वह बात न मीरा ने उठायी, न ख़ुद उसने। मिलने से पहले ज़रूर लगा था कि कोई बहुत ही ज़रूरी बात है जिस पर दोनों को बातें कर ही लेनी हैं, लेकिन जैसे हर क्षण उसी की आशंका में उसे टालते रहे। बात गले तक आ-आकर रह गई कि एक बार वह फिर मीरा से पूछे – ‘क्या इस परिचय को स्थायी रूप नहीं दिया जा सकता?’ – लेकिन कहीं पहले की तरह फिर उसे बुरा लगा तो? उसके बाद दोनों में कितना खिंचाव और दुराव आ गया था!
पता नहीं क्यों, ताजमहल उसे कभी ख़ूबसूरत नहीं लगा। फिर धूप में सफ़ेद संगमरमर का चौंधा लगता था, इसलिए वह उधर पीठ किए बैठा था। लेकिन चौंधा मीरा को भी तो लग सकता है न? हो सकता है, उसे ताज सुन्दर ही लगता हो। परछाईं उधर यमुना की तरफ़ होगी, इधर तो सपाट धूल में झलमल करता संगमरमर है, बस। इस तपते पत्थर पर चलने में तलुओं के झुलसने की कल्पना से उसके सारे शरीर में फुरहरी दौड़ गई।
तीन साल बाद एक-दूसरे को देखा था। देखकर सिर्फ़ मुसकराए थे, आश्वस्त भाव से – हाँ, दोनों हैं और वैसे ही हैं – मीरा कुछ निखर आयी है, और शायद वह… वह पता नहीं कैसा हो गया है! जाने कितने पूरे-के-पूरे वाक्य, सवाल-जवाब उसने मीरा को मन-ही-मन सामने बैठाकर बोले थे, प्रतिक्रियाओं की कल्पना की थी और अब बस, खिसियाने ढंग से मुस्कराकर ही स्वागत किया था। उस क्षण से ही उसे अपने मिलने की व्यर्थता का अहसास होने लगा था, जाने क्यों। क्या ऐसी बातें करेंगे वे, जो अक्सर नहीं कर चुके हैं? साल-छह महीने में एक-दूसरे के कुशल-समाचार जान ही लेते हैं।
उठे हुए घुटनों के पास लॉन की घास पर मीरा का हाथ चुपचाप रखा था। बस, उंगलियाँ इस तरह उठ-गिर रही थीं, जैसे किसी बहुत नाज़ुक बाजे पर हल्के-हल्के गूँजते संगीत की ताल को बांध रही हों। मीरा ने लोहे का छल्ला डाल रखा था – शायद शनि का प्रभाव ठीक रखने के लिए। उसने धीरे से उसकी सबसे छोटी उंगली में अपनी उंगली हुक की तरह अटका ली थी, फिर हाथ उठाकर दोनों हथेलियों में दबा लिया था। फिर धीरे-धीरे बातों की धारा फूट पड़ी थी।
विजय का ध्यान गया – बड़ी-बड़ी मूँछों वाला कोई छोटा-सा कीड़ा मीरा की खुली गर्दन और ब्लाउज के किनारे आ गया था। झिझक हुई, ख़ुद झाड़ दे या बता दे। उसने अपना मुँह दूसरी ओर घुमा लिया – प्रवेश-द्वार की सीढ़ियाँ झाड़ियों की ओट आ गई थीं, सिर्फ़ ऊपर का हिस्सा दिख रहा था। हिचकिचाते हुए कैरम का स्ट्राइकर मारने की तरह उसने कीड़ा उंगलियों से परे छिटका दिया, नसों में सनसनाहट उतरती चली गई। उंगलियों से वह जगह यों ही झाड़ दी, मानो गन्दी हो गई थी। मीरा उसी तन्मय भाव से अपनी सहेली के विवाह की पार्टी में आए लोगों का वर्णन देती रही – उसने कुछ नहीं कहा। न वहाँ रखा विजय का हाथ हटाया ही। विजय ने एक बार फिर सशंक निगाहों से इधर-उधर देखा और आगे बढ़कर उसकी दोनों कनपटियों को हथेलियों से दबाकर अपने पास खींच लिया। नहीं, मीरा ने विरोध नहीं किया। मानो वह प्रत्याशा कर रही थी कि यह क्षण आएगा