मैं रोज की तरह एक कप ब्लैक टी लेकर बड़ी दीदी के कमरे में पहुंची। पिछले 5 सालों से हर सुबह का यही रूटीन था मेरा। दीदी के पास बैठकर चाय पिए बिना मेरा दिन शुरू ही नहीं होता था। लगता था कुछ ऐसा रह गया जो आज नहीं किया। ब्लैक टी के साथ ही जगाती थी उन्हें। हालाँकि वो नहीं पीती थीं। लेकिन जग जाती थीं और मैं उनके पास बैठकर चाय पीती और इसी बीच थोड़ी बहुत बातें हो जाया करतीं थीं। दीदी जगतीं और उठकर हाथों को दुआ की शक्ल में उठाकर थोड़ी देर आँखें बन्द करतीं। कभी-कभी उदास नज़रों से खिड़की के बाहर पसरे उजाले में कुछ ढूँढतीं और कभी-कभी उसी उजाले की ओर से नज़रें फेर लेतीं।
मैंने चाय पास पड़े स्टूल पर रखी और रोज की तरह आवाज़ दी-
“दीदी उठिए, सुबह हो गयी।”
दीदी की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। अमूमन हर सुबह वो जगती ही रहती थीं। और मेरे आवाज़ देने पर कोई न कोई प्रतिक्रिया ज़रूर देती थीं। लेकिन आज खामोश रहीं। मैंने फिर आवाज़ दी-
“दी, उठिए न…”
इस बार आवाज़ को पहले से अधिक तीव्रता देते हुए मैंने दीदी के शरीर को हलकी सी जुम्बिश दी। छूते ही मैं सन्न रह गयी। दी का समूचा शरीर बर्फ की तरह ठंडा हो रहा था। मैंने तुरन्त डॉक्टर को फोन किया। डॉक्टर ने भी निराशा व्यक्त की और मेरी आशंका की पुष्टि की। दीदी अब इस दुनिया में नहीं थीं। चेहरे पर असीम शांति का साम्राज्य था और आँखें चिरनिद्रित। जैसे अब इस दुनिया को देखना न चाहती हों। ये दुनिया उन्हें रास न आई हो।
दीदी ने देहदान किया था इसलिए मैंने मेडिकल कॉलेज को इत्तला की और उनके सिरहाने बैठकर अतीत के पन्नों की धूल झाड़ने लगी जिन्हें वक़्त की गर्त ने धुंधला कर दिया था।
बड़ी दीदी… हम पांच भाई बहनों में सबसे बड़ी। चाचा चाची की इकलौती संतान। नाज़ और दुलार में पली बढ़ी, तालिमयाफ़्ता, खूबसूरत, ज़हीन, सबके ग़म में शरीक होने वाली। जितनी तारीफ़ की जाए, कम थी। वो अक्सर कहतीं- “खुशियों में तो सब साथ रहते हैं, किसी के ग़म का भागीदार बनना चाहिए मिनी!”
मैं घर में सबसे छोटी थी। इसलिए दीदी ने प्यार से मुझे मिनी कहना शुरू किया था जो बाद में मेरा निकनेम भी हो गया था।
हम सब भाई बहन उन्हें बहुत प्यार करते। गर्मियों की छुट्टी में चाचा चाची के साथ दी भी आतीं। खैर, बचपन की बातें बचपन के साथ ही बीत गयीं। हम सब लोग धीरे धीरे बड़े हो रहे थे। सबकी अपनी दुनिया। अपने ख़्वाब। अपने दोस्त। दी भी अब गांव नहीं आती थीं। अब किसी शादी ब्याह जैसे मौकों पर ही मुलाक़ात होती थी। वक़्त बीत रहा था पल पल। साल दर साल। और ऐसे ही कई सालों बाद एक दिन दी की कॉल आई।
“तू आएगी नहीं क्या?”
