Book Excerpt: ‘Chhayavad’ – Namvar Singh
किताब अंश: ‘छायावाद’ – नामवर सिंह

हिंदी कविता की पूरी परंपरा का अनुशीलन करते हुए जैसे ही कोई पाठक छायावाद की सीमा में प्रवेश करता है, ये कविताएँ तुरंत अपनी आत्मीयता से उसे आकष्ट कर लेती हैं। यहाँ वह देखता है कि कवि निर्वैयक्तिकता का सारा आवरण उतारकर एक आत्मीय की भाँति अत्यंत निजी ढंग से बातें कर रहा है। यहाँ हृदय के भाव किसी कल्पित कहानी अथवा पौराणिक पुरुषों के माध्यम की अपेक्षा नहीं रखते। अपने मन की बातें कवि सीधे-सीधे अपने ही मुख से उत्तम पुरुष में कह रहा है और पाठक को इस तरह उन भावों के साथ तादात्म्य अनुभव करने में बड़ी सुगमता होती है। इससे कवि और पाठक के बीच परस्पर की सुखद अनुभूति होती है।

लेकिन कवि ने यह जो ‘मैं शैली’ अपनाई, वह केवल शैली भर नहीं है। इस निजता और आत्मीयता के पीछे आधुनिक युवक का पूरा व्यक्तित्व है, जो अपने को सीधे-सीधे अभिव्यक्त करने की सामाजिक स्वाधीनता चाहता है। यदि कहानी के पात्रों अथवा पौराणिक व्यक्तियों के माध्यम से वह अपनी बातें कह सकता तो अवश्य कहता; क्योंकि अभिव्यक्ति की यह नाटकीय प्रणाली चिराचरित और अनुभवसिद्ध है। लेकिन उसे लगा कि अपनी बात निजी ढंग से ही वह अच्छी तरह कह सकता है। उसकी वैयक्तिकता पुरानी निर्वैयक्तिकता में घुट-सी रही थी। निर्वैयक्तिकता में उसे एकदम आत्म-निषेध की आशंका थी। रीति-काल के कवियों की ‘रूढ़िगत तटस्थता’ उसके लिए असह्य प्रतीत हो रही थी। इसलिए यह वैयक्तिक अभिव्यक्ति कवि के लिए व्यक्ति की मुक्ति थी। पूर्ववर्ती कविता की निर्वैयक्तिकता की तुलना में यह वैयक्तिकता का आग्रह कितना बड़ा विद्रोह था, इसका अनुमान तत्कालीन पुराण-पंथी पंडितों की आलोचनाओं से कुछ-कुछ हो सकता है।

मध्ययुग में भक्त कवियों ने केवल आत्म-निवेदन में इस आत्मीय-पद्धति का सहारा लिया है और इसीलिए कबीर और मीरा के आत्म-निवेदनों तथा सूर-तुलसी के विनय-पदों में लोगों ने अधिक तन्मयता अनुभव की है। भक्तों के उन आत्म-निवेदनों से स्पष्ट है कि अपने भगवान से जहाँ उन्हें सीधी बात करनी थी, वहाँ उन्होंने संपूर्ण तटस्थता का परित्याग करके एकदम आमने-सामने बातचीत की है। भावावेग की स्थिति में अभिव्यक्ति की स्वाभाविक परिणति यही है। उस युग में यह बहुत बड़ी बात थी।

लेकिन आधुनिक युग की वैयक्तिक अभिव्यक्ति भक्तों के आत्म-निवेदन से कहीं अधिक आगे की चीज है। भक्तों ने जो आत्म-निवेदन किया, उस पर धर्म का आवरण था और धर्म का यह आवरण ही उसे तटस्थता प्रदान करने के लिए काफी था। लेकिन आधुनिक विज्ञान तथा उससे प्रभावित सामाजिक, राजनैतिक तथा नैतिक मान्यताओं ने तो नई पीढ़ी के मन से वह धार्मिक आवरण भी एक हद तक उतार फेंका। मध्ययुग की धार्मिकता का स्थान आधुनिक युग की ऐहिकता ने ले लिया। फलतः छायावादी कवि की वैयक्तिक अभिव्यक्ति के लिए इस ऐहिक युग में कोई आवरण नहीं रह गया। प्राचीन मर्यादा के रक्षकों के लिए यह नग्न और ऐहिक वैयक्तिकता कितनी अरुचिकर प्रतीत हुई, यह उनके तत्कालीन विरोधों से ही प्रकट है।