अवश्य। लेकिन पहले उसके माथे पर तीखी रेखाओं की परछाइयाँ उभरीं और फिर मुग्ध मुस्कराहट की लहरों में बदल गईं…। एक अजीब, बिखरती-सी, सिमटी, धूप-छाँहीं मुस्कराहट। विजय का मन हुआ, रेगिस्तान में भटकते प्यासे की तरह दोनों हाथों से सुराही को पकड़कर इस मुस्कराहट की शराब को पागल आवेग में पीता चला जाए… पीता चला जाए… गट… गट… और आख़िर लड़खड़ाकर गिर पड़े। पतले-पतले होंठों में एक नामालूम-सी फड़कन लरज रही थी। उस रूमानी बेहोशी में भी विजय को ख़याल आया कि पहले एक हाथ से मीरा चश्मा उतार ले – टूट न जाए। तब उसने देखा, हरियाले फव्वारों-जैसे मोरपंखियों के दो-तीन पेड़ों के पीछे पूरे-पूरे दो ताजमहल चश्मे के शीशों में उतर आए हैं… दूधिया हाथी दाँत के बने-से दो सफ़ेद नन्हे-नन्हे खिलौने…
पता नहीं क्यों, उसे ताजमहल कभी अच्छा नहीं लगा। ध्यान आया, अवांछित बूढ़े प्रहरी की तरह ताजमहल पीछे खड़ा देख रहा है। बातों के बीच वह उसे कई बार भूल गया था, लेकिन दाँतों में अटके तिनके-सा अचानक ही उसे याद आ जाता था कि वे उसकी छाया में बैठे हैं जो महान है, जो विराट् है… जो…? इतनी बड़ी इमारत! इसके समग्र सौन्दर्य को एक-साथ वह कभी कल्पना में ला ही नहीं पाया… एक-एक हिस्सा देखने में कभी उसमें कुछ सुन्दर लगा नहीं। लोगों के अपने ही मन का काव्य और सौन्दर्य रहा होगा जो इसमें आरोपित करके देख लेते हैं। कभी मौक़ा मिलेगा तो वह हवाई जहाज़ से ताज की सुन्दरता के समग्र हो पाने की कोशिश करेगा। कई विहंगम चित्र इस तरह के देखे तो हैं… और तब सारे वातावरण के बीच कोई बात लगी तो है… मगर ये चश्मे के काँचों में झलमलाते, धूप में चमकते ताज…। खिंचाव वहीं थम गया। उसने बड़े बेमालूम-से ढंग से गहरी साँस ली और अपने हाथ हटा लिए, आहिस्ते से।
“नहीं, यहाँ नहीं। कोई देख लेगा…”
यह उसे क्या हो गया…?
सहसा मीरा सचेत हो आयी। उमड़ती लाज छिपाने के लिए सकपकाकर इधर-उधर देखा, कोई भी तो नहीं था। पास वाली लाल-लाल ऊँची दीवार पर अभी-अभी राज-मज़दूर-से लगने वाले मरम्मतिये लोग आपस में हँसी-मज़ाक करते एक-दूसरे के पीछे भागते गए हैं। बन्दर की तरह दीवार पर भाग लेने का अभ्यास है। रविश के पार पड़ोस के लॉन में दो-तीन माली पाइपों को इधर-उधर घुमाते पानी लगा रहे थे – वे भी अब नहीं हैं। खाना खाने गए होंगे। मीरा ने बग़ल से साड़ी खींचकर कंधे का पल्ला ठीक कर लिया। फिर विजय ने अनमने भाव से घास का एक फूल तोड़ा और आँखों के आगे उंगलियों में घुमाने लगा। मीरा ने चश्मा उतारकर, मुँह से हल्की-सी भाप दी और साड़ी से काँच पोंछे, बालों की लटों को कानों के पीछे अटकाया और चश्मा लगाकर कलाई की घड़ी देखी।
बड़ा बोझिल मौन आ गया था दोनों के बीच। विजय को लगा, उन्हें कुछ बोलना चाहिए वरना यह चुप्पी का बोझ दोनों के बीच की किसी बहुत कोमल चीज़ को पीस देगा। हथेली पर यों ही उस तिनके से क्रास और त्रिकोण बनाता वह शब्दों को ठेलकर बोला, “तो फिर अब चलें…? देर बहुत हो रही है…”
