स्वप्न में दिखती है एक चींटी और मास्क वाले चेहरे
चींटी रेंगती है पृथ्वी की नाल के भीतर
मास्क वाले चेहरे घूमते हैं भीड़ में
सर से पाँव तक जहालत का बोझ लिए
मैं दौड़ती रही भीड़ में
ढूँढने को एक निर्वात
धूप बनकर सोखती रही
प्रकृति के हाथों की नमी
हाय प्रकृति!
तुम्हारी पीड़ा का गणित सुलझाने
मैं दौड़ पड़ी सफ़ेद बर्फ़ीली चट्टानों की ओर
भूरी टहनियों पर उँगलियाँ घुमाते हुए
करती रही प्रार्थनाएँ
एक तीर आए और कष्टों को भेदकर निकल जाए
दुकानों की जगमग रोशनी मेरी आँखों में चुभती है
मैं आकर्षित होती हूँ चींटी की सीढ़ियों की ओर
मेरा सामर्थ्य बनाता रहा
दीमक की तरह आशाओं की बाम्बी
भरभराकर गिर न पड़े
प्रकृति तुम्हारे ज्वर की धार बहुत है
तुम्हारे पहाड़ों के जंगल शुष्क हो रहे हैं
इस सदी के बुद्धिजीवियों ने कहा था मुझे
दौड़ते रहना जब तक कि
सुलझ न जाए
मिट्टी, देह और जल का गणित
मेरा शरीर पहाड़ों से टकराती
बादलों की गर्जन से भरा है
जहाँ घड़ियों की आवाज़ गुम है
अब इस देह के विसर्जन का वक़्त है
मेरा ध्यान पृथ्वी की नाल पर है
वहाँ केवल चींटियाँ हैं
मास्क वाले चेहरे नहीं।
नताशा की कविता 'लॉकडाउन समय'