओं की बस्ती का। मुहल्ला भी क्या आमने-सामने खड़े बत्तीस क्वार्टरों का एक ब्लॉक। सुबह के नौ बजे होंगे, शायद साढ़े नौ। बदली थी, आकाश का मुँह उतरा हुआ था। सड़क के किनारे किनारे लगे यूकलिप्टस के पेड़ चुप थे, पत्तियाँ तक जमी हुई। ऊपर से मौसम छलने वाला था लेकिन लोग जानते थे कि ज्यादा समय नहीं है। दफ्तर की भगदड़ शुरू होने का वक्त करीब-करीब ही था। वहाँ खड़े हर आदमी के पास कोई-न-कोई अपनी शिकायत थी जिसे जल्द-से-जल्द सुनाकर वह हल्का होना चाहता था। सभी का खयाल था कि इधर आए दिन जो चोरियाँ होने लगी थीं, उन सबकी जड़ में यही छोकरा है।

“भई, कुछ करना चाहिए,” बर्मन ने कहा, “वरना इसका हौसला तो बढ़ता ही चला जाएगा।”

“पुलिस में दे दो,” एक सुझाव आया, “पाँच-दस हंटर पड़ेंगे तो अक्ल ठिकाने आ जाएगी।”

“उसमें कोई फायदा नहीं होगा। पुलिस इसे दो-तीन बार ले जा चुकी है।” किसी ने बताया, “लेकिन पट्ठा वहाँ से भी निकल आता है। असल में पुलिस भी क्या करे। छोकरा नाबालिग है, डाँट-डपटकर पुलिस भी छोड़ देती है।”

“इलाज मैं बताता हूँ,” मुहकमद-मछलियात वाले भट्ट ने कहा तो सब उसकी ओर देखने लगे। भट्ट खुद कालोंच मछली की तरह फूला हुआ और भद्दा था। कहने लगा, “उस शाख को ही काट फेंको जिसपर उल्लू बसेरा करता है। सवाल यह है कि वह झुग्गी क्यों नहीं हटाई जा सकती जिसमें यह छोकरा पल रहा है। मैं तो अपनी तरफ से कारपोरेशन और पी.डब्ल्यू.डी. के अधिकारियों को कह चुका हूँ। अब अगर मिलकर हम लोग लिखें तो क्या मजाल है कि झुग्गी घंटे-भर में न हट जाए…”

इस पर थोड़ी चख-पक हुई। सलाह-मशविरा। तू-तू मैं-मैं। फिर बिना किसी नतीजे पर पहुँचे लोग अपने-अपने घरों की ओर खिसक गए। सभी को दफ्तर की जल्दी थी।

“आओ,” मैंने त्रिपाठी के कंधे पर हाथ रखकर कहा। दरअसल, यह बात मुझे बुरी तरह कोंच रही थी कि त्रिपाठी ने मुझसे एक बार भी बात नहीं की थी और मुझे लग रहा था कि मेरी दखलअंदाजी शायद उसे पसंद नहीं आई।

“कहाँ?”

“अपने घर चलते हैं,” मैंने बेहद नर्मी से कहा, “कम से कम पुलिस को तो फोन कर दें।”

“अच्छा हुआ, तुमने मुझे रोक दिया।”

बड़ी देर बाद त्रिपाठी ने कहा। अपने कमरे में आकर बैठे हुए देर हो चुकी थी। चाय आ चुकी थी और हम दोनों सिगरेट पी रहे थे। टेलीफोन पास ही रखा था लेकिन पुलिस को फोन करने का ध्यान न तो उसे आया और न मुझे।

“तुम्हें इतने गुस्से में मैंने पहले कभी नहीं देखा था,” मैं बोला।

“हाँ, मेरा खून खौल रहा था। मैं शायद उसे और मारता अगर तुमने बीच में आकर उसे बचा न लिया होता।”

“मैं जानता हूँ,” मैंने कहा, “दरअसल, वह जिस तरह पिट रहा था मुझे लग रहा था कि कहीं साला मर-मरा गया तो एक मुसीबत… तुम मुहल्ले में नए-नए आए हो। इन लोगों को नहीं जानते। तुम क्या समझते हो कि जितने लोग वहाँ तमाशबीन बने तुम्हें उकसा रहे थे, वे तुम्हारे साथ होते, अगर खुदा ना ख्वास्ता…”

“मुझे मालूम है,” त्रिपाठी ने अधैर्य के साथ कहा, “लेकिन बात वह नहीं है। यार सोचो तो, अगर इसका यही हाल रहा तो आगे चलकर यह कितना बड़ा पेशेवर होगा। कहता है, नहाने गया था। भई, नहाना है, तो अपने घर पर नहा। सूने घर में छलाँग लगाने की क्या जरूरत है।”

“पुलिस को फोन करें?”