मीरा ने सिर हिला दिया। लगा, जैसे वह कुछ कहते-कहते रुक गई हो या प्रतीक्षा कर रही हो कि विजय कुछ कहना चाहता है, लेकिन कह नहीं पा रहा। फिर थोड़ी देर चुप्पी रही। कोई नहीं उठा। तब फिर उसने मरे-मरे हाथों से जूतों के फीते कसे, अख़बार में रखे संतरे और मूँगफली के छिलके फेंके। बैठने के लिए बिछाए गए रूमाल समेटे गए और दोनों टहलते हुए फाटक की तरफ़ चले आए।
तीन का समय होगा – हाथ में घड़ी होते हुए भी उसने अंदाज़ा लगाया। धूप अभी भी बहुत तेज़ थी। एकाध बार गले और कनपटियों का पसीना पोंछा। आते समय तो बारह बजे थे। उस वक़्त उसे हँसी आ रही थी, मिलने का समय भी उन लोगों ने कितना विचित्र रखा है…
जैसे इस समय से बहुत दूर खड़े होकर उसने दुहराया था – बारह… बजे, जून का महीना और ताजमहल का लॉन। वह पहले आ गया था और प्रतीक्षा करता रहा था। उस समय कैसी बेचैनी, कैसी छटपटाहट, कैसी उतावली थी… यह समय बीतता क्यों नहीं है? बहुत दिनों से घड़ी की सफ़ाई नहीं हो पायी, इसलिए शायद सुस्त है। अभी तक नहीं आयी। इन लड़कियों की इसी बात से सख़्त झुँझलाहट होती है। कभी समय नहीं रखतीं। जाने क्या मज़ा आता है इंतज़ार कराने में!
वह जान-बूझकर उधर आने वाले रास्ते की ओर से मुँह फेरे था। उम्मीद कर रहा था कि सहसा मुड़कर उधर देखेगा तो पाएगा कि वह आ रही है। लेकिन दो-तीन बार ऐसा कर चुकने के बाद भी वह नहीं आयी। जब दूसरी ओर मुँह मोड़े रहकर भी वह कनखियों से उधर ही झाँकने की कोशिश करता तो ख़ुद अपने पर हँसी आती। अच्छा, सीढ़ियाँ उतरकर आने वाले तीन व्यक्तियों को वह और देखेगा और अगर इसमें भी मीरा नहीं हुई तो ध्यान लगाकर किताब पढ़ेगा – जब आना हो, आ जाए। एक-दो-तीन! हो सकता है, अगली वही हो। हिश्, जाए जहन्नुम में नहीं आती तो, हाँ तो नहीं!
अच्छा, आओ, तब तक यही सोचें कि मीरा इन तीन सालों में कैसी हो गई होगी? कैसे कपड़े पहनकर आएगी? एक-दूसरे को देखकर वे क्या करेंगे? हो सकता है आवेश से लिपट जाएँ, कुछ बोल न पाएँ। उसके साथ ऐसा होता नहीं है, लेकिन कौन जाने, उस आवेश में…।
आख़िर वह आयी तो उसे पास आते देखता रहा था। हर बार वह इधर से निगाहें हटाने की कोशिश करता कि उसे यों न देखे, पास आने पर ही देखे और हठात् मिलने के थ्रिल को महसूस करे। लेकिन वह देखता रहा था और निहायत ही संयत भाव से बोला था, “नमस्ते मीरा जी!”
झेंपकर मीरा मुस्करा पड़ी थी। धूप में चेहरा लाल पड़ गया था। फिर दोनों इस लॉन में आ बैठे थे – ऐसे अचंचल, ऐसे आवेशहीन, जैसे रोज़ मिलते हों।
“मैंने सोचा, तुम शायद न आओ। याद न रहे।”
“आपने लिखा था तो याद कैसे नहीं रहता? लेकिन टाइम बड़ा अजीब है।”
“हाँ, शरद-पूर्णिमा की चाँदनी रात तो नहीं ही है।” अपने मज़ाक पर वह ख़ुद ही व्यर्थता महसूस करता, गम्भीर बनकर बोला, “इस वक़्त यहाँ ज़रा एकान्त होता है।”
सचमुच अजीब टाइम था – मीरा के साथ एक-एक क़दम लौटते हुए उसने सोचा – ‘दोपहर की धूप और…और दो प्यार करते प्राणी!’
