डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा (दूसरा खण्ड) ‘मणिकर्णिका’ से किताब अंश | Book Excerpt from ‘Manikarnika’ by Dr. Tulsiram
मैं उस मकान में लगभग डेढ़ साल तक रहा। अकेले रहना मुझे इसलिए पसन्द आया कि मैं अपनी समस्याओं से स्वयं जूझना चाहता था। अब मैं यह नहीं चाहता था कि मेरे कारण कोई और परेशानी में रहे। परिणामस्वरूप भूखे रहने की रफ़्तार काफ़ी तेज़ हो गई। इस समस्या के निदान के लिए मैं सिर्फ़ शाम के समय खाना बनाता और दिन का खाना गोल कर जाता था। इस तरह पन्द्रह दिन के ख़र्चे से महीना भर का काम चलने लगा। इसके बावजूद मई 1968 के वे दिन मुझे कभी नहीं भूलेंगे, जब मैं लगातार नौ दिनों तक भूखा रहा। उन नौ दिनों तक मैं एक चाय सुबह और दूसरी शाम को पीकर गुज़ारा करता था। वह चाय भी उधार की होती थी, इसलिए वैसा करने में सफल रहा। होता यह था कि उसी मकान में एक अन्य किराएदार रहते थे। वे कायस्थ थे, जिन्हें सभी लोग मुंशी जी के नाम से पुकारते थे। मुंशी जी उस मकान के सामने सड़क की पटरी पर स्टोव जलाकर चाय पिलाने का कारोबार करते थे। उस मकान के सारे किराएदार मुंशी जी को महीने के अंत में चाय के पैसे देते थे। इस तरह चाय उधार में मिल जाती थी, अन्यथा नकदी की हालत में वह भी मयस्सर नहीं होती।
उन भुखमरी के नौ दिनों का आठवाँ दिन मेरे लिए विशेष यादगार दिवस के रूप में बदल गया था। उस दिन रविवार था। मेरे तांत्रिक ओझा रिश्तेदार के छोटे भाई रघुनाथ मडुआडीह के डीजल रेल इंजन कारख़ाने में नौकरी करते थे। कारख़ाने के परिसर में स्थित जलाली पट्टी में उनका सरकारी मकान था। उस दिन भूख अपनी चरम सीमा पर थी। भूखे रहते-रहते एक अनुभव यह था कि तीन दिन से ज़्यादा दिन खाना न मिलने की स्थिति में जंघों में बहुत दर्द होने लगता था। अतः भूख मिटाने की इच्छा लिए मैं भदैनी से करीब छः किलोमीटर दूर जैसे तैसे पैदल चलकर जलाली पट्टी पहुँचा तो देखा कि रिश्तेदार के घर पर ताला लगा हुआ था। पड़ोसियों ने बताया कि वे लोग आज़मगढ़ अपने गाँव गए हैं और एक सप्ताह बाद वापस आएँगे। निराशापूर्ण लौटानी यात्रा पहाड़ लाँघने जैसी बन गई। उठते बैठते मैं घण्टों चलकर महमूरगंज, लक्सा तथा गुरुबाग़ आदि मोहल्लों से होते हुए दशाश्वमेध घाट पहुँचा। घाट की सबसे निचली सीढ़ी पर बैठकर मैंने अपना दोनों पाँव गंगा में डुबा दिए। उस बेहद गर्मी में पैरों की जलसमाधि बहुत राहतकारी तो लगी, किन्तु सोचने पर मजबूर हो गया कि गंगा किसी के पाप को तो धुल सकती है, पर भूख को नहीं। थकावट इतनी ज़्यादा थी कि गंगा से पैर निकालने का मन नहीं कर रहा था। लगभग घण्टा भर
मैं वहाँ बैठा रहा। उस दिन भी कई मल्लाहों ने मुझसे गंगा की सैर के लिए पूछा था। उन्हें क्या पता कि मैं भूख पर सवार होकर गंगा की ही सैर कर रहा था।
जब मैं गंगा से हटकर दशाश्वमेध घाट के ऊपर आया तो देखा कि वहाँ बहुत लम्बी क़तार में सैकड़ों भिखारी तसला, लोटा आदि जैसे पात्रों के साथ बड़े अनुशासनपूर्वक बैठे हुए थे। वे उझक-उझककर अपने दाएँ छोर की तरफ़ बार-बार उकताई नज़र से देखते जा रहे थे। उन्हीं के साथ मेरी निगाह भी दाएँ छोर की तरफ़ गईं। वहाँ ताज़ा पकी खिचड़ी से भरा एक बहुत बड़ा हण्डा था। हण्डे के मेहखड़ में बन्धी दो बाँस की काड़ियाँ थीं, जिन्हें पकड़कर दो आदमी हण्डे को सरकाते जा रहे थे और एक आदमी एक डब्बे के नपने से भिखारियों के तसलों में खिचड़ी डालता जा रहा था। उन दिनों बनारस के कुछ धर्मप्रिय मारवाड़ी सेठ प्रतिदिन भिखारियों को खिचड़ी देते थे। मेरे मन में बार-बार यह बात आती कि मैं भी तसला लेकर किन्हीं दो भिखारियों के बीच में बैठ जाऊँ, किन्तु मैंने बुरी से बुरी परिस्थिति में कभी भी अपने आत्मसम्मान को नहीं खोया और न किसी से भूखे रहने की शिकायत की। खिचड़ी की सुगन्ध लिए मैं शाम के समय भदैनी वापस आकर एक बार फिर मुंशी जी की उधार चाय पीकर सो गया।