“करते हैं,” उसने कहा, “लेकिन यह सच है कि पुलिस कुछ नहीं करेगी। ज्यादा से ज्यादा दो-चार झापड़ मारकर छोड़ देगी। यह अच्छा तमाशा है, कानून की गिरफ्त में वह आता नहीं क्योंकि वह नाबालिग है, आप कुछ कर नहीं सकते क्योंकि बच्चा है, गरीब है… यह झुग्गी कहाँ है?”

“पीछे ही है, गली में एक तरफ से हमारे घर से लगी हुई है। विधानसभा वाले सिद्दकी साहब के यहाँ काम करती है इस छोकरे की माँ। बेवा है, दो छोटे-छोटे बच्चे और हैं। दरअसल उसका मियाँ विधानसभा में चपरासी था, एक दिन अचानक मर गया। मासूम बच्चों के साथ यह औरत कहाँ जाती सो सिद्दकी साहब ने अपने घर काम पर रख लिया। शायद उन्हीं की मदद से इसने पास में झुग्गी बना ली है।”

“तो उसे बुलाकर कहें,” त्रिपाठी बोला, “डाँटते हैं कि अपने लौंडे को सम्हाल।”

“वो खुद को परेशान है। मसल है न, राँड का बेटा साँड।”

त्रिपाठी ने बेचारगी में एक नई सिगरेट निकाली और सुलगाने लगा। मैंने खिड़की से बाहर, सीखचों से कटे-पिटे आसमान को देखा, महज देखने के लिए। बदली अभी भी थी, लेकिन कुछ हवा चलने लगी थी। पेड़ों के पत्ते हल्के-हल्के काँप रहे थे। इसी बीच त्रिपाठी की छोटी बच्ची घर से संदेश लेकर आई, “मम्मी पूछ रही हैं, क्या आज दफ्तर नहीं जाना है?”

“आते हैं बेटे, तुम चलो।” त्रिपाठी ने हँसकर कहा, “अभी तो वक्त है।”

बच्ची चली गई लेकिन कोई दो मिनट बाद फिर लौट आई यह खबर लेकर कि कोई औरत उनसे मिलने आई है।

त्रिपाठी ने फिर यह कहकर लौटाया कि उसे यहीं भेज दे।

“साबिर की अम्मा है…” बच्चों में से किसी ने बताया।

“साबिर कौन?”

“वही छोकरा, शायद उसकी माँ आई है।”

सुनकर त्रिपाठी कुछ सोचने लगा। सिगरेट की राख झाड़ने के बहाने।

दरवाजे का परदा सरकाकर साबिर की माँ खड़ी हो गई, वहीं दहलीज पर। मैले कुरते और इंतजार में वह अधेड़ औरत घिसी हुई लगी, अल्मूनियम के पुराने बर्तन की तरह। उसका साँवला रंग जला हुआ और ठंडा था, चूल्हे की बुझी हुई राख ढकी लकड़ी की तरह। और आँखें? वे बारिश के छोटे-छोटे और गँदले डबरों की तरह थीं, बाढ़ उतर जाने के बाद। मेरा खयाल था कि वह त्रिपाठी को कोसने-काटने आई है, शोर मचाएगी, लेकिन वह ऐसे खड़ी थी जैसे कटघरे में हो।

“क्यों?” त्रिपाठी ने गला साफ कर संयत स्वर में उससे कहा, “देख ली अपने लौंडे की करतूत!”