‘प्यार करते प्राणी…’ उसने फिर दुहराया। यह प्यार था? जैसे बरसों बाद मिलने वाले दो मित्र हों, जिनमें बातें करने के विषय चुक गए हों।
सफ़ेद संगमरमर पर धूप पड़ रही थी, चौंधा था इसलिए उधर पीठ कर ली थी। रह-रहकर झुँझलाहट आती – किस शाप ने हमारे ख़ून को जमा दिया है? यह हो क्या गया है हमें? कोई गर्मी नहीं, कोई आवेश और कोई उद्वेग नहीं… क्या बदल गया है इसमें? हाँ, मीरा का रंग कुछ खुल गया है… शरीर निखर आया है…
लौटते समय भी उसकी समझ में नहीं आया कि यह बोझ, यह खिंचाव क्या है… दोनों यों ही घास में काटी हुई लाल पत्थरों की जाली पर क़दम-क़दम टहलते हुए सीढ़ियों तक जाएँगे… फाटक में बैठे हुए गाइडों और दरबानों की बेधती याचक निगाहों को बलपूर्वक झुठलाते, बजरी पर चरचर-चरचर करते हुए तांगे या रिक्शे में जा बैठेंगे… और एक मोड़ लेते ही सब कुछ पीछे छूट जाएगा।… कल वह लिखेगा- “मेरी मीरा, कल के मेरे व्यवहार पर तुम्हें आश्चर्य हुआ होगा। हो सकता है, बुरा भी लगा हो… लेकिन… लेकिन…”
और फिर चश्मे के काँचों में झाँकता ताजमहल साकार हो आया। ‘तुम्हारी पलकों पर तैरते दो ताजमहल’ कितना सुन्दर वाक्य है (यह तो नयी कविता हो गई!) टैगोर ने देखा होता तो ‘काल के गालों पर ढुलक आयी आँसू की बूँद’ कभी न कहते…। कहते- ‘गालों पर ढुलक आए आँसुओं में झाँकते ताजमहल की रुपहली मछलियों-सी परछाइयाँ…’ लेकिन मीरा की आँखों में तो उसे नमी का भी आभास नहीं हुआ था। कितने जड़ हो गए हैं हम लोग भी आजकल! वह कल वाले पत्र में लिखेगा- ‘हक्सले की नकल नहीं कर रहा, जाने क्यों, मुझे ताजमहल कभी ख़ूबसूरत नहीं लगा। लेकिन पहली बार जब मैंने तुम्हारी पलकों पर ताज की परछाईं देखी तो देखता रह गया… पिछले दिनों की एक अजीब-सी बात मुझे याद हो आयी, उस क्षण…’
अरे हाँ, अब याद आया कि क्यों वह अचानक यों सुस्त हो गया था। उस बात को भी कभी भूला जा सकता है? ‘हाँ, मेरे लिए तो वह बात ही थी…’ वह लिखेगा।
उसे लगा, मन-ही-मन वह जिसे ही सम्बोधित कर रहा है, जिसे पत्र लिख रहा है वह साथ-साथ चलने वाली यह मीरा नहीं है। वह तो कोई और है… कहीं दूर… बहुत दू… र…. वही मीरा तो उसकी असली बंधु और सखा है, यह… यह… इससे तो जब-जब मिला है, इसी तरह उदास हो गया है। लेकिन उस मीरा से मिलने का आकर्षण इसके पास खींच लाता है। इसकी तो जाने कितनी बातें हैं, जो उसे क़तई पसन्द नहीं हैं। जैसे? वह याद करने की कोशिश करने लगा, जैसे उसे क्या-क्या पसन्द नहीं है? जैसे इस समय उसे इसी बात पर झुँझलाहट आ रही है कि मीरा नीचे बनी जाली के पत्थरों पर ही पाँव रखकर क्यों नहीं चल रही, बीच-बीच में घास पर पाँव क्यों रख देती है…
और इस सबके पार दोनों कान लगाए रहे कि दूसरा कुछ कहे। एक बात सोचकर सहसा वह ख़ुद ही मुस्करा पड़ा – जब वे लोग बहुत बड़े-बड़े हो जाएँगे; समझो चालीस-पचास साल के, तो हँस-हँसकर कैसे दूसरों को अपनी-अपनी बेवक़ूफ़ियाँ सुनाया करेंगे – कैसे वे लोग छिप-छिपकर ताजमहल में मिला करते थे!