पुराना कवि अपने निजी प्रणय-संबंध को सीधे ढंग से व्यक्त करने में असमर्थ था। रीतिकाल के कवियों के लिए भी राधा-कन्हाई की ओट अनिवार्य थी। सामंती नैतिकता का बंधन इतना कड़ा था! लेकिन इस बंधन को अस्वीकार करते हुए पंत ने उच्छ्वास और आँसू की बालिका के प्रति सीधे शब्दों में अपना प्रणय प्रकट किया। और यह निश्चित है कि उच्छ्वास की सरल बालिका कोई रहस्यात्मक शक्ति नहीं है। उसके विषय में कवि की स्पष्टोक्ति है-‘बालिका मेरी मनोरम’ मित्र थी।’

कवि ने समाज से यह छूट पहली बार ली। और ध्यान देने की बात है कि इसके लिए कवि कहीं भी अपने को अपराधी अथवा हीन अनुभव नहीं करता। अपनी दुर्बलताओं को वह उसी प्रकार खोलकर रखता है, जिस प्रकार अपने प्रेम की पावनता को दृढ़ता के साथ प्रमाणित करता है। उसे इस कार्य में कहीं भी अनैतिकता नहीं प्रतीत होती, क्योंकि वह जानता है कि यह तो मानवीयता अथवा मनुष्य की स्वाभाविक दुर्बलता है।

कविता में जहाँ देवताओं के प्रेम का वर्णन होता था, वह स्थान साधारण मनुष्य ले ले – यह जनतांत्रिक भाव की विजय है; यह मध्यवर्ग की पहली सामाजिक स्वाधीनता है।

जब यह सामाजिक स्वाधीनता प्रणय के क्षेत्र में ली गई तो इसका प्रसार अन्य क्षेत्रों में भी हुआ। निराला ने अपनी पुत्री ‘सरोज’ की स्मृति में शोकगीत लिखा और उसमें अपने निजी जीवन की अनेक बातें साफ-साफ कह डालीं। संपादकों द्वारा मुक्त छंद की रचनाओं का लौटाया जाना, विरोधियों के शाब्दिक प्रहार, मातृहीन लड़की की ननिहाल में पालन-पोषण, दूसरे विवाह के लिए निरंतर आते हए प्रस्ताव और उन्हें ठुकराना, सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ते हुए एकदम नए ढंग से कन्या का विवाह करना, उचित दवा-दारू के अभाव में सरोज का देहावसान और उस पर कवि का शोकोद्गार। यह सब पंत के उच्छ्वास और आँसू की वैयक्तिकता से हजार डग आगे है।

कविता क्या है, कवि की पूरी आत्मकथा है: इसमें जो शेष रहा, वह बन-बेला में पूरा हो गया। यहाँ केवल आत्म-कथा नहीं है बल्कि अपनी कहानी के माध्यम से एक-एक कर पुरानी सामाजिक रूढ़ियों और आधुनिक अर्थ-पिशाचों पर प्रहार किया गया है।

यदि एक ओर कवि अपने कनौजिया बंधुओं को इन शब्दों में याद करते हैं:

ये कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार
खाकर पत्तल में करें छेद
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,

और फिर गँवार दामाद का यह चित्र:

वे जो जमुना के से कछार
पद फटे बिवाई के, उधार
खाए के मुख ज्यों, पिए तेल
चमरौधे जूते से, सकेल
निकले, जी लेते, घोर-गंध,
पाया उन चरणों को मैं यथा-अंध
कलघ्राण-प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूँ, ऐसी नहीं शक्ति

तो दूसरी ओर वह निरानंद संपादक के गुण गुन-गुनकर यथाभ्यास पास की घास नोंचता हुआ अज्ञात इधर-उधर फेंकता है। इसी सिलसिले में उस समाज-व्यवस्था को भी याद किया जाता है जिसमें ‘उपार्जन को अक्षम’ कवि अपनी कन्या को चीनांशुक पहनाकर दधिमुख करना तो दूर, कुछ भी न कर सका।

यह निराला ही हैं, जो तमाम रूढ़ियों को चुनौती देते हुए अपनी सद्यः परिणीता कन्या के रूप का खुलकर वर्णन करते हैं और यह कहना नहीं भूलते कि ‘पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची!’ है किसी कवि में इतना साहस और संयम!