अपनी गर्दन झुकाकर वह दूसरी तरफ देखने लगी।

“मालूम है, तुम्हारे छोकरे ने क्या किया है?” अब मैंने पूछा।

“वह कहता है, मैं नहाने गया था।”

“कौन नहाने गया था?” त्रिपाठी चिल्लाया, “तुम्हारा साबिर? हमें झूठा बनाती हो। मैंने अपनी आँखों से देखा है अपने सूने घर में। वह अँगूठी को ताकता बैठा था। अपने हाथों से मैंने छोड़ दिया वरना हड्डी-पसली एक कर देता। बुलाऊँ पुलिस को? दे दूँ तुम्हारे इस लाड़ले को?”

“दे दो साहब”, उसने नर्मी से जवाब दिया, “हम तो खुद तंग आ चुके हैं। मैं कितना समझाती और मारती-पीटती हूँ, क्या बताऊँ। कई बार तो मैंने उसका गला मसक दिया है। वह मरता भी नहीं है। मुझे तो इस माटी मिले पेट के दोजख से ही फुरसत नहीं मिलती। हो गई, अपनी तो जिंदगी ही बरबाद हो गई…”

कहते-कहते उसका गला रुँध आया और वह रोने लगी।

“वह क्या करता है?” एकाएक खिंच गए सन्नाटे को तोड़ते हुए मैंने पूछा।

“एक दुकान पर लगा रखा है। साड़ियों पर कढ़ाई का काम करता है, सुबह नौ बजे से शाम सात बजे तक। यह भी अच्छा है कि उसे वक्त नहीं मिलता वरना खुदा जाने वह कितनी आग मूतता?”

“कितना मिलता है?”

“दो रुपए रोज।”

“यार, सुनो,” मैंने एकाएक उत्साह में भरकर त्रिपाठी से कहा, “अब मुझे याद आया कि यह लौंडा तो बहुत हुनरमंद है। एक दफा हमारे यहाँ साड़ियाँ लेकर आया था। मैं तो उसकी कढ़ाई देखकर हैरान रह गया। ऐसी सफाई, खूबसूरती और नफासत कि यकीन नहीं होता।”

“हाँ साब,” उस औरत ने साँस भरकर कहा, “अल्लाह ने उसके हाथ में हुनर तो दिया है लेकिन कोई वसीला नहीं दिया।”

वसीला-मसीला सब निकल आता है,” त्रिपाठी बोला, “पहले वह अपनी आदत तो सुधारे। मैं उसे अच्छी जगह काम दिला दूँगा। दो के बदले दस मिलने लगेंगे। कौन-सी बड़ी बात है!”

स्वीमिंग पूल से लौटकर हम दोनों बाहर लान पर बैठे हुए थे। उस घटना के सात-आठ दिन बाद गर्मियों की शाम थी। रोज की तरह बदली नहीं थी। ऊपर धुआँ-खाए बादलों की जगह चमकीला आसमान था, नर्म हवाओं के बीच। यूकलिप्टस की पत्तियों, मेंहदी की बाड़ और लान की घास पर पारदर्शी आकाश उतरा हुआ था।

“शाम अच्छी है,” त्रिपाठी ने कहा।

“बहोत।”

“कुछ देर बाद और ठंडी हवाएँ चलेंगी।”

“हाँ, लाल घाटी से।” मैंने कहा, “ये हवाएँ वहीं से आती हैं।”

हम दोनों कोल्ड-कॉफी खत्म कर रहे थे। स्वीमिंग के बाद आई थकावट-भरी ताजगी थी जो हमें रोज ऊपर हवाओं में फेंक देती है – सेमल के गोले की तरह तैरने के लिए।

“क्या प्रोग्राम है?” कुछ देर बाद मैंने पूछा।

“आज सेटरडे ईवनिंग है न,” त्रिपाठी ने कहा, “भट्ट के यहाँ चलना है।”

शनिवार की शाम हम लोग वीक-एंड मनाते थे। त्रिपाठी के आने के बाद तीन-चार दोस्तों का एक ग्रुप बन गया था। मछलियात वाला भट्ट इस ग्रुप में यकीनन नहीं था लेकिन पिछले दिनों अपनी कंपनी ने उसे आज के लिए फाँस लिया था। वैसे वह कंजूस और दिखाऊ था। मुहल्ले वाले उसे मिनी आई.ए.एस. अफसर कहते थे क्योंकि वह रोज शाम को गाउन पहनता था और अपने कुत्ते को लेकर देर शाम तक सड़क पर टहलता था। उसके बारे में यह बात खासतौर पर मशहूर थी कि वह अपने फ्रिज में शराब की कई बोतलें रखता है, लेकिन शराब की मिक्दार न तो बढ़ती है और न घटती है, हमेशा तलहटी में चिपकी हुई।