‘चार-पाँच साल हो गए होंगे उस बात को…’ उसके मन के भीतरी स्तरों पर पत्र चलता रहा। यह सब वह उस पत्र में लिखेगा नहीं, वह सिर्फ़ उस बहाने क्रमबद्ध शब्दों में उस सारी घटना को याद करने की कोशिश कर रहा है… वह, देव, राका जी और मुनमुन इसी तरह तो लौट रहे थे, चुप-चुप, उदास और मनहूस साँझ थी इसलिए परछाइयाँ ख़ूब लम्बी-लम्बी चली गई थीं…
अच्छी तरह याद है, सितम्बर या अक्टूबर का महीना था। कॉलेज से आकर चाय का कप होंठों से लगाया ही था कि किसी ने बताया, “आपको कोई साहब बुला रहे हैं।”
वह अनखाकर उठा- कौन आ गया इस वक़्त?
“अरे, आप!”
“पहचाना या नहीं, आपने?”
“अरे साहब, ख़ूब, आपको नहीं पहचानूँगा?”
लेकिन सचमुच उसने पहचाना नहीं था। देखा ज़रूर है कहीं, शायद कलकत्ता में। ऐसा कई बार हुआ है, लेकिन वह भरसक यह जताने की कोशिश करता है कि पहचान रहा है और बातचीत से परिचय के सूत्र पकड़कर याद करने की कोशिश करता है,
“आइए न भीतर…”
“नहीं मिस्टर माथुर, बैठूँगा नहीं। गली के बाहर मेरी वाइफ़ और बच्चा खड़े हैं…” उन्होंने क्षमा चाहने के लहजे में कहा, “आप कुछ कर रहे हैं क्या?…”
“लेकिन उन्हें वहाँ…? यहीं बुला लीजिए न…?”
“नहीं, देखिए, ऐसा है कि हम लोग ज़रा ताज देखने आए थे। याद आया, आप भी तो यहीं रहते हैं। जगह याद नहीं थी, सो एक-डेढ़ घण्टे भटकना पड़ा। ख़ैर, आप मिल गए। अब अगर कुछ काम न हो तो… बात ऐसी है कि हमें आज ही लौट जाना है…” वे सीढ़ी पर एक पाँव रखे खड़े थे, “आप किसी तरह के संकोच में न पड़िए, पाँवों में चप्पल डालिए और चले आइए।”
गली के बाहर गाड़ी खड़ी थी। पीछे का दरवाज़ा खुला था और उसको पकड़े पिछले मडगार्ड से टिकी एक महिला खड़ी थी – गहरी हरी बंगलौरी रेशम की साड़ी, बंगाली ढंग का चौड़ा-चौड़ा जूड़ा और बीचोबीच जगमग करता अठपहलू रुपहला सितारा। मडगार्ड पर छोटा-सा चार-पाँच साल का बच्चा फिसलते जूतों को जैसे-तैसे रोके बैठा था। दोनों बाँहों से उसे सम्भालते हुए वे उसकी कलाई पकड़े छोटी-सी उंगली से धूल-लदे मडगार्ड पर लिखा रही थी – टी-ए-जे। जूतों की आवाज़ से चौंककर मुड़ी और स्वागत में मुस्करायी। बच्चे को सम्भालकर उतारा, फिर दोनों हाथ जोड़ दिए। फिर ख़ुद ही बोली, “देखिए, आपसे वायदा किया था कि…”
“हज़रत आ ही नहीं रहे थे…” वे बीच में ही बात काटकर बोले। फिर सहसा बोले, “अच्छा राका, अब बैठो वरना अन्धेरा हो जाएगा, तो देखने का मज़ा भी नहीं रहेगा।”
राका… राका… हाँ, कुछ याद तो आ रहा है। ड्राइवर की बग़ल में बैठकर उसने एकाध बार घूमकर देखा, जैसे यहीं कहीं उनका नाम भी लिखा मिल जाएगा।
“कैसे हैं? बहुत दिनों बाद मिले हैं। याद है आपको, कलकत्ता में हम लोग मिले थे…? उस दिन हम लोगों ने आपको कितनी देर कर दी थी!”… सुनहला रंग, कानों में गोल कुण्डल, बहुत ही बेमालूम-सी लिपस्टिक। साड़ी का पल्ला साधने के लिए खिड़की पर टिकी हुई कुहनी…
