“यह झाड़ू सीधी किसने खड़ी की?” बीजी ने त्योरी चढ़ाकर विकट मुद्रा में पूछा। जवाब न मिलने पर उन्होंने मीरा को धमकाया, “इस तरह फिर कभी झाड़ू की तो…”

वे कहना चाहती थीं कि मीरा को काम से निकाल देंगी पर उन्हें पता था नौकरानी कितनी मुश्किल से मिलती है। फिर मीरा तो वैसे भी हमेशा छोड़ू-छोड़ू मुद्रा में रहती थी।

“मैंने नहीं रखी”, मीरा ने ऐंठकर जवाब दिया।

“क्यों रखी थी!” तुझे इतना नहीं मालूम कि झाड़ू खड़ी रखने से घर में दलिद्दर आता है, कर्ज बढ़ता है, रोग जड़ पकड़ लेता है।”

“यह तो मैंने कभी नहीं सुना।”

“जाने कौन गाँव की है तू। माँ के घर से कुछ भी तो सीखकर नहीं आई। काके का काम वैसे ही ढीला चल रहा है, तू और झाड़ू खड़ी रख, यही सीख है तेरी!”

“मेरा ख्याल है झाड़ू गुसलखाने के बीचोबीच भीगती हुई, पसरी हुई छोड़ देने से दलिद्दर आ सकता है। तीलियाँ गल जाती हैं, रस्सी ढीली पड़ जाती है और गन्दी भी कितनी लगती है।”

“आज तो मैंने माफ कर दिया, फिर कभी झाड़ू खड़ी न मिले, समझी!”

“इस बात में कोई तुक नहीं है बीजी, झाड़ू कैसे भी रखी जा सकती है।”

बीजी झुँझला गई। कैसी जाहिल और जिद्दी लड़की ले आया है काका। लाख बार कहा था इस कुदेसिन से ब्याह न कर, पर नहीं, उसके सिर पर तो भूत सवार था।

शिखा को हँसी आ गई। बीजी अपने को बहुत सही और समझदार मानती हैं, जबकि अकसर उनकी बातों में कोई तर्क नहीं होता।

उसे हँसते देखकर बीजी का खून खौला गया।

“इसे तो बिल्कुल अकल नहीं”, उन्होंने मीरा से कहा।

“बीजी चाय पिएँगी?” शिखा ने पूछा।

बीजी उसकी तरफ पीठ करके बैठी रहीं। शिखा की बात का जवाब देना वे ज़रूरी नहीं समझतीं। वैसे भी उनका ख्याल था कि शिखा के स्वर में खुशामद की कमी रहती है।

शिखा ने चाय का गिलास उनके आगे रखा तो वे भड़क गईं, “वैसे ही मेरा कब्ज के मारे बुरा हाल है, तू चाय पिला-पिलाकर मुझे मार डालना चाहती है।”

शिखा ने और बहस करना स्थगित किया और चाय का गिलास लेकर कमरे में चली गई।

शिखा का शौहर, कपिल अपने घरवालों से इन अर्थों से भिन्न था कि आमतौर पर उसका सोचने का एक मौलिक तरीका था। शादी के ख्याल से जब उसने अपने आस-पास देखा, तो कॉलेज में उसे अपने से दो साल जूनियर बी.एस.सी. में पढ़ती शिखा अच्छी लगी थी। सबसे पहली बात यह थी कि वह उन सब औरतों से एकदम अलग थी जो उसने परिवार और अपने परिवेश में देखी थीं। शिखा का पूरा नाम दीपशिखा था लेकिन कोई नाम पूछता तो वह महज नाम नहीं बताती, “मेरे माता-पिता ने मेरा नाम गलत रखा है। मैं दीपशिखा नहीं, अग्निशिखा हूँ।” वह कहती।

अग्निशिखा की तरह ही वह हमेशा प्रज्वलित रहती, कभी किसी बात पर, कभी किसी सवाल पर। तब उसकी तेजी देखने लायक होती। उसकी वक्तृता से प्रभावित होकर कपिल ने सोचा वह शिखा को पाकर रहेगा। पढ़ाई के साथ-साथ वह पिता के व्यवसाय में भी लगा था, इसलिए शादी से पहले नौकरी ढूँढने की उसे कोई ज़रूरत नहीं थी। बिना किसी आडंबर, दहेज या नखरे के एक सादे समारोह में वे विवाह-सूत्र में बँध गए। शिखा उसकी आत्मनिर्भरता, खूबसूरती और स्वतंत्र सोच से प्रभावित हुई। तब उसे यह नहीं पता था कि प्रेम और विवाह दो अलग-अलग संसार हैं। एक में भावना और दूसूरे में व्यवहार की ज़रूरत होती है।