“गुरू,” मैंने त्रिपाठी से कहा, “सच पूछो तो मेरा भट्ट के यहाँ जाने का कोई इरादा नहीं है? साले की आँख में सूअर का बाल है। सरकार को कोल कर अपना घर भरे जा रहा है और उस पर ऐंठता भी है। सवाल यह है कि आप हर वक्त मछली की बातें क्यों करते रहते हैं।”

त्रिपाठी हँसने लगा। सयानी सी हँसी।

“याद है, साबिर वाली उस घटना के दिन वह कितना कूद रहा था। लग रहा था वह तुमसे भी ज्यादा गुस्से में हो।”

“हाँ, याद आया,” त्रिपाठी बोला, “सुनो, क्या मैंने तुम्हें बताया है कि वह छोकरा उसके बाद मुझे घेरने लगा था?”

“क्यों?”

“अरे उस दिन मेरे मुँह से कुछ निकल गया था न। साले ने जबान ही पकड़ ली थी। कहता है, कोई अच्छा काम दिला दो। अब यहाँ हम कहाँ चक्करों में पड़ें।” पता चला है कि जमानतदार की तरह त्रिपाठी जी एक दिन थाने पर खड़े हैं।

बताया मैंने भी नहीं था। त्रिपाठी को भी नहीं। सिर्फ घर वालों को मालूम था कि साबिर की अम्मा मेरे घर दो-तीन बार चक्कर लगा चुकी है। पहले वह उस घटना के एकाध हफ्ते बाद आई थी। कहने लगी, मुहल्ले वाले उसकी झुग्गी हटवाना चाहते हैं। मिल-जुलकर दरख्वास्त दी गई है और कोशिशें हो रही हैं, खुदा के लिए मैं उसकी मदद करूँ! मैं क्या करता? क्या मैं कानून के हाथ पकड़ लेता? वैसे भी उस दिन वाली घटना में पड़कर मैंने मुहल्ले में काफी बदनामी उठाई थी। भट्ट और उस-जैसे दो-एक लोगों ने दबी जुबान में कहा था कि मियाँ भाई ने छोकरे को तरकीब से भगा दिया। साफ-साफ शह दी जा रही है… क्योंकि एक ही बिरादरी के हैं। कहा गया है अमाँ, कुछ भी कहो, खून पानी से गाढ़ा होता है…

“वह औरत भी मेरी जान को लगी है,” मैंने ऊबे हुए स्वर में त्रिपाठी से कहा, “आज सुबह भी आई थी। कह रही थी कि कारपोरेशन वाले पुलिस लेकर आए थे। धमकी देकर गए हैं कि शाम तक नहीं हटी तो सामान फेंककर झुग्गी गिरा दी जाएगी।”

त्रिपाठी मेरा मुँह ताकने लगा।

“क्या मोहल्ले से कोई दरख्वास्त गयी थी?”

“हाँ, काफी पहले। भट्ट ने सबके दस्तखत कराए थे। क्या वह तुम्हारे पास नहीं आया था?”

“नहीं,” कहते हुए मुझे चोट लगी। सिर्फ चोट नहीं, वह धक्का था। आखिर क्या समझकर भट्ट ने मुझे छोड़ दिया? अगर वह मेरे पास आता तो क्या मैं दस्तखत करने से मना कर सकता था?

“साब, मैं किसके पास जाऊँ?”, सुबह उस औरत ने रोते हुए मुझसे कहा था, “सिद्दकी साहब दौरे पर हैं और आपके सिवा हमारा यहाँ कोई नहीं। यहाँ तो जिसे देखो हाथ में तीर-कमान लिए बैठा है। लोगों का तो जैसे कलेजा सफेद हो गया है। अब अपनी बिरादरी के होकर आप भी मेरे लिए कुछ न करें तो…”

“देखो बीया,” मैंने झल्लाकर गुस्से में कहा था, “बिरादरी-मिरादरी की बकवास तो तुम यहाँ रहने दो, क्या मैं चोरों की बिरादरी का हूँ?”