बनारस आकर पढ़ाई करने के अनेक कारणों में एक सबसे बड़ा कारण यह था कि मेरे हाई स्कूल वाले प्रधानाचार्य धर्मदेव मिश्र हमेशा कहा करते थे कि बनारस में कोई भूखा नहीं रहता है, कहीं न कहीं से शाम को खाना अवश्य मिल जाता है। मेरा उनकी इस धारणा में अटूट विश्वास हो गया था। किन्तु भदैनी में यह विश्वास टूटकर चकनाचूर हो गया। मुझे पहली बार ऐसा लगा कि मान्यताओं या आस्थाओं से ज़िन्दगी नहीं चलती। गौतम बुद्ध ज्ञान की तलाश में महीनों भूखे रहकर श्मशान साधना करते थे और नर कंकालों का सिरहाना बनाकर वहीं सो जाते थे। भूख की हालत में उन्हें यह वैज्ञानिक अनुभूति हुई कि ख़ाली पेट मस्तिष्क काम नहीं करता, इसलिए वे खाने लगे। ख़ाली पेट रहना मेरे लिए एक विकराल समस्या थी। अतः उस ‘नवरात्रि व्रत’ के अन्तिम दिन मेरा दिमाग़ चल पड़ा।
उन दिनों बी.एच.यू. गेट के सामने वाले लंका मोहल्ले में ‘स्टूडेंट्स फ़्रेंड’ नामक एक किताबों की दुकान होती थी जिसमें विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में लगायी गई पुस्तकों की ख़रीद-फ़रोख़्त होती थी। उसका मालिक नयी किताबों के अलावा पुरानी किताबों को अधिया पर ख़रीद लेता था और उन्हें पवन्ना पर बेचता था। मेरे बी.ए. प्रीवियस के अंग्रेज़ी साहित्य वाले कोर्स में शेक्सपीयर के दो ड्रामा ‘ओथेलो द मूर आफ़ वेनिस’ तथा ‘द मर्चेट आफ़ वेनिस’ लगे हुए थे। बनारस के प्रकाशक इन नाटकों को अलग-अलग छापकर पाँच-पाँच रुपए में बेचते थे। पाठयक्रम में होने के नाते ये दोनों नाटक मेरे पास थे। मैं इन दोनों नाटकों को हाथ में लेकर आँख मूँदे बिस्तर पर गिराता, लुढ़काता और फिर उठाता। इस तरह लॉटरी निकालने की प्रक्रिया द्वारा जब एक नाटक हाथ में आया तो आँख खोलने पर पता चला कि नवरात्रि का व्रत ओथेलो ही तोड़वाएँगे। शाम का समय था। मैंने ओथेलो के साथ स्टूडेंट्स फ़्रेंड में दाख़िल होकर उसे आधे दाम यानी ढाई रुपयों में बेच दिया। लंका से ही एक बनिए की दुकान से एक रुपए में दो किलो मोटा चावल, आठ आने में आधा किलो अरहर की दाल तथा चार आने का डेढ़ किलो लकड़ी का कोयला लेकर भदैनी आ गया। दशाश्वमेध घाट की खिचड़ी याद थी, इसलिए खिचड़ी ही पकाने का निर्णय लिया। पतीली में ‘बुद बुद’ ‘बुद बुद’ कर जैसे-जैसे खिचड़ी पकती जा रही थी, इस नाटक में शेक्सपीयर के सारे पात्र मेरी आँखों से गुज़रते रहे।
थीम भी तो थी बड़ी अनोखी। वेनिस के प्रभावशाली सिनेटर ब्रेबेंशिओं की अति सुन्दरी गोरी कन्या डेस्डेमोना का ओथेलो नामक काले हब्सी से प्रेम विवाह। खलनायक इआगो का बीच में कूदना। ओथेलो पर जादू टोना द्वारा फँसाए जाने वाले आरोप को डेस्डेमोना द्वारा इंकार करना और यह मानना कि उसने ओथेलो की वीरता की गाथा सुनकर प्रभावित हो प्रेम किया। ओथेलो और डेस्डेमोना के बीच विष बोने के लिए खलनायक इआगो का उनकी शादी के रूमाल को अपनी पत्नी इमिलिया द्वारा चुराकर प्रतिद्वंद्वी कैशिओ के शयन कक्ष में रखवाना। चोरी किए गए इस रूमाल के माध्यम से इआगो द्वारा ओथेलो को विश्वास दिलाना कि डेस्डेमोना का कैशिओ से अवैध शारीरिक सम्बन्ध है। रूमाल कहाँ गया के उत्तर में डेस्डेमोना की अनभिज्ञता पर ओथेलो के सन्देह की सीमा का अपनी पराकष्ठा पार कर जाना। अन्ततोगत्वा इसी सन्देह के चलते ओथेलो द्वारा डेस्डेमोना की हत्या करना। इमिलिया द्वारा षड्यंत्र का पर्दाफाश करने पर पश्चाताप करते हुए ओथेलो का अपने सीने में कटार घोंप कर डेस्डेमोना के बिस्तर पर गिरकर मर जाना आदि दृश्य मेरी कल्पना में मंचित होते रहे। इस बीच शेक्सपीयर की कल्पना से आगे मेरी एक कल्पना यह थी कि डेस्डेमोना मेरी खिचड़ी पका रही है और ओथेलो अपने सीने में कटार घोंप कर मेरे बिस्तर पर छटपटा रहा है। मेरी खिचड़ी तो पक गई, किन्तु मुझे ऐसा लगा कि खिचड़ी के साथ ही मैंने शेक्सपीयर को भी बेच खाया।
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