पंत और निराला की तरह आत्माभिव्यक्ति प्रसाद ने भी की। हंस के ‘आत्मकथा’ अंक के लिए जब उनके सुहृद प्रेमचंद ने ‘आत्मकथा’ लिखने का आग्रह किया तो प्रसाद ने नहीं-नहीं करते हुए भी आत्मकथा कह ही डाली। कवि ने अपनी दुर्बलताओं की कोई फेहरिश्त पेश नहीं की, फिर भी इतना कह ही दिया कि ‘तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे यह गागर रीती।’ जिस संयत हदय ने ‘अपनी भूलों के साथ ही औरों की प्रवंचना’ दिखलाने से इनकार किया, उसी ने अपने मधुमय जीवन की झाँकी देने में संकोच नहीं दिखलाया और कहा कि:

जिसके अरुण कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में
उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की
सीवन को उधेड़कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की।

और ‘अरुण कपोलों’ की इस झलक के बाद उस थके पथिक की कंथा की सीवन को उधेड़कर देखने का दुस्साहस कोई ऐसा ही निर्मम करेगा जिसकी दिलचस्पी स्थूल घटनाओं में होगी।

सामंती रूढ़ियोंवाले समाज के सामने जब एक पुरुष की यह स्थिति है, तो इस पुरुष-प्रधान समाज में नारी के लिए आत्माभिव्यक्ति में कितनी बड़ी कठिनाई हो सकती है, यह सहज अनुमेय है। फिर भी महादेवी वर्मा ने अपने गीतों में वैयक्तिक ढंग से अभिव्यंजना की और इसके लिए उन्होंने कितने प्रवाद झेले, इसे बतलाने की जरूरत नहीं है। महादेवी जी ने कहीं लिखा है कि आज का साहित्यकार अपनी प्रत्येक साँस का इतिहास लिख लेना चाहता है।

इतना होते हुए भी सामाजिक रूढ़ियों के प्रहार की आशंका से कवि को वैयक्तिक अनुभूतियों के लिए रहस्यवाद का आश्रय लेना पड़ा। स्थल धार्मिक आवरण तो वह ले नहीं सकता था, लेकिन ऐहिक वैयक्तिकता की क्षुद्रता से उसे बचाने के लिए रहस्यात्मकता के ऊर्ध्व आसन पर प्रिय को बैठाना ही पड़ा। महादेवी ने नारी होकर ऐसा किया तो कोई बात नहीं, लेकिन पुरुष होकर भी प्रसाद ने आँसू के दूसरे संस्करण को अत्यधिक रहस्यात्मक और सामाजिक लोकमंगल-परक बना डाला; अबकि आँसू का प्रथम संस्करण शुद्ध ऐहिक प्रेम की विरह-वेदना का काव्य है।

इतना होते हुए भी आलोचकों से वास्तविकता छिपी न रह सकी और शुक्ल जी-जैसे गंभीर आचार्य भी खुल ही पड़े कि “इनकी रहस्यवादी रचनाओं को देखकर चाहे तो यह कहें कि इनकी मधुचर्या के मानस-प्रसार के लिए रहस्यवाद का परदा मिल गया अथवा यों कहें कि इनकी सारी प्रणयानुभूति ससीम से कूदकर असीम पर जा रही।”

इस कथन के पीछे और प्रवृत्ति चाहे जो हो, लेकिन इससे इतना तो स्पष्ट है ही कि उस युग की पुरानी पीढ़ी के लोग भी छायावादी अथवा रहस्यवादी कविताओं को मूलतः कवि की आत्मानुभूति ही मानते थे।

यह आत्माभिव्यक्ति की भावना इस युग में कितनी व्याप्त रही है, इसका पता इसी से चलता है कि ‘आत्मकथा’ लिखने की परंपरा-सी चल पड़ी। गाँधी, नेहरू, रवींद्रनाथ, श्रद्धानंद, श्यामसुंदरदास, वियोगी हरि, राहुल सांकृत्यायन आदि। जाने कितने राजनीतिज्ञों, धर्मसुधारकों और साहित्यकारों ने अपनी आत्मकथा अथवा जीवन-स्मृति लिखी है। इतने बड़े पैमाने पर इस देश में आत्मकथाएँ पहले शायद ही कभी लिखी गईं। मध्ययुग के हिंदी साहित्य में केवल एक आत्मकथा मिलती है, बनारसीदास जैन की अर्धकथा।