ड्राइंग-रूम में हम आम चुनाव की बातों कर रहे थे, शराब के सहारे। बाहर लान से हम कभी के उठ आए थे। वहाँ हवा थी, सिर पर खुला आसमान था, हरी मेहँदी वाली बाड़ की ठंडक भी लेकिन ज्यादा देर बैठना मुश्किल हो गया। भट्ट का जिक्र निकलते ही मैं कुत्ते की तरह टूट पड़ा था। इससे पहले मैं खुद भी नहीं जानता था कि मैं उससे इतनी नफरत करता हूँ।

“यार, मैं भट्ट का पक्षधर नहीं हूँ,” त्रिपाठी ने मेरा रुख देखकर कहा था, “तुम्हारे गुस्से को भी समझता हूँ लेकिन सवाल यह है कि भट्ट ही क्यों, कोई और क्यों नहीं या वह व्यवस्था क्यों नहीं जिसके चलते ये छुट्टे साँड बने हुए हैं या साबिर जैसे लोग पैदा होते हैं। क्या भट्ट अकेला है? असल में उसके साथ पूरी की पूरी बिरादरी नहीं है? और क्या हम-तुम भी उस बिरादरी में शामिल नहीं हैं? असल में दोस्त हमारा-तुम्हारा दर्द यह नहीं कि भट्ट सरकार को कोल रहा है, तकलीफ यह है कि हाय, उसकी जगह हम क्यों नहीं हुए?”

“अपना निशान, तीर कमान –
तीर कमान, तीर कमान।”

सहसा पास वाले नुक्कड़ से लाउडस्पीकर की सामूहिक आवाज आई थी –

“जीतेगा भई जीतेगा,
तीर वाला जीतेगा।”

टैक्सी थी। चुनाव अभियान वाली। एक तो मेरे मुँह का स्वाद कड़वा हो गया था, दूसरे सारा शोर इधर ही बढ़ता आ रहा था। चलो, अंदर ही बैठते हैं, एकाएक उठकर मैंने कहा था और हम लोग भीतर आ गए थे। वह अच्छा ही हुआ। एकाएक उस अप्रिय बहस से छुटकारा मिल गया था और चुनाव की बातें चल पड़ी थीं। मैंने फ्रिज खोलकर बोतल निकाली थी, बहुत सारे आइस-क्यूब्स लिए थे और दो-एक मिनट बाद त्रिपाठी की ओर गिलास बढ़ाकर कह रहा था, “व्हिस्की आन राक्स, चीयर्स।”

कालेज के दिनों में मैं कम्युनिस्ट पार्टी का कार्ड-होल्डर था और त्रिपाठी ने बताया था कि वह सोशलिस्ट पार्टी का सक्रिय सदस्य था। सरकारी नौकरी में आने के पहले त्रिपाठी सोशलिस्ट पार्टी के एक अखबार का संपादक था और जन-सभाओं में आग उगला करता था। कहा जाता है कि उसके बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर ही तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उसे एक दिन पालतू बना लिया और उसके गले में सरकारी तौक पड़ गया। अब हम दोनों सरकारी नौकर थे। दोनों के मुँह पर ताले पड़े हुए थे लेकिन दिल पर किसका ताला हो सकता था? बहस-मुबाहसे में अब भी हम अक्सर नाराज होते थे और इस बात की गहरी चिंता थी कि देश की प्रगतिशील ताकतें दिन-ब-दिन कमजोर होती जा रही हैं…

“डबल रोटी… ब्रेडवाला…”

सहसा दूर से एक फेरी वाले की आवाज आई, खामोशी को चीरती हुई। एकाध मिनट बाद उसकी साइकिल हमारी सड़क से गुजर रही थी। डबल रोटी वाला था यानी नौ बज गए। मैंने उठकर खिड़की के पल्ले ठीक किए और उसके कानों पर खटके लगाए। वह बार-बार बंद हो रही थी। न्यू मार्केट में चल रही आम सभा की आवाज अब साफ आने लगी थी। बाहर हवा तेज थी। बहुत तेज और ठंडी- यानी लाल घाटियोंवाली। मेहँदी की बाड़ आपस में झकोले खा रही थी। खिड़की पर आधी झुक आई बोगनबेलिया बार-बार गर्दन झुकाकर यूँ हवा से लड़ रही थी जैसे उसके सींग हों। काले आसमान की पीठ पर टिका यूकेलिप्टस का पेड़ एकदम सफेद लग रहा था – चँवर डुलाता और धीरे-धीरे शोर करता हुआ…