मैं अंदर तक सहम गयी उस डूबती आवाज़ को सुनकर। इसके पहले भी दी कई बार मुझे बुलाती रही थीं। लेकिन इस बार की उनकी आवाज़ ने मुझे चौंका दिया था। मैंने फ़ौरन ‘हाँ’ कहा और 2 दिन बाद ही गोरखपुर आ गयी थी। दी यहीं रहती थीं।
मेरे पहुँचने पर दी भागकर आयी थीं गेट पर। वो मुझे देखकर हंसीं तो लेकिन लगा कि वो हंसी कहीं खो गयी थी जिससे हम सब वाकिफ़ थे। छोटी छोटी बातों पर भी खूब हंसने वाली दी पतझड़ में किसी अधखिले फूल की तरह मुरझाई सी लग रहीं थीं।
“तू यहीं रहना अब मेरे साथ।” वो मुझे अपने कमरे की तरफ ले जाते हुए बोलीं।
थोड़े दिनों की मस्ती के बाद दी अपने स्कूल और कई कामों में व्यस्त रहने लगीं और मैंने भी मेडिकल के लिए कोचिंग ज्वाइन कर लिया था। उनके साथ रहते हुए मैंने हमेशा महसूस किया कि दी अब वो नहीं रही थीं जो मैं जानती थी। कुछ था उनके अंदर जो आहिस्ता आहिस्ता बेआवाज़ टूट रहा था। जिसे वो किसी पर ज़ाहिर नहीं करना चाहती थीं। वो धीरे धीरे रीत रहीं थी। लेकिन मन की दशा का असर हमारे पूरे शरीर पर होता है जिसे चाहकर भी छुपाया नहीं जा सकता। दी का मन भी मुझसे छुपा न रह सका। अक्सर चाचा चाची से शादी की बात पर तकरार कर बैठतीं। और फिर पूरी रात रोती रहतीं।
“आप अपनी बात बता क्यों नहीं देतीं। क्यों इस तरह घुटती रहती हैं?” मैंने एक बार कहा था उनसे।
“हर बात बताने की नहीं होती मिनी। कुछ बातें कही नहीं जातीं, उन्हें सिर्फ जिया जाता है आखिरी साँस तक।” ..कह कर वो चुप हों गयी थीं।
उसके बाद मैंने कभी उनकी दुखती रग पर हाथ रखने की कोशिश नहीं की। सब कुछ वक़्त की रफ़्तार पर छोड़ दिया। दी ने कभी खुद को समेटने की कोशिश नहीं की। वो दिन ब दिन और बिखरने लगीं।
इस बीच कन्यादान करने और बेटी को विदा करने की अधूरी आस लिए चाचा चाची खुद ही इस दुनिया से विदा हो गए। दी अब और अकेली हो गयीं। थोड़ा सा व्यस्त दिन, उदास शामें, जागती और सिसकती रातें, दिल में बसाई किसी की यादें और बातें यही उनके साथी थे। हम अक्सर शाम को बालकनी में बैठते। वो खोयी नज़रों से क्षितिज पर डूबते सूरज को देखती रहतीं। उनके साथ रहते इतना तो समझ ही गयी थी कि वो किसी को बेइंतहा मोहब्बत करती थीं। उन्होंने खुद को कहीं गिरवी रख दिया था जहाँ से वो कभी खुद को आज़ाद न कर सकीं।
धीरे धीरे उनकी सेहत ख़राब रहने लगी। वो घुन लगे गेहूं की तरह अंदर ही अंदर खोखली हुई जा रही थीं।
“तू भी छोड़कर चली जायेगी मुझे?” उनकी आँखों के कोर छलक आये थे।
वो बीमार रहने लगीं थीं। धीरे धीरे बीमारी बढ़ती गयी थी। उस दिन मेरे बहुत ज़िद्द करने पर डॉक्टर के पास गयी थीं। डॉक्टर ने कुछ दवाएं दीं और आराम करने की ताकीद की।
एम्बुलेंस का सायरन दूर से ही मेरे कानों में गूंज उठा। मेरे आंसू जो अब तक अतीत की यादों में खो गए थे, आँखों से गिरने लगे। मेडिकल कॉलेज के कर्मचारी दी को एम्बुलेंस में रख रहे थे। मैं जड़ हो कर बैठी रह गयी थी। एम्बुलेंस चल पड़ी। धीरे धीरे दी आँखों से ओझल हो गयीं। मैं आखिर तक जिन सवालों में उलझती रही थी कि आखिर कौन था जिसे दीदी सीने से लगाये जीती रहीं और सीने से लगाये ही चली गयीं, अब बेमानी सा लगने लगा।
मेरा दिल एकबारगी चीख उठा- “आह प्रेम! तुम इतने निष्ठुर क्यों हुए?!!!”