इस साल मैं अपने मामू के यहाँ गर्मियों की छुट्टियाँ गुजारने गयी थी। उनके सईस की माँ जिसको हम सब छिद्दा की माँ कहते थे, पंखा झलने पर नौकर थी। वह पंखा झलती रहती थी, और बातें करती जाती थी। एक दिन वह मुमानी जान से कहने लगी “हुजूर छिद्दा को चार दिन की छुट्टी दे दो! वह गाम जाने के रहो है।”

“अभी तो गया था। अब रोज-रोज छुट्टी।” मुमानी जान जो आधी सो चुकी थीं, बिगड़ कर बोलीं, “क्‍यूँ जा रहा है?”

“एं अब कहा बताऊँ हुजूर। मेरा छोटा देवर आयो है। वह कहता है कि छज्जू की विधवा को घर में डाल लियों। घर की मिट्टी (औरत) घर में रहें तो अच्‍छों है।”

“अब कितनी जोरुवें यह छिद्दा घर में डालेगा।”

“या में छिद्दा का कहा दोस है। वह की तकदीर ही खराब है अब पिछली तो ससुरी…।”

“मेरे लिए तो सब की सब खराब है। जो बहू आती है कीड़े डालती है। किसी बहू को नहीं टिकने देती।” मुमानी जान ने कहा। “जा छुट्टी-ऊट्टी कुछ नहीं मिलती।”

छिद्दा की माँ चुप हो गयी। लेकिन जब मुमानी जान आँखें बन्‍द करने लगी तो बोली, “बेगम साहब मैं साँची कहूँ हूँ वह दारी जो टट्टी जाकर हाथ तलक नाहीं धोए थी। दस बार तो मैंने वा को मारा होगा।”

“और सौ बार बेटै से पिटवाया होगा।”

“ऐ ना बेगम साहब।” छिद्दा की माँ ने इठला कर जवाब दिया।

जब वह ऐसे बोलती थी तो तीन पीले-पीले दाँत बाहर निकल पड़ते थे और उसका बदसूरत चेहरा और भी डरावना हो जाता है।

“कैनेटमा तो थी ही बेगम साहब। रात को वा की माँऊ देखकर डर लगे हो।”

“हाँ तो बड़ी सुन्‍दर परी है। अपनी सूरत कभी आइने में देखी है। चुड़ैल।” मुमानी जान हँस पड़ी। “खुद तो बिल्कुल भूतनी की सूरत है। बच्‍चे तक देख कर डर जाते हैं। लगी है दूसरों की सूरत को बुरा कहने। सच कहती हूँ आयशा ऐसा भोला मुँह था उस बेचारी का।”

बुढ़िया हँसी और पंखे का हाथ बदल कर बोली “ऐ तो हुजूर। बहू की सूरत देखी जाय है या वा के गुण। जा लुगाई के बच्‍चा न हो वा हा रख के कहा ठेलवा खिलाना है। लुगाई जब प्‍यारी जब लल्‍ला जने और भैंस जब प्‍यारी जब पड़या जने।”

“कुल तीन महीने तो वह बेचारी तेरे घर रही और बच्‍चा काहे को हाथी हो जाता चल सोने दे मुझे।”

छिद्दा की माँ अपनी बात पर अड़ी रही और बोली, “तो हुजूर कल छिद्दा चलो जाय ना?”

मुमानी जान उठ बैठीं। सुराही में से पानी निकालकर पिया और फिर लेट कर बोलीं, “पिछले कुछ सालों में आठ दस ब्‍याह तो तू छिद्दा के रचा चुकी है। हर किसी में ऐब निकाल देती है। तेरा बस चले तो तू बहू लाये ही न बिरादरी के डर से ले तो आती है पर किसी बदनसीब को टिकने नहीं देती। सौतनों से ज्‍यादा जलती है।” बिगड़ कर कि “आखिर मामला क्‍या है। कान खोल कर सुन ले और छिद्दा को भी सुना दीजियो कि जो इस बार औरत को छोड़ा तो मैं खड़े-खड़े घर से निकाल दूँगी।”

बुढ़िया ने फिर हाथ बदला और इठला कर बोली, “बाह बाह बेगम साहब कहीं बहुओं के पीछे अपनो छोरो छोड़ देवेगी। छिद्दा तेयारो अपनो छोरा है जैसे या को बाप ने मर कर तेयारी देली छोड़ी वैसे ये भी छोड़ेगो।”

