लेखिका वन्दना राग का उपन्यास ‘बिसात पर जुगनू’ सदियों और सरहदों के आर-पार की कहानी है। हिंदुस्तान की पहली जंगे-आज़ादी के लगभग डेढ़ दशक पहले के पटना से शुरू होकर यह 2001 की दिल्ली में ख़त्म होती है। गहरे शोध और एतिहासिक अंतर्दृष्टि से भरी इस कथा में इतिहास के कई विलुप्त अध्याय और उनके वाहक चरित्र जीवंत हुए हैं। यहाँ 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की त्रासदी है तो पहले और दूसरे अफ़ीम युद्ध के बाद के चीनी जनजीवन का कठिन संघर्ष भी। इनके साथ-साथ चलती है, समय के मलबे में दबी पटना कलम चित्र-शैली की कहानी, जिसे ढूँढती हुई ली-ना, एक चीनी लड़की, भारत आयी है। यहाँ फ़िरंगियों के अत्याचार से लड़ते दोनों मुल्कों के दुःखों की दास्तान एक-सी है और दोनों ज़मीनों पर संघर्ष में कूद पड़नेवाली स्त्रियों की गुमनामी भी एक सी है। ऐसी कई गुमनाम स्त्रियाँ इस उपन्यास का मेरुदंड है। किताब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। प्रस्तुत है किताब का एक अंश—
रोज़नामचा
बैशाख की शाम, 1872
मैं कैसे बदल दूँ इबारतें? कैसे बताऊँ दुनिया को कि मुल्क में एक परगासो बीबी होती हैं और चीन में एक यू-यान बीबी। दोनों की ज़मीन कितनी अलहदा लेकिन फ़ितरत कितनी एक-सी। ये बहादुर औरतें जंग में कितना कुछ हार गई हैं, लेकिन फिर भी मुल्क की बेहतरी की चिन्ता करती हैं।
मैं इनकी तरह क्यों फ़िक्र नहीं कर पाता हूँ? मेरे लिए मुल्क के मायने क्यों नहीं, जबकि सरहदों की ज़ुबान मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता?
क्या मैं यतीम रहा इसीलिए?
क्या मैं कायर हूँ?
शायद हाँ। मैं जंग नहीं लड़ना चाहता। मुझमें वह वाला हौसला नहीं। फिर मेरे अन्दर आख़िर है क्या?
हैरान हूँ। परेशान हूँ।
और इन बहादुर औरतों के आगे मेरा सर झुका है।
काश मैं दोनों के लिए कुछ कर पाता।
काश!
फ़. अ. ख़ान
कलकत्ता
शंकर लाल को पता ही नहीं चला कि जब वे कलकत्ता पहुँचे तो पीछे क्या-क्या छोड़ आए थे। उन्होंने स्टीमर से उतरने पर सबसे पहले विलियम के क़िले (फ़ोर्ट विलियम) पर कुछ परिचित चेहरे खोजने की कोशिश की। वहीं किसी ने बताया, आप टाउन हाॅल जाइए। वहाँ आपको चाँदपुर रियासत के जहाज़ ‘सूर्य दरबार’ की ख़बर ज़रूर मिल जाएगी।
शंकर लाल ने बहुत एहतियात से अपना सामान सम्भाला और हाथ-रिक्शा कर टाउन हॉल पहुँचे। उनकी पोशाक देख कोई भी उन्हें बंगाल का भद्र पुरुष ही समझता क्योंकि वे बंगाली भद्र पुरुष जैसे ही लग रहे थे। ऐसे लोगों की कलकत्ता के अवाम में भारी इज़्ज़त थी। आते-जाते लोग उन्हें झुककर सलाम कर रहे थे। यह देख मन से कुछ घबराहट बिला गई उनके लेकिन जैसे ही वे टाउन हॉल के सामने पहुँचे तो उन्हें एक भीड़ दिखलायी पड़ी। भीड़ में ज़्यादा संख्या सिपाहियों की थी जिन्हें देख वे फिर घबरा गए और अपने सामान को ले आशंकित होने लगे। तभी दो अंग्रेज़ सिपाही अपनी बन्दूक़ों समेत उनके पास पहुँचे और उन्हें घेर लिया।
“कौन है?”