दुनिया भर में विवाहित औरतों का केवल एक स्वरूप होता है। उन्हें सहमति–प्रधान जीवन जीना होता है। अपने घर की कारा में वे कैद रहती हैं। हर एक की दिनचर्या में अपनी-अपनी तरह की समरसता रहती है। हरेक के चेहरे पर अपनी-अपनी तरह की ऊब। हर घर का एक ढर्रा है जिसमें आपको फिट होना है। कुछ औरतें इस ऊब पर शृंगार का मुलम्मा चढ़ा लेती हैं पर उनके शृंगार में भी एकरसता होती है।

शिखा अन्दाज लगाती, सामने वाले घर की नीता ने आज कौन-सी साड़ी पहनी होगी और प्राय: उसका अन्दाज ठीक निकलता। यही हाल लिपिस्टक के रंग और बालों के स्टाइल का था। दु:ख की बात यही थी कि अधिकांश औरतों को इस ऊब और कैद की कोई चेतना नहीं थी। वे रोज सुबह साढ़े नौ बजे सासों, नौकरों, नौकरानियों, बच्चों, माली और कुत्तों के साथ घरों में छोड़ दी जातीं, अपना दिन तमाम करने के लिए। वही लंच पर पति का इन्तजार, टी.वी. पर बेमतलब कार्यक्रमों का देखना और घर-भर के नाश्ते, खाने, नखरों की नोक पलक सँवारना। चिकनी महिला पत्रिकाओं के पन्ने पलटना, दोपहर को सोना, सजे हुए घर को कुछ और सजाना, सास की जी-हुजूरी करना और अन्त में रात को एक जड़ नींद में लुढ़क जाना।

कपिल के घर आते ही बीजी ने उसके सामने शिकायत दर्ज की, “तेरी बीवी तो अपने को बड़ी चतुर समझती है। अपने आगे किसी की चलने नहीं देती। खड़ी खड़ी जबाब टिकाती है।”

कपिल को गुस्सा आया। शिखा को एक अच्छी पत्नी की तरह चुप रहना चाहिए, खासतौर पर माँ के आगे। इसने घर को कॉलेज का डिबेटिंग मंच समझ रखा है और माँ को प्रतिपक्ष का वक्ता। उसने कहा, “मैं उसे समझा दूँगा, आगे से बहस नहीं करेगी।”

“उलटी खोपड़ी की है बिल्कुल। वह समझ ही नहीं सकती!” माँ ने मुँह बिचकाया।

रात, उसने कमरे में शिखा से कहा, “तुम माँ से क्यों उलझती रहती हो दिनभर!”

“इस बात का विलोम भी उतना ही सच है।”

“हम विलोम-अनुलोम में बात नहीं कर रहे हैं, एक सम्बन्ध है जिसकी इज्जत तुम्हें करनी होगी।”

“गलत बातों की भी!”

“माँ की कोई बात गलत नहीं होती।”

“कोई भी इंसान परफेक्ट नहीं हो सकता।”

कपिल तैश में आ गया, “तुमने माँ को इम्परफेक्ट कहा। तुम्हें शर्म आनी चाहिए। तुम हमेशा ज्यादा बोल जाती हो और गलत भी।”

“तुम मेरी आवाज बन्द करना चाहते हो।”

“मैं एक शान्त और सुरुचिपूर्ण जीवन जीना चाहता हूँ।”

शिखा अन्दर तक जल गई इस उत्तर से क्योंकि यह उत्तर हजार नए प्रश्नों को जन्म दे रहा था। उसने प्रश्नों को होठों के क्लिप से दबाया और सोचा, अब वह बिल्कुल नहीं बोलेगी, यहाँ तक कि ये सब उसकी आवाज को तरस जायेंगे।

लेकिन यह निश्चय उससे निभ न पाता। बहुत जल्द कोई-न-कोई ऐसा प्रसंग उपस्थित हो जाता कि ज्वालामुखी की तरह फट पड़ती और एक बार फिर बदतमीज और बदजुबान कहलाई जाती। तब शिखा बेहद तनाव में आ जाती। उसे लगता घर में जैसे टॉयलेट होता है ऐसे एक टॉकलेट भी होना चाहिये जहाँ खड़े होकर वह अपना गुबार निकला ले, जंजीर खींचकर बातें बहा दे और एक सभ्य शान्त मुद्रा से बाहर आ जाये। उसे यह भी बड़ा अजीब लगता है कि वह लगातार ऐसे लोगों से मुखातिब है जिन्हें इसके इस भारी-भरकम शब्दकोश की ज़रूरत ही नहीं है। घर को सुचारू रूप से चलाने के लिए सिर्फ दो शब्दों की दरकार थी- जी और हाँजी।

“कल छोले बनेंगे?”