अरे हाँ, अब याद आया- इनसे तो मुलाक़ात बड़े अजीब ढंग से हुई थी। न्यू मार्केट के एक रेस्तराँ में बैठा वह शौक़िया अपनी-अपनी संगीत-कला का प्रदर्शन करने वालों को देख रहा था। फिर जाने क्या मन में आया कि ख़ुद भी उठकर माउथ-ऑरगन पर देर तक सिनेमा के गीतों की धुनें निकालता रहा। उस छोटे-से मंच से हटकर जिस मेज़ पर यह बैठा था, उसी पर बैठे थे ये लोग, यह राका जी और मिस्टर… क्या? हाँ, मिस्टर देव।
“सचमुच आपने बहुत ही सुन्दर बजाया। बड़ी अच्छी प्रैक्टिस है।” देव ने उसके बैठते ही कहा। रूमाल से बाजे को अच्छी तरह पोंछकर जेब में रख ही रहा था कि चौंक गया। राका के चेहरे पर प्रशंसा उतर आयी थी और यों ही कप के ऊपर हथेली टेके, वह एकटक मेज़ को देख रही थी।
“आपकी चाय तो पानी हो गई होगी। और मँगाए देते हैं। बैरा, सुनो इधर…”
उसके मना करने पर भी चाय और आयी।
“छुट्टियों में घूमने आए हैं…? अच्छा, कैसा लगा कलकत्ता आपको… जी हाँ, गन्दा तो है बम्बई के मुक़ाबले… लेकिन एक बार मन लग जाने पर छोड़ना मुश्किल हो जाता है…”
फिर प्रशंसा, कृतज्ञता का आदान-प्रदान, परिचय और रात देर तक उनके लोअर सर्कुलर रोड के फ़्लैट पर बातें, खाना, कॉफ़ी और संगीत। राका को सितार का शौक़ है। देव किसी विदेशी कम्पनी के इंचार्ज मैनेजर की संगति में विदेशी सिम्फनियाँ पसन्द करते हैं। उसका माउथ-ऑरगन सुनने के बाद राका जी ने सितार सुनाया था और फिर देव निहायत ही ख़ूबसूरत प्लास्टिक के लिफ़ाफ़ों में बन्द अपने विदेशी रिकॉर्ड निकाल लाए थे। एक-एक रिकॉर्ड आध घण्टे चलता था और उसमें तीन-तीन कम्पोजीशंस थे। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आया था, लेकिन वह बैठा लिफ़ाफ़ों पर लिखे हुए परिचय और संगीतज्ञ की तस्वीर को ज़रूर ग़ौर से देखता रहा था। कोई चायकोवस्की या कुछ बेंगर था जिसका नाम वे बार-बार लेते थे। एक-एक रिकॉर्ड चालीस-पचास रुपये का था। बीच-बीच में, “कभी ज़रूर आएँगे आगरा। बहुत बचपन में एक बार देखा था, शायद दिमाग़ में जो नक़्शा है उससे मेल ही न खाए। शादी के बाद एक बार देखने का प्रोग्राम बहुत दिनों से बना रहे हैं। ये तो हर छुट्टी में पीछे पड़ जाती हैं। जी नहीं, इन्होंने नहीं देखा… इधर ही रहे इनके फ़ादर वग़ैरा सब। अब तो गाड़ी पर ही विवेकानन्द रोड तक छोड़ने आए थे। रास्ते-भर क्षमा माँगते हुए अपनी सितार की गूँज और सिम्फनी की कोई डूबती-सी दर्दीली कराह उसे अभिभूत किए रही… कैसे अजीब ढंग से परिचय हुआ है, कितना सुखी जोड़ा है उसे बहुत ही ख़ुशी हुई थी। बच्चा बाद में आया, नाम है मुनमुन।”
देव बता रहे थे, “नुमाइश में हमारा स्टाल आया है न, सो हम लोग भी दिल्ली आए थे। सोचा, इतने पास से, यों बिना देखे लौटना अच्छा नहीं है। आपको यों ही घसीट लाए, कोई काम तो…”
“नहीं, नहीं…” जल्दी से कहा।
उसे और तो सब बातें याद आ रही थीं, लेकिन यह याद ही नहीं आ रहा था कि इन मिस्टर देव के आगे-पीछे क्या लगता है। बड़ी बेचैनी थी। कैसे जाने? बस, उस मुलाक़ात के बाद फिर कभी भेंट नहीं हुई। याददाश्त अच्छी है, इन लोगों की, “आपने याद ख़ूब रखा…” सोचा, उस मुलाक़ात में ऐसी कोई ख़ास बात भी तो नहीं थी।
