चातिक चुहल चहुँ ओर चाहे स्वाति ही कों,
सूरे पन-पूरे जिन्हें विष सम अमी है।
प्रफुलित होत मान के उदोत कंज-पुज,
सा विन विचारनि ही जोति-जाल तमी है।
चाहौ अनचाहौ जान प्यारे पै अनंद घन,
प्रीति-रीति विषम सु रोम रोम रमी है।
मोहिं तुम एक, तुम्हैं मो सम अनेक आहिं,
कहा कछू चंदहिं चकोरन की कमी है॥
प्रस्तुत कवित्त में कवि यह दिखाना चाहता है कि शुद्ध स्नेह एकनिष्ठ होता है। अर्थात् जिस किसी से प्रेम हो गया उससे हो गया। हो सकता है प्रिय सर्व-गुण-सम्पन्न हो परन्तु गुणों का तिरोभाव भी प्रेम में बाधक नहीं होता। प्रिय के अवगुण भी प्रणयी के मन को मोहक ही लगते हैं। अधिक क्या, वह उन अवगुणों को अवगुण समझती ही नहीं। साथ ही साथ यदि प्रिय से अधिक आकर्षक अन्य व्यक्तित्व सामने आ जाता है तो भी पूर्व प्रेमियों के प्रेम में किसी प्रकार का अन्तर नहीं पड़ता। शर्त यही है कि प्रेम वास्तविक हो, वह लोलुपता और लोभ की कोटि का न हो।
यहाँ तीन कवि-प्रसिद्धियों (चातक और स्वाति-नक्षत्र का जल, सूर्य और कमल, चन्द्रमा और चकोर) को लेकर कवि ने प्रेम की एकनिष्ठता की ओर संकेत किया है।
प्रथम कवि-प्रसिद्धि चातक और स्वाति नक्षत्र के जल की है। कहते हैं कि चातक बारह महीने केवल स्वाँति नक्षत्र के लिए पियु-पियु पुकारता है तथा स्वाँति नक्षत्र के जल के अतिरिक्त अन्य किसी जल का पान भी नहीं करता। इसी प्रसिद्धि को लेकर कवि कहता है कि प्रतिज्ञा पूर्ण करने में जो पूरे वीर हैं, ऐसे विनोदी अथवा प्रेम की तन्मयता के कारण मस्तमौला, चातक पक्षी चारों ओर स्वाँति नक्षत्र के जल को चाहते हैं। उसके अभाव में उन्हें अमृत भी दे दिया जाय तो उसे वे ‘सूरे-पन पूरे’ होने के कारण विष के समान मानते हैं। अर्थात् प्रेमी अपनी अभीप्सित वस्तु से अधिक गुणकारी एवं प्रसिद्ध वस्तु की भी कोई विशेष गिनती नहीं करता।
दूसरा उदाहरण और लीजिए। कवि प्रसिद्धि है कि रवि के प्रकाश में कमल खिल जाते हैं और उसके अस्त होते ही संकुचित हो जाते हैं, यद्यपि रात्रि के समय प्रकाश का तिरोभाव नहीं होता है। किन्तु अपना प्रेम ही जो ठहरा। इसी बात को लेकर कवि कहता है कि सूर्य के प्रकाश (के आने) से कमलों का समूह खिल जाता है और जब सूर्य का प्रकाश नहीं रहता है, तो उसके अभाव में, बिचारे कमलों के लिए (सूर्य के अतिरिक्त) अन्य (चन्द्रमा एव तारागण आदि के) प्रकाश-पुंज निरर्थक है, वे सभी उनके लिए तमी (रात्रि) के समान धूमिल एवं काले अथवा शोक दायक हैं (शोक का रंग कवि समय में काला माना गया है।) इस प्रकार प्रेमी प्रणयी-मन की एक मात्र भावना का अथवा प्रेम की अनन्यता का उल्लेख करके प्रिय से अपने प्रेम की अनन्यता निवेदित करता है।
घनानन्द कहते हैं कि हे प्रियतम सुजान! तुम मुझे प्यार करो या न करो परन्तु मेरे तो रोम-रोम में अर्थात् पूरे तन में तुम्हारा प्रेम छाया हुआ है। तुम्हारे लिए प्यार करने की यह विषम रीति या एक पक्षीय प्रेम-पद्धति मैंने पूर्णतः अपना ली है। सारांश यह है कि मैं तो तुम को हर प्रकार से प्यार करता हूँ, परन्तु इसकी मुझे चिन्ता नहीं है कि तुम भी मुझे प्यार करते हो या नहीं। तुम मुझे प्यार न करो, मैं तो तुम्हें चाहता ही रहूँगा। क्यों मेरे लिये तो (इस भूतल पर) तुम्ही एक मात्र प्रेमभाजन हो (अतः मेरे हृदय में अन्य कोई कैसे आ सकता है) परन्तु तुम्हारे लिए मेरे जैसे (मैं जानता हूँ कि) अनेक चाहने वाले हैं (जब वस्तु एक है और लेने वाले अनेक हैं तब सबको पूरी-पूरी मिलना असम्भव है।) हो सकता है किसी के हाथ में कुछ भी न पड़े इसलिए मैं तुमको चाहता हूँ, अतः तुम भी मुझे प्रतिदान में चाहो, ऐसी इच्छा रखना परले सिरे की मूर्खता होगी। (देखो! एक पते की बात याद आ गई) क्या चन्द्रमा को चकोरों की कमी है? उत्तर है, नहीं। अर्थात् प्रिय के प्रेमी बहुत हो सकते हैं पर प्रेमियों के लिए प्रिय एक ही होता है (और जहाँ इसकी उल्टी बात हो वहाँ प्रेम नहीं हो सकता है, रूप-लोभ अथवा अतृप्त वासना की लालसा भले ही हो। जहाँ कोई सुन्दरी देखी कि मन के बन्धन ढीले पड़ गये। इस दशा में वासना ही प्रधान कही जाएगी। प्रेम का उदात्त रूप वहाँ नहीं होगा।)
कवित्त की अन्तिम पंक्तियों को निम्न दोहे से मिलाइये-
“कमलन कौं रवि एक है, रवि कौं कमल अनेक।
हमसे तुमकौं बहुत हैं, तुम से हमकौं एक॥”
***