“जी छोले बनेंगे।”

“पाजामों के नाड़े बदले जाने चाहिए।”

“हाँ जी, पाजामों के नाड़े बदले जाने चाहिए।”

उसने अपने जैसी कई स्त्रियों से बात करके देखा, सबमें अपने घरबार के लिए बेहद सन्तोष और गर्व था।

‘हमारे तो ये ऐसे हैं।’, ‘हमारे तो ये वैसे हैं जैसा कोई नहीं हो सकता।’, ‘हमारे बच्चे तो बिल्कुल लव-कुश की जोड़ी हैं।’, ‘हमारा बेटा तो पढ़ने में इतना तेज है कि पूछो ही मत।’… शिखा को लगता उसी में शायद कोई कमी है जो वह इस तरह सन्तोष में लबालब भरकर ‘मेरा परिवार महान’ के राग नहीं अलाप सकती।

रातों को बिस्तर में पड़े-पड़े वह देर तक सोती नहीं, सोचती रहती, उसकी नियति क्या है। न जाने कब कैसे एक फुलटाइम गृहिणी बनती गई जबकि उसने ज़िन्दगी की एक बिल्कुल अगल तस्वीर देखी थी। कितना अजीब होता है कि दो लोग बिल्कुल अनोखे, अकेले अन्दाज में इसलिए करीब आयें कि वे एक-दूसरे की मौलिकता की कद्र करते हों, महज इसलिए टकराएँ क्योंकि अब उन्हें मौलिकता बरदाश्त नहीं।

दरअसल वे दोनों अपने-अपने खलनायक के हाथों मार खा रहे थे। यह खलनायक था रूटीन जो जीवन की खूबसूरती को दीमक की तरह चाट रहा था। कपिल चाहता था कि शिखा एक अनुकूल पत्नी की तरह रूटीन का बड़ा हिस्सा अपने ऊपर ओढ़ ले और उसे अपने मौलिक सोच-विचार के लिए स्वतन्त्र छोड़ दे। शिखा की भी यही उम्मीद थी। उनकी ज़िन्दगी का रूटीन या ढर्रा उनसे कहीं ज्यादा शक्तिशाली था।

अलस्सुबह वह कॉलबेल की पहली कर्कश ध्वनि के साथ जग जाता और रात बारह के टन-टन घंटे के साथ सोता। बीजी घर में इस रूटीन की चौकीदार तैनात थीं। घर की दिनचर्या में जरा-सी भी देर-सबेर उन्हें बर्दाश्त नहीं थी। शिखा जैसे-तैसे रोज के काम निपटाती और जब समस्त घर सो जाता, हाथ-मुँह धो, कपड़े बदल एक बार फिर अपना दिन शुरू करने की कोशिश करती। उसे सोने में काफी देर हो जाती और अगली सुबह उठने में भी। उसके सभी आगमी काम थोड़े पिछड़ जाते। बीजी का हिदायतनामा शुरू हो जाता, “यह आधी-आधी रात तक बत्ती जलाकर क्या करती रहती है तू। ऐसे कहीं घर चलता है!”

ससुर 194 में सीखा हुआ मुहाबरा टिका देते, “अर्ली ट बेड एंड अर्ली टू राइज वगैरह-वगैरह।”

हिदायतें सही होतीं पर शिखा को बुरी लगतीं। वह बेमन से झाड़ू-झाड़न पोचे का रोजनामचा हाथ में उठा लेती जबकि उसका दिमाग किताब, कागज और कलम की माँग करता रहता। कभी-कभी छुट्टी के दिन कपिल घर के कामों में उसकी मदद करता। बीजी उसे टोक देंती, “ये औरतों वाले काम करता तू अच्छा लगता है। तू तो बिल्कुल जोरू का गुलाम हो गया है।”

