‘Chaak Ka Chakkar’, a poem by Prita Arvind

चाक पर चक्कर में पड़ा
मिट्टी का नर्म गोला
सोच रहा है लगातार-
कितनी सम्भावनाएँ
ले रही हैं उसमें आकार।

चाय की आख़िरी घूँट के बाद
पटरियों पर बिखर जाना है,
या गोरी की गुदाज़ बाँहों में अटका
ख़ुशी से छलकते पनघट से घर को जाना है,
किसी पवित्र नदी के जल से भरा सर पर रखा
भव्य शोभायात्रा का मूक दर्शक बन जाना है,
या किसी शव की परिक्रमा कर
मिट्टी में मिल जाना है।

क्या तुम्हें कुछ पता है कुम्हार,
मेरे रचयिता?
या तुम भी मेरी तरह किसी
चाक के चक्कर में पड़े हो।

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