मैंने लौटकर रेकार्ड-प्लेयर खोल दिया। गजलें सुनने या खामोशी को भरने के लिए, पता नहीं।

“एक और?” मैंने त्रिपाठी का गिलास उठाते हुए पूछा।

हम लोग दो-दो पैग पी चुके थे और मैं तीसरा बनाना चाहता था। त्रिपाठी ने सहमति में सिर हिलाया। अभी गिलास लेकर उठा ही था कि बाहर से गेट खुलने की आवाज आई। बरामदे में लेटी हुई रानी जोर-जोर से भौंकने लगी थी।

“कौन है?” त्रिपाठी ने आँख के इशारे से पूछा।

मैंने थोड़ी देर बाहर की आहट लेने की कोशिश की फिर अपना काम करने लगा।

“गरीबों का साथी कौन,
“दिलावर खान, दिलावर खान।”

दूसरे नुक्कड़ पर चुनाव वाली टैक्सी फिर कहीं से आ गई थी। एक मिनट रुककर लाउडस्पीकर की आवाज दूर से आने लगी।

“…दुखियारों का कौन?”
“दिलावर खान, दिलावर खान”
“जीतेगा भई जीतेगा…”

“साबिर की माँ आई है।” कुछ देर बाद भीतर बुलाकर बीवी मुझसे कह रही थी। वह मुसल्ले के पास खड़ी थी और शायद नमाज पढ़ने जा रही थी।

“कहाँ?”

“बाहर खड़ी है।”

“इस वक्त?”

“अल्लाह तोबा, किस कदर रोए जा रही है।” बीवी ने कहा, “कुछ बताती तो है नहीं। बस कहती है, मियाँ से मिलवा दो।”

लगा, नशे के बावजूद मेरा चेहरा फक पड़ गया था। उस एक क्षण में झुग्गी, साबिर की माँ, साबिर- सबके चेहरे आँखों में घूम गए। गुस्सा अपने ऊपर आया। मैं ही घपले करता रहता हूँ। क्यों नहीं साफ-साफ कह दिया मैंने सुबह? कह दिया, देखेंगे। क्या देखेंगे?

“मैं जानता हूँ कि वह क्यों आई है,” मैंने झल्लाकर कहा, “अच्छी मुसीबत गले पड़ी है। तुम ही बताओ, मैं इसमें क्या कर सकता हूँ। एक तो सरकारी और कानूनी मामला है, दूसरे मैं…”

“उससे क्या कह दूँ?”

“भई, कुछ भी कह दो। टालो उसे यहाँ से।”

लौटकर मैंने तीसरा पेग बनाया और गिलासों में बहुत-से आईस-क्यूब्स भर दिए। इतने कि उनमें पानी तक की जगह नहीं रही।

“क्या बात है?” त्रिपाठी ने मुझसे पूछा।

“अमाँ यार…”

कहकर मैं रुक गया। आगे न तो बोलना था और न मुझसे बोला गया। गिलास में घूँट लेते हुए भी मेरे कान बाहर लगे हुए थे। वहाँ मेरी ही बीवी कह रही थी, “साबिर की अम्मा, तुम सुबह मिल लेना। अभी तो वे सो रहे हैं!”

शानी
गुलशेर ख़ाँ शानी (जन्म: 16 मई, 1933 - मृत्यु: 10 फ़रवरी, 1995) प्रसिद्ध कथाकार एवं साहित्य अकादमी की पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' और 'साक्षात्कार' के संस्थापक-संपादक थे। 'नवभारत टाइम्स' में भी इन्होंने कुछ समय काम किया। अनेक भारतीय भाषाओं के अलावा रूसी, लिथुवानी, चेक और अंग्रेज़ी में इनकी रचनाएं अनूदित हुई। मध्य प्रदेश के शिखर सम्मान से अलंकृत और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत हैं।