घर में एक सहज और सघन सम्बन्ध को लगातार ठोंक-पीठकर यान्त्रिक बनाया जा रहा था। एकान्त में जो भी तन्मयता पति-पत्नी के बीच जन्म लेती, दिन के उजाले में उसकी गर्दन मरोड़ दी जाती। बीजी को सन्तोष था कि वे परिवार का संचालन बढ़िया कर रही हैं। वे बेटे से कहतीं, “तू फिकर मत कर। थोड़े दिनों में मैं इसे ऐन पटरी पर ले आऊंगी।”

पटरी पर शिखा तब भी नहीं आई अब दो बच्ची की माँ हो गई। बस इतना भर हुआ कि उसने अपने सभी सवालों का रुख अन्य लोगों से हटाकर कपिल और बच्चों की तरफ कर लिया। बच्चे अभी कई सवालों के जवाब देने लायक समझदार नहीं हुए थे, बल्कि लाड़-प्यार में दोनों के अन्दर एक तर्कातीत तुनकमिजाजी आ बैठी थी।

स्कूल से आकर वे दिन-भर वीडियो देखते, गाने-सुनते, आपस में मार-पीट करते और जैसे-तैसे अपना होमवर्क पार लगाकर सो जाते। कपिल अपने व्यवसाय से बचा हुआ समय अखबारों, पत्रिकाओं और दोस्तों में बिताता। अकेली शिखा घर की कारा में कैद घटनाहीन दिन बिताती रहती। वह जीवन के पिछले दस सालों और अगले बीस सालों पर नजर डालती और घबरा जाती। क्या उसे वापस अग्निशिखा की बजाय दीपशिखा बनकर ही रहना होगा, मद्धिम और मधुर-मधुर जलना होगा। वह क्या करे अगर उसके अन्दर तेल की जगह लावा भरा पड़ा है।

उसे रोज लगता कि उन्हें अपना जीवन नये सिरे से शुरू करना चाहिये। इसी उद्देश्य से उसने कपिल से कहा, “क्यों नहीं हम दो-चार दिन को कहीं घूमने चलें।”

“कहाँ?”

“कहीं भी। जैसे जयपुर या आगरा।”

“वहाँ हमें कौन जानता है। फिजूल में एक नई जगह जाकर फँसना।”

“वहाँ देखने को बहुत कुछ है। हम घूमेंगे, कुछ नई और नायाब चीजें खरीदेंगे, देखना, एकदम फ्रेश हो जायेंगे।”

“ऐसी सब चीजें यहाँ भी मिलती हैं, सारी दुनिया का दर्शन जब टी.वी. पर हो जाता है तो वहाँ जाने में क्या तुक है?”

“तुक के सहारे दिन कब तक बितायेंगे?”

बच्चों ने इस बात का मजाक बना लिया “कल को तुम कहोगी, अंडमान चलो, घूमेंगे।”

“इसका मतलब अब हम कहीं नहीं जायेंगे, यहीं पड़े-पड़े एक दिन दरख्त बन जायेंगे।”

“तुम अपने दिमाग का इलाज कराओ, मुझे लगता है तुम्हारे हॉरमोन बदल रहे हैं।”

“मुझे लगता है, तुम्हारे भी हॉरमोन बदल रहे हैं।”

“तुम्हारे अन्दर बराबरी का बोलना एक रोग बनता जा रहा है। इन ऊलजलूल बातों में क्या रखा है?”

शिखा याद करती वे प्यार के दिन जब उसकी कोई बात बेतुकी नहीं थी। एक इंसान को प्रेमी की तरह जानना और पति की तरह पाना कितना अलग था। जिसे उसने निराला समझा वहीं कितना औसत निकला। वह नहीं चाहता जीवन के ढर्रे में कोई नयापन या प्रयोग। उसे एक परंपरा चाहिए जी-हुजूरी की। उसे एक गाँधारी चाहिए जो जानबूझकर न सिर्फ अन्धी हो बल्कि गूंगी और बहरी भी।

बच्चों ने बात दादी तक पहुँचा दी। बीजी एकदम भड़क गईं, “अपना कामधन्धा छोड़ कर काका जयपुर जायेगा, क्यों, बीवी को सैर कराने। एक हम थे, कभी घर से बाहर पैर नहीं रखा।”

“और अब जो आप तीर्थ के बहाने घूमने जाती हैं वह?” शिखा से नहीं रहा गया।

“तीरथ को तू घूमना कहती है! इतनी खराब जुबान पाई है तूने, कैसे गुजारा होगा तेरी गृहस्थी का!”