शंकर लाल को अपने बेशक़ीमती चित्रों पर ख़तरा मण्डराता दिखा… वे बुरी तरह लटपटा गए और अंग्रेज़ी में बोले,
“मैं शंकर लाल हूँ। चित्रकार हूँ। पटना से आया हूँ। पटना में हमारा मुसव्विरख़ाना है।”
सिपाहियों को शायद कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा।
“ये कैसा सामान है? इसमें क्या है?” सिपाहियों ने बन्दूक़ों की नोकों से चित्रों को टटोलना शुरू किया। शंकर लाल को लगा उनके दिल पर कोई बरछी चला रहा है।
वे चीख़े, “ये चित्र हैं। ये… मेरी सन्तानें हैं… मेरी सन्तानों की सन्तानें हैं!”
सिपाही थमक गए। उनके चेहरे भावशून्य हो गए। उन्होंने अपनी बन्दूक़ें दिखाकर शंकर लाल को टाउन हॉल के अन्दर जाने का आदेश दिया।
शंकर लाल की साँस धौंकनी की तरह चल रही थी और सर चकरा रहा था जब वे टाउन हॉल के अन्दर पहुँचे।
केंटन—चीन
कई महीने लगे फ़तेह अली ख़ान को बच्चे का चित्र बनाने में। बच्चा कई बार भाग जाता था और कई बार रोने लगता था।
फ़तेह अली ख़ान के पास कलकत्ते से लायी हुई देसी छेने से बनी मिठाई थी। उसी की रिश्वत देने पर बच्चा ख़ुश हो तस्वीर बनाने देता था। पहली तस्वीर में बच्चा मुश्किल से मुस्कुराता दिखता था, और इत्तेफ़ाक़ से दूसरी तस्वीर में बच्चा ख़ुशदिली से मुस्कुरा रहा था। दोनों तस्वीरों के इस बारीक फ़र्क़ को दो ही लोग ठीक-ठीक समझ सकते थे। फ़तेह अली-खान और यू-यान।
“मुझे असली तस्वीर चाहिए।” वह ख़ुश होकर अड़ गई थी।
फ़तेह अली ख़ान ने बहुत इसरार किया था, “यू-यान, मेरा अज़ीज़ बहुत बीमार है, परगासो बीबी ने ज़िद की है कि मैं कुछ ऐसी नायाब चीज़ उन्हें ले जाकर दूँ, जिससे उन पर थोड़ी रौनक चढ़े। मेरी मुश्किल समझो। मुझे बच्चे की असल हँसी दे दो। वह मेरे अज़ीज़ की आत्मा को ज़रूर रोशन करेगी।”
यह सुन यू-यान चुप हो गई थी और उसने पूछा था, “क्या सचमुच?”
“हाँ।” फ़तेह अली ख़ान असीम आशा से भर बोले थे।
“तो फिर ठीक है, ले जाइए।” उसने अपने बेटे को पकड़कर अपनी छाती में भींच लिया था, जैसे फ़तेह अली ख़ान बेटे की तस्वीर को नहीं, बेटे को ही हिन्दुस्तान ले जा रहे हों।
फ़तेह अली ख़ान ने यू-यान को ऐसा क़र्ज़ देने पर शुक्र अदा किया और बच्चे को पास बुलाया, “चिन।”
बच्चा दौड़ा चला आया और उनकी गोदी में दुबक गया। यू-यान की आँख भर आयी।
“दुनिया बदल रही है, चांग! तुम्हारे बिना क्या दुनिया को इसी तरह बदलना होगा?”