मुमानी जान खुश हो गयी और आँखों पर से हाथ उठा कर बोली, “तो फिर कब जायेगा।”

बुढ़िया ने बाजी जीत कर कहा, “जब तुम्‍हारों हुक्‍म होए गो।”

“कल तो भाई जान आ रहे हैं। गाड़ी चाहिए होगी। परसों चला जाये। छुट्टी दो दिन से ज्‍यादा नहीं मिल सकती। ज्‍यादा दिन लगाये तो तनख्‍वाह (पगार) काट लूँगी। हर बार का यह किस्‍सा मुझको पसन्‍द नहीं। ना मालूम कितनी औरतें कर चुका है और तू कुटनी किसी को नहीं टिकने देती। छिद्दा तो मिट्टी की जो यह चुड़ैल कहती है वह करता है…।”

बुढ़िया फूल गयी और बोली, “ऐ ना हुजूर। पहली तो ब्‍याहता ई कनेठी। वह बढ़े ना ही। वा के संग छोरियों की गोद में दो-दो पूत और वाह के मेरी सौत के चूहे का बच्‍चा भी ना हीं।”

“उसी कमबख्‍त का तो तुझ पर सबर पड़ा है। अच्‍छा हुआ तेरे यहाँ चेारी हो गयी। उस बेचारी को तो तूने वह वह मारा है।”

“मैं साँची कहूँ। बेगम साहब वा को तो मैं क्‍यूँ न निकालती। वा के बाप ने बड़ो धोको कियो हम तई। सावन को लिवाय लै गयो। फिर भेजी ई नाहीं। ओ दूसरी जगह बिठाए दई।”

“अच्‍छा किया तुझसे तो बची। निरनया की बहू कह रही थी कि अब तो उसकी गोद में लौंडा है।” मुमानी जान ने कहा।

“बारी पर के राज घाट के मेला में मिली रही। मो को देख के अपने मुँह को फेर लियो। मैं तो वा को और वा के बाप का कैद कटा देती। धरवा के कराओं देल सौ रुपया दियौ। तब कहीं जाय के हुक्‍कों पानी खोलो। हँसी खेल थोड़ी रहा।”

“वह! ऐ हुजूर वा को तो नाम न लो। विन तो आते ही छिद्दा के बाप को डस लियो।”

“क्‍यूँ क्‍या वह साँप थी? मैं बिना बोले न रह सकी।”

“ऐ बीबी। साँप के काटे का तो मन्‍तर है। पर डाइन को नाईं।”

“कैसे डस लिया उसने।” दिलचस्‍पी से पूछा।

“ऐ बीबी तुम का जानो यह बातें। तुम पाठशाला में पढ़ो वह तो चुड़ैल रही चुड़ैल। वा के आने के तीन ही दिन बाद छिद्दा के बाप को ऐसी बुखार चढ़ो कि फिर उतरो ही ना। तीन अठवारों में चल बसो।” छिद्दा की माँ ने बिसोरते हुए और आँसू पोछते हुए कहा।

“चल चुड़ैल कहीं की।” मुमानी जान आधी नींद में बोली।

“जो वा न बाए डसो तो ऐसी ई मर गयो? जाई बखत वा चौखट चढ़ी वाई वखत विन के मूड़ दुखयों, दो तीन दिनों तो पड़े छटपटात रहे फिर बुखार चढ़ आयो। कोई जगत नाए ऊतरी। सब जतन कियों बेगम साहब ने दवा खाने के डाक्‍टर साहब को भी दिखायो। सहर का कोई सयानों नाहीं छोड़ो जो आयो यही कहत आयो कोई डायन चपट गयी है।”

“चल बुढ़िया डायन ऐसी बेवकूफ तो नहीं है। खाती तो मुझे खाती। उस बेचारे को खा कर क्या फायदा था। उसका तो मीआदी बुखार था। कितनी मैंने इन कमबख्‍तों से कहा अस्‍पताल ले जाओ लेकिन तुम लोग कभी किसी की सुनते हो?”