“काश गोदरेज कम्पनी का कोई ताला होता मुँह पर लगानेवाला, तो ये लोग उसे मेरे मुँह पर जड़कर चाबी सेफ में डाल देते”, शिखा ने सोचा, “सच ऐसे कब तक चलेगा जीवन।”

बच्चे शहजादों की तरह बर्ताव करते। नाश्ता करने के बाद जूठी प्लेटें कमरे में पड़ी रहतीं मेज पर। शिखा चिल्लाती, “यहाँ कोई रूम सर्विस नहीं चल रही है, जाओ, अपने जूठे बर्तन रसोई में रखकर आओ।”

“नहीं रखेंगे, क्या कर लोगी”, बड़ा बेटा हिमाकत से कहता। न चाहते हुए भी शिखा मार बैठती उसे।

एक दिन बेटे ने पलटकर उसे मार दिया। हल्के हाथ से नहीं, भरपूर घूसा मुँह पर। होठ के अन्दर एक तरफ का मांस बिलकुल चिथड़ा हो गया। शिखा सन्न रह गई। न केवल उसके शब्द बन्द हो गए, जबड़ा भी जाम हो गया। बर्तन बेटे ने फिर भी नहीं उठाये, वे दोपहर तक कमरे में पड़े रहे। घर भर में किसी ने बेटे को गलत नहीं कहा।

बीजी एक दर्शक की तरह वारदात देखती रहीं। उन्होंने कहा, “हमेशा गलत बात बोलती हो, इसी से दूसरे का खून खौलता है। शुरू से जैसी तूने ट्रेनिंग दी, वैसा वह बना है। ये तो बचपन से सिखानेवाली बातें हैं। फिर तू बर्तन उठा देती तो क्या घिस जाता।”

उन्हीं के शब्द शिखा के मुँह से निकल गए, “अगर ये रख देता तो इसका क्या घिस जाता।”

“बदतमीज कहीं की, बड़ों से बात करने की अकल नहीं है।” बीजी ने कहा।

ससुर ने सारी घटना सुनकर फिर 194 का एक मुहावरा टिका दिया, “एज यू सो, सो शैल यू रीप!”

कपिल ने कहा, “पहले सिर्फ मुझे सताती थीं, अब बच्चों का भी शिकार कर रही हो।”

“शिकार तो मैं हूँ, तुम सब शिकारी हो!”, शिखा कहना चाहती थी पर जबड़ा एकदम जाम था। होंठ अब तक सूज गया था। शिखा ने पाया, परिवार में परिवार की शर्तों पर रहते-रहते न सिर्फ वह अपनी शक्ल खो बैठी है वरन् अभिव्यक्ति भी। उसे लगा वह ठूँस ले अपने मुँह में कपड़ा या सी डाले इसे लोहे के तार से। उसके शरीर से कहीं कोई आवाज न निकले। बस, उसके हाथ-पाँव परिवार के काम आते रहें। न निकलें इस वक्त मुँह से बोल लेकिन शब्द उसके अन्दर खलबलाते रहेंगे। घर के लोग उसके समस्त रन्ध्र बन्द कर दें फिर भी ये शब्द अन्दर पड़े रहेंगे, खौलते और खदकते। जब मृत्यु के बाद उसकी चीर-फाड़ होगी, तो ये शब्द निकल भागेंगे शरीर से और जीती-जागती इबारत बन जायेंगे। उसके फेफड़ों से, गले की नली से, अंतड़ियों से चिपके हुए ये शब्द बाहर आकर तीखे, नुकीले, कटीले, जहरीले असहमति के अग्रलेख बनकर छा जायेंगे घर भर पर। अगर वह इन्हें लिख दे तो एक बहुत तेज एसिड का आविष्कार हो जाये। फिलहाल उसका मुँह सूजा हुआ है, पर मुँह बन्द रखना चुप रहने की शर्त नहीं है। ये शब्द उसकी लड़ाई लड़ते रहेंगे।

ममता कालिया
ममता कालिया (02 नवम्बर, 1940) एक प्रमुख भारतीय लेखिका हैं। वे कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध, कविता और पत्रकारिता अर्थात साहित्य की लगभग सभी विधाओं में हस्तक्षेप रखती हैं। हिन्दी कहानी के परिदृश्य पर उनकी उपस्थिति सातवें दशक से निरन्तर बनी हुई है। लगभग आधी सदी के काल खण्ड में उन्होंने 200 से अधिक कहानियों की रचना की है।