मुसव्विरख़ाना
ख़दीजा बेगम ने मुसव्विरख़ाना में जाकर आवाज़ लगायी— “चाचा।”
चौकीदार दौड़ा चला आया।
“चाचा आज जी अच्छा नहीं लग रहा है। मुसव्विरख़ाना देखिएगा। किसी को लौट जाने को ना कहिएगा। कोई उस्ताद के बारे में पूछे तो ज़रूर कह दीजिएगा उस्ताद का हाल। उस्ताद चीन पहुँच चुके हैं। ख़बर आयी है। कुछ ही महीनों में लौटेंगे हिन्दुस्तान। हम घर पर जाकर थोड़ा आराम करते हैं।”
चौकीदार ने कातरता से सर हिला दिया।
पिछले आठ महीनों से रोज़ ख़दीजा बेगम मुसव्विरख़ाना आती हैं, शागिर्दों का इन्तज़ार करती हैं, अपने किसी नए चित्र पर घंटा-दो घंटा काम करती हैं और फिर उसे मुसव्विरख़ाना खुला रखने की ताकीद कर लौट जाती हैं, एक लम्बे इन्तज़ार में और कड़ियाँ जोड़ने।
ख़दीजा बेगम की तबीयत ख़राब रहती है। चौकीदार उनके नैहर वालों को इत्तला कर चुका है, “दिन पूरे होने को हैं, कब जचगी हो जाए, पता नहीं। मालिक को गए ठीक नौ महीने हो गए हैं। अपना ख़याल नहीं रखतीं। मुसव्विरख़ाना को ले पागल हुई जा रही हैं।”
नैहर वालों ने ख़दीजा बेगम को कहा, “आओ कुछ दिन हमारे संग रह लो।” ख़दीजा बेगम ने इंकार कर दिया। और अपने नैहर वालों को कहा—वे ही चले आया करें उनके मोहल्ले। गर बीच में उस्ताद आ गए तो क्या कहेंगे ‘ख़दीजा बेगम तुमने मुसव्विरख़ाना, किसके हवाले छोड़ दिया? ख़दीजा बेगम क्या तुमने मेरी जान कहीं रेहन रख दी है?’ क्या कहेंगी ख़दीजा बेगम इस पर? जवाब देते बनेगा क्या?
सो ख़दीजा बेगम वहीं रहीं। उसी कमरे में, जहाँ से मुसव्विरख़ाना बस छलाँग-भर की दूरी पर था।
और जब ख़दीजा बेगम ने एक चाँद से बेटे को जन्म दिया तो शंकर लाल को गए हुए 10 महीने हो गए थे और उन्हें वाक़ई पता नहीं था कि वे पीछे क्या-क्या छोड़ आए हैं। ख़दीजा ने बहुत फ़ख़्र से अपने चाँद से बेटे का नाम अमर लाल रखा और उम्मीद की कि शंकर लाल चीन से जल्द लौटकर आएँगे और अपने वारिस को मुसव्विरख़ाना ले जाकर, कला की बारीकियाँ सिखलाएँगे।
पटना, 2001
ली-ना ने जो उम्मीद की थी उससे कहीं ज़्यादा वक़्त आर्ट काॅलेज में रखे हुए चित्रों को देखने की इजाज़त पाने में लग रहा था…।
समर्थ लाल उसे बता नहीं पा रहे थे कि इस देश में कितनी लालफीताशाही है, कितनी धाँधली और चोर बाज़ारी।
“बहुत दिन ग़ुलाम रहने से यह सब हो जाता है! एक ग़ैरज़रूरी चालाकी सबके ज़ेहन में ऐसे समा गई है कि क्या किया जाए। अब आज काम नहीं हो पाएगा। कल किसी को फ़ोन कर आएँगे…।”
“जी सर।” वह बहुत प्यार और शान्ति से बोली।
“हम भी ग़ुलाम ही थे। अब भी हैं शायद।”
“हम भी हैं शायद।”
इस पर फिर दोनों राहत से भरी हँसी हँसे और समर्थ लाल ने गंगा नदी की ओर गाड़ी मोड़ दी।
लोदी कटरा मोहल्ला दोबारा अपने वक़्त को याद कर जी उठा।
कृष्णा सोबती के उपन्यास 'मित्रो मरजानी' का अंश