“मीआदी ना हयो। उनको तो वही डायन डस गयी।” ठंडी साँस भर कर फिर बोली, “ऐ बीबी तुम लोग यह बातें का जानो जब बुखार उतरों ही ना और सयाने उनने पूछें कि तोको कुछ देखे पड़तो है तो वह बतलाए कुछ नायों दिखता। ऐसी जुल्‍मी डायन रही कि बिन को मुँह भी कील दियो! पिछले तीन चार दिनों में तो जो हाल हो गयो कि जब वह कुठरया में घुसें और वह चीखें और खटया पर से उठ कर भागें जो वे चली जाय तो चुप चाप पड़ जाये। मैं का जानूँ मैं कहूँ अरी-री बहू तनिक वह दूध उठाए ला! जूँ ही वह अभागन दूध का कटोरा लाए वह ऐसो एक हाथ मारें कि दूध जा के पड़े! जो मैं दीयूँ तो चुप्‍पी चाप पी लें और जो ऊ पानी भी दे तो चीख पड़े डर जाएँ। और बीबी का कऊँ छिद्दा पे तो मेरी सौत ऐसो जादू कियो कि वा को तो बस अन्‍धा कर दियौ। हर बखत वाई की माला जपने लागो। मैं जाऊ एक को तो तू खाए गई अब किस-किस को और डसेगी। मोको तो रातो नींद ना आए फिर मैं चुप्‍पे में छिद्दा से बतलाई मटरू के धरे गयी। बड़ा हुसिया सयानों है। मैं वा के पाँव पे गिरी और कहन भइया मारे छोरा की जान बचाए। मैं तेरा बड़ो गुन मानूँगी एक रुपया तो तू बा ने वखत ई लै लियौ। मैंने कहन जाए बिना वो डायन घर से निकसेगी ई बिना तू को एक और देऊँगी।”

“तो फिर कैसे निकाला तू ने?” मैंने पूछा।

“बड़े-बड़े जतन किये बड़ी मुश्किल से छिद्दा को अकीन आयो। वाका नाम ले ले कर मोसे अब भी लड़ने बैठो जात है।”

“आखिर क्‍या जतन किये थे?” मैंने पहले कभी ऐसी बातें ना सुनी थी। मेरे लिए तो बुढ़िया की बातें आलिफ-लैला की कहानियाँ थीं।

“ऐ बीवी अब क्‍या बताऊँ।”

“अरी बता ना।” मैंने खुशामद की।

“जो जो मटरू ने बताओं वई किया। और का करती।” छिद्दा की माँ ने फिर टाला।

“आखिर मटरू ने क्‍या कहा था?” मैं भी पीछे पड़ गयी।

बुढ़िया हँसी, बोली, “बड़ बड़ शाह के मजार पर दोना चढ़वाए। वा ने एक सुरमा भी दियो कि छिद्दा में बिना बतलाए लगाये दाजियो।”

“फिर छिद्दा को डायन असली रूप में दिखने लगी थी?”

“वह सुरमा गलती से डायन ने लगाय लियो और छिद्दा और दीवाना होंय गयो, लगो उल्‍टा मोको मारने। मैं फिर मटरू के पास गयी तो बोलो यह साली सीधे सीधे नाय जायेगी एक पु‍ड़िया उसने मोको दी और कहन कि चुप्‍पे से छिद्दा को फँकाय दीजियो। ऐ बीवी, वा पुड़िया का फाँकी की छिद्दा के पेट में दर्द उट्ठा और खून की कै होने लगी। मटरू ने मोको चीथड़न की गुड़िया भी दी। वा गुड़िया के चारों ओर सुइयाँ छिदी रही। मटरू ने कहन आँख बचा कर रख दीजियो। और फिर बैठ के हल्‍ला मचाय दियो। लोगों देखों डायन जादूगरनी है। एक को तो खाय गयी अब दूसरे को भी ले चली। अब कि बेड़े के सब नौकर आए गये। सब खड़े-खड़े वा गुड़िया देखें और छिद्दा काहे। बेटा ऐसी औरत को घर में नाय रख। वा बखत तो छिद्दा भी डर गयो और अपने चाचा के संग वाही दम मेरी सौत को वा के पीहर लौटा आयो।”

जरा सुन आयशा इस की बातें अव्‍वल नम्‍बर की बदमाश है। खुद अपने हाथ से बेटे को जहर दिया। इसकी जान के लाले पड़ गये थे वह तो तुम्‍हारी मामू जान ने धमकी दी कि बतलाता हूँ पुलिस को। जब कहीं यह दवाखाने ले गयी थी।”