ये आत्मकथाएँ इस युग में प्रचलित वैयक्तिक आत्माभिव्यक्ति की आकांक्षा की द्योतक हैं। ये बतलाती हैं कि व्यक्ति अपने को अभिव्यक्त करने के लिए कितना आकुल था! वह अपने भावों और विचारों को प्रकट करने की स्वतंत्रता चाहता था। उसकी इस आकांक्षा में स्वाधीनता की कामना थी और अभिव्यंजना में साहस। हर देश में ‘रोमैंटिसिज्म’ का अभ्युदय प्रायः इसी आकांक्षा के साथ हुआ है। फ्रांस और फिर पूरे यूरोप में रोमैंटिक साहित्य का प्रवर्तन करनेवाले रूसो के कनफेशन के आरंभिक उद्गार से इस भावना के ऐतिहासिक महत्त्व का ठीक पता चलता है। रूसो लिखता है:

“आज मैं अपने हाथ में वह कार्य ले रहा हूँ, जिसे अभी तक किसी ने नहीं किया था और न भविष्य में ही कोई करेगा। मैं अपने मित्रों के सामने एक मनुष्य का सच्चा रूप रखना चाहता हूँ और वह मनुष्य स्वयं मैं हूँ। जितने भी लोग मेरे देखने में आए हैं, उनमें से किसी-जैसा मैं नहीं हूँ और मेरा तो विश्वास है कि इस समय जितने भी लोग मौजूद हैं उन सबमें भी किसी-जैसा मैं नहीं हूँ। जैसा मैं था, वैसा अपने को दिखलाया है – नीच और घृणास्पद, भला, उच्चाशय और उदात्त – जैसा भी था वह सब एकत्र हों मेरे चारों ओर मेरे अनगिनत साथी और सुनें मेरी आत्मस्वीकृति – मेरी अयोग्यताओं पर सिर धुनें और मेरी अपूर्णताओं पर शरमाएँ। और फिर उनमें से हर एक स्पष्टता के साथ, सिंहासन के चरणों में अपने हृदय के रहस्यों का उद्घाटन करे और यदि साहस हो तो कहे कि मैं इस आदमी से अच्छा हूँ।”

चुनौती का ऐसा अकुंठित स्वर हिंदी छायावाद में नहीं सुना गया; यदि ऐसी चुनौती हिंदी में कोई दे सकता था – और एक हद तक दिया भी – तो एक निराला!

ऐसे युग में जबकि विचारों और भावों को हजारों-लाखों आदमियों तक पहुँचाने के साधन जुट गए हों, आत्माभिव्यक्ति की स्वाधीनता स्वभावतः व्यक्ति की स्वाधीनता का बीज-मंत्र बन जाती है! सार्वजनिक शिक्षा का प्रसार और छाप की मशीन की स्थापना – ये दो ऐसे साधन हैं, जिन्होंने पढ़ने और लिखने की अधिक से अधिक सुविधा जुटा दी। नई शिक्षा ने अधिक से अधिक पाठक तैयार कर दिए और प्रेस ने उन पाठकों तक अपने विचार पहुँचाने का सुभीता जुटा दिया। बस, व्यक्ति ने अपनी अभिव्यक्ति की स्वाधीनता माँग ली। मध्ययुग में यह सुविधा न थी, इसीलिए यह स्वाधीनता भी कम थी – न तो इसकी माँग थी और न उस माँग की पूर्ति।

इसी को राजनीति, दर्शन और कविता में व्यक्तिवाद की संज्ञा दी गई। छायावादी कविता का आरंभ इसी व्यक्तिवादी भावना से हुआ।

यह भी पढ़ें: ‘कविता का कोई अर्थ नहीं है’

Link to buy:

नामवर सिंह
नामवर सिंह (जन्म: 28 जुलाई 1926 बनारस, उत्तर प्रदेश - निधन: 19 फरवरी 2019, नयी दिल्ली) हिन्दी के शीर्षस्थ शोधकार-समालोचक, निबन्धकार तथा मूर्धन्य सांस्कृतिक-ऐतिहासिक उपन्यास लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रिय शिष्‍य रहे। अत्यधिक अध्ययनशील तथा विचारक प्रकृति के नामवर सिंह हिन्दी में अपभ्रंश साहित्य से आरम्भ कर निरन्तर समसामयिक साहित्य से जुड़े हुए आधुनिक अर्थ में विशुद्ध आलोचना के प्रतिष्ठापक तथा प्रगतिशील आलोचना के प्रमुख हस्‍ताक्षर थे।