छाया मत छूना मन
होता है दुःख दूना मन
जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी
छवियों की चित्र-गन्ध फैली मनभावनी;
तन-सुगन्ध शेष रही, बीत गई यामिनी,
कुन्तल के फूलों की याद बनी चाँदनी।
भूली-सी एक छुअन
बनता हर जीवित क्षण
छाया मत छूना मन
होगा दुःख दूना मन
यश है न वैभव है, मान है न सरमाया,
जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया।
प्रभुता का शरण-बिम्ब केवल मृगतृष्णा है,
हर चन्द्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है।
जो है यथार्थ कठिन
उसका तू कर पूजन
छाया मत छूना मन
होगा दुःख दूना मन
दुविधा-हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं
देह सुखी हो पर मन के दुःख का अन्त नहीं।
दुःख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,
क्या हुआ जो खिला फूल रस-बसन्त जाने पर?
जो न मिला भूल उसे
कर तू भविष्य वरण,
छाया मत छूना मन
होगा दुःख दूना मन!