“दो अठवारो वहाँ रहा। साँची कहूँ बीबी सफा खाने छिद्दा पूरे पन्‍द्रह दिना रहा।” छिद्दा की माँ ने इस तरह कहा कि जैसे छिद्दा दो हफ्ता कब्र में रहा हो।

“मरने में कसर क्‍या रह गयी थी। वह तो कहो तुम्‍हारे मामूजान की भाग-दौड़ ने बचा लिया।”

“नाई बेगम साहब मरतों तो कैसे। मोको तो मटरू ने पहले बताय दिया हो।” बु‍ढ़िया ने पूरे विश्वास के साथ कहा।

“अच्‍छा ठहर तो कमबख्‍त जो आज मैंने छिद्दा से ना कहा। लो मुझको यह मालूम ही न था कि तुझ बदजात ने उसको जहर दिया था।” मुमानीजान जो अपने नौकरों की जिन्‍दगी में पूरा हस्‍तक्षेप रखती थीं, बिगड़ कर बोलीं।

बुढ़िया हँसी।

“डायन यह कमबख्‍त है या वह निगोड़ी थी?” मुमानीजान ने मुझ से पूछा।

“साँची कहूँ बेगम साहब यह त्‍यारों छिद्दा वा के पीछे बहुत डोलो। वा के गाँव गयो। वा से मिलयो। वा के कराओं को रुपया भी देने को राजी हो यो। पर वही वारी न आयी… वा के पीछे तो मोसे अब भी लड़ बैठे है… मैंने तो कह दिया भइया चाहे मोको मार काट पर मैं इस डायन को तेरे संग न रहने दूँगी।”

“लेकिन वह डायन कैसे हो गयी। मेरी समझ में तो अब तक यह बात आयी नहीं।” मैंने पूछा।

“तुम न समझ सको हो बीवी। वह थी ही डायन।”

“आखिर कैसे।”

“अरे इस जाहिल अनपढ़ से क्‍यूँ बहस करके अपना दिमाग खाली करती हो चलो सब सो जाओ। फिर शाम को उठने में कसमसाती है।” मुमानीजान ने मुझे डाँटा।

चार दिन बाद छिद्दा की नई बहू आ गयी। अच्‍छा भरा-भरा जिस्‍म था, चेचक के दाग मुँह पर थे। पर थी बड़ी हँसमुख। जिन दिन वह आयी उसी दिन छिद्दा की माँ मुमानी के पास सलाम करने को लायी। मुमानी जान ने एक रुपया बहू को देते हुए कहा, “साल में जिसकी तीन बहुएँ आयी कहाँ तक मुँह दिखाई दूँ। मेरा तो दिवाला पिटा जा रहा है। कमबख्‍त अब इसको तो चैन से रहने दीजियो।”

“ऊँ हूँ। सुने बेगम साहब की बातें। मैं निकालूँ या इनके करम?”

अब छिद्दा की बहू दोपहर को बजाय अपनी सास के पंखा झला करती थी। हम दोनों एक दूसरे के लिए अजीब जोड़ थे। एक दूसरे की दुनिया के बिल्कुल अनजान। वह मुझसे कालेज के हालात सुन कर आश्‍चर्य करती थी। और मैं उसकी गाँव की ज़िन्दगी सुन कर हैरान हो जाती थी। हिन्‍दुस्‍तान में रह कर मैं अपने देश से कितनी अनजान थी मुझको छिद्दा की बहू से मिलकर इसका पता चला। मैं और वह दोपहर तक खुसुर-फुसुर करते और मुमानीजान को सोने न देते थे और आधी नींद में हूँ हूँ सोने भी को कहतीं तो कुछ मिनट को हम चुप हो जाते और फिर बातें शुरू कर देते।

