देख रहा हूँ तुम्हें कब से
अपनी पीठ से झाड़ते हुए
चाँदी की उस छड़ी की मार
जो उस आदमी के हाथ में है
जिसके गले में सोने की ज़ंजीर है।

तुम्हारे मुँह में उसकी थूक भरी हँसी
झर रही है
जिसे चाट तुम्हारी ज़बान
ऐसी बुज़दिल भाषा जन रही है
जिसे गोद में लिए कविता
शर्म से गड़ गई है।

सच को नगदार अँगूठी से दिए
एक बीड़ा पान के साथ
चूने की तरह खा रहे हो
उसके थूके झूठ को अपने मुँह में रोप
अपनी बुद्धि को पीकदान बना रहे हो
कब से देख रहा हूँ तुम्हें—
तुम उसे हमेशा अपने पुट्ठे पर
महसूस करना चाहते हो
दगाए सरकारी साँड़ के निशान की तरह।

***

मानबहादुर सिंह की कविता 'लड़की जो आग ढोती है'

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