Poems by Mevaram Katara Pank
रक्षक
मानवीय अधिकारों का
ढिंढोरा पीटने वाले
मानवता पर तलवार चलाते हैं
मुल्ला, पण्डा, पादरी ही
धर्म को खाते हैं।
दुनिया
खोल दी पिटारी
मदारी ने देखा
चार दिन नचाकर
नाच गया बन्दर
मिट गई रेखा।
अज्ञात त्रुटि
समा गई अज्ञात त्रुटि
मेरे दिल में
जैसे कोई साँप
घुस गया हो
बिल में।
अतिक्रमण
प्रेम लता इतनी न सींचो
कि दूसरे के घर में छा जाय
अपेक्षा वही करो
जो सम्भावना में समा जाय।
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