मुझे उसकी बातों में बहुत मजा आता था। एक दिन वह आयी उसकी आँखें लाल और मुँह सूजा हुआ था। चूड़ियाँ टूटी हुई और बाह में कई जगह खून जमा सा था। मेरे पूछने पर वह फूट-फूट कर रोने लगी और बताया कि छिद्दा ने उसे मारा है। बुढ़िया ने कई दिनों से हर समय चीखना शुरू कर दिया था और हर समय उसकी बुराई अपने लड़के से करने लगी थी। कभी पकी-पकाई दाल में नमक झोंक देती, कभी रोटियों पर झूठे हाथ मल देती, कभी कुछ काम बिगाड़ देती, कभी कुछ। जब लड़के ने कुछ न कहा तो आज उसने एक नया स्‍वाँग रचा। जैसे ही छिद्दा घर में घुसा तो बुढ़िया ने बहू को पीटना शुरू किया और कहने लगी कि “यह छिनाल… ईदू से हँस रही थी।”

इस बात पर छिद्दा ने भी नई नई बहू को खूब पीटा। छिद्दा की बहू बहुत देर तक रोती है। उसके बाद दो चार दिन तक चुपचाप रही। लेकिन एक खुशी जो विधवा के शोक को समाप्‍त कर नए विवाह ने फिर से जिन्‍दा कर दी थी, जिसकी वजह से हर समय मुस्‍कुराहट और हँसी उसके चेहरे पर रहती थी, इस घटना के बाद एकदम से गायब हो गयी। सास के देखते ही सहम जाती और मुँह फक हो जाता है। रोज-रोज नई-नई बातें इस चालाकी से खड़ी कर देती कि छिद्दा उन पर विश्वास कर लेता और नई बहू की खूब मरम्‍मत करता।

कालेज खुलने पर मैं घर चली आयी। छिद्दा, उसकी माँ और बहू को बिल्कुल भूल गयी। मुमानी जान से भी बड़े दिनों तक भेंट न हो सकी। भाई साहब की शादी हुई तो मुमानीजान हमारे यहाँ आयीं और एक दिन यूँ ही मुझे एकदम से छिद्दा की बहू की याद आयी और मैंने पूछा कि ‘उसकी बहू’ कैसी है। इस पर मुमानी जान हँस पड़ी और बोली, “वह उसको तो छिद्दा ने बेच भी डाला।”

मेरे यह कहने पर कि मुमानी जान आप क्‍यूँ ऐसे आदमी को अपने घर रखती हैं। उन्‍होंने जवाब दिया, “बेटी किस-किस को निकालूँ, धोबी है वह कई बदल चुका है, माली है उसकी यही हालत है, ईदू भी दो को तलाक दे चुका है। इन कमबख्‍तों के यहाँ इस बात का कोई बुरा ही नहीं समझता है। औरतें ही इस देश में इतना सस्‍ती मिल जायें तो क्‍या करूँ। छिद्दा पैदा ही घर पर हुआ है। और फिर सईस अच्‍छा है।”

मैंने पूछा उसकी डायन माँ कैसी है? जिन्‍दा है या मर गई तो उन्‍होंने बताया, “ऐ वह कहाँ मरेगी। हाँ अब जो नई आयी है उसने बुढ़िया का दिमाग ठिकाने लगा दिया।”

बुढ़िया ने अपनी वही हरकतें शुरू की थीं लेकिन यह लड़की बुढ़िया के जोड़ की है। एक दिन पकड़ कर सास की वह मरम्‍मत की कि सब बहुओं का बदला निकाल दिया। और कहने लगी मैं यह देली छोड़कर नाए जाऊँगी। वह और ही रही होंगी न जाने किस की बेटियाँ थी जो चली-चली गयीं। जो तुझे इन घर में रहना है तो ठीक से रह वरना जा अपना रास्‍ता पकड़।

“तीन दिन तक मेरे यहाँ पड़ी रही। जो जो जादू टोटके कर सकती थी किये, अब रहती है भीगी बिल्‍ली बनी हुई और बहू से ऐसा डरती है कि कभी-कभी तो मुझको भी दया आ जाती है।”

“और छिद्दा?”

“वह तो इस बीवी का गुलाम हो गया है। यही तो बुढ़िया से देखा नहीं जाता है। लेकिन बेटी सही बात तो यह है कि औरत-औरत में फर्क होता है।”

रशीद जहाँ
रशीद जहाँ (5 अगस्त 1905 – 29 जुलाई 1952), भारत से उर्दू की एक प्रगतिशील लेखिका, कथाकार और उपन्यासकार थीं, जिन्होंने महिलाओं द्वारा लिखित उर्दू साहित्य के एक नए युग की शुरुआत की। वे पेशे से एक चिकित्सक थीं।