सब कुछ अपनी अनुकूलता संग
प्रतिकूलता में भी गतिमान रहे।
कोई हाथ पकड़कर रोकने की विवशता के
आयाम नहीं गढ़ सकता,
जिस प्रवाह में तुम आते हो
तुम्हारे लौटने का नियम उतना ही दृढ़।

वर्षा की समस्त पोषण बूँदों को सहेजकर खड़े
वन वृक्ष तरु लताएँ
आप्तकामी की भाँति लीन।
स्वेद बूँदों का वर्चस्व तन की रेख से विलुप्त,
ओस कुहासे के बंदनवार से ढके दिशाओं के मुख
प्रतीक्षा के मनके फेरती।
सुनहरी रश्मि के कोमल स्पर्श से चुनी जाएँगी
मुक्तामणि दूब के हरियल वितान से।

ताल पोखर में खिली कुमुदिनी ने
धरा के विस्तृत आंँचल पर उकेरी है अल्पना।
खेतों में अँखुयाए गेहूँ की
पुलक मुस्कान दिशानिर्देश है
ख़ुशियों के रंग उत्सव की।

वर्षा की पीठिका पर अबोध शिशु-सा लदा शरद
भरने लगा है डेग
धूप अपने नाम की तख़्तियाँ बरबस बदल चुकी,
चमकीली चुभती धूप
जाने कब चम्पई हो गयी!

प्रीति कर्ण की अन्य कविता 

Recommended Book:

प्रीति कर्ण
कविताएँ नहीं लिखती कलात्मकता से जीवन में रचे बसे रंग उकेर लेती हूं भाव तूलिका से। कुछ प्रकृति के मोहपाश की अभिव्यंजनाएं।