‘Bonsai’, a poem by Anupama Jha
अपने घर के गमलों में
मेरा सबसे पसंदीदा है
वो कोने में रखा ‘बोन्साई’।
दिन में कम से कम
चार बार, चार बातें
कर आती हूँ उससे।
सुनो, बताओ न
जब कटा था तू
अपनी शाखों से
तू भी रोया था क्या?
क्या कहा?
अपनी क़िस्मत!
हम्ममम्म…
अच्छा ये बता,
नए परिवेश में
नए तरीक़े से उगकर
ख़ुश तो है न तू?
हम्ममम्म…
एक लम्बी-सी हुंकारी में
मिलता है जवाब।
बता न
जब भी तेरा होता है विकास
काट छाँट दिया जाता है तू,
दूसरों के तरीक़े से
उगाया जाता है तू,
क्या कुण्ठित नहीं होता तेरा मन?
पत्तों को अपने तनिक हिलाकर
मुस्काया वो मेरा बोन्साई,
अब ज़रा मैं सकपकायी!
फिर पूछा
क्यों वो मुस्कुराया?
क्या ज़ख़्म अपना
कुछ उसने मुझसे छुपाया?
नहीं…
ज़ोर से वो चिल्लाया
क्यूँ भोली, नादाँ बनती हो?
अपनी बातों को
क्यूँ मुझपर थोपती हो?
स्त्री और बोन्साई में है साम्य
क्यूँ उसे अनदेखा करती हो?
सदियों से अब भी तुम
काट छाँट कर ही पनपती हो
अपने अस्तित्व और अस्मिता को
हर सू ढूँढती हो…
हर सू ढूँढती हो…
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