“जब भी हम लोग ताज की बात करते, आपकी याद आ जाती। और कोई दिन ऐसा नहीं गया, जब ताज की बात न आयी हो…” फिर राका जी की ओर देखकर ख़ुद ही बोले, “आज हमारे विवाह को सातवाँ वर्ष पूरा हुआ है…आपके सामने यह मुनमुन नहीं था…”
“मुनमुन, तुमने अंकल जी को मत्ते नहीं किया? कहो, अंकल जी, आज हमाले पापा-डैडी के विवाह की सातवीं वर्षगाँठ है…” राका जी उसके हाथ जुड़वाती बोली, “बहुत ही शैतान है। मुझे दिन-भर ख़याल रखना पड़ता है कि किसी दिन कुछ कर-करा न ले।”
“तब तो आपको बधाई देनी चाहिए…” लेकिन इस सबके पार विजय को लगा, कहीं घुटन है जो अदृश्य कुहरे की तहर गाढ़ी होती हुई छायी है। रहा नहीं गया, पूछा, “आप कुछ सुस्त हैं। तबियत…”
“नहीं जी।” उन्होंने दोनों हाथ उठाकर एक क्लिप ठीक किया और स्वस्थ ढंग से मुस्कराने का प्रयत्न करके कहा, “गाड़ी में बैठे-बैठे पाँच घण्टे हो गए। एक घण्टे से तो यह आपको ही खोज रहे हैं…”
“च्चू, सचमुच बहुत ज़्यादती है यह तो आपकी।” कृतज्ञ भाव से वह बोला, “कम-से-कम मुँह-हाथ तो धो ही लेतीं राका जी।”
“सब ठीक है – लौटना भी तो है न आज ही।”
फिर सभी ने ख़ूब घूम-घूमकर ताज देखा था। मुनमुन का एक हाथ देव के हाथों में था और एक राका जी के। कभी-कभी तो तीनों आपस में ही ऐसे व्यस्त होकर खो जाते कि विजय को लगता- वह बेकार ही अपनी उपस्थिति से इनके बीच विघ्न बना रहा है। ऊपर इमारत के सफ़ेद-काले चबूतरे पर देव बड़ी देर तक पैसा लुढ़काकर उसके पीछे भागते और बच्चे को खिलाते रहे, और विजय के साथ-साथ राका जी जालियों की बनावट, दरवाज़े पर लिखी क़ुरान की आयतें और बूटों की नक़्क़ाशी देखती रहीं। साँझ की पीली-पीली सुहानी धूप थी। लॉनों की नरमी साँवली हो आयी थी, मोरपंखी और चौड़े-चौड़े ताड़ जैसे पत्तों के गुम्बदाकार कुँज मोमबत्ती की हरी-सुनहली लौ जैसे लगते थे – जैसे आनन्द में फूले-फूले कबूतर हों और अभी हुलसकर फुरहरी ले लेंगे तो चिनगारियों की तरह सुर्ख़ फूल इधर-उधर बिखर पड़ेंगे। वे लोग भी क़ब्रों के पास अपनी आवाज़ गुँजाते रहे – कैसी लरजती-सी तैरी चली जाती है। जैसे बहुत ही महीन रेशों का बुना हुआ, घड़ी में लगे बाल-स्प्रिंग की तरह बड़ा-सा वर्तुलाकार कुछ है जो कभी सिकुड़कर सिमट उठता है। देव की आवाज़ थी, “राका… रा का-ा… रा…” एक-दूसरे पर चढ़ते चले जाते शब्द… दूर खोते हुए किन्हीं अनजानी घाटियों की तलहटियों में ‘मुनमुन मु उ-उ न-अ-अ…’ देव देर तक डूबे हुए इस खेल को खेलते रहे थे। लगता था, उनके भीतर है कुछ, जो इस खेल के माध्यम से अभिव्यक्ति पा रहा है। वह राका या मुनमुन का नाम ले देते और देर तक अन्धेरे में इन शब्दों को डूबता-खोता देखते रहते – जैसे हाथ बढ़ाकर उन्हें वापस पकड़ लेना चाहते हों। उन्हें क़ब्रों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। बड़ी देर बाद, बहुत मुश्किल से जब वे उस वातावरण से टूटकर बाहर निकले तो बहुत उदास और खोए-खोए थे। विजय के पास से मुनमुन को लेकर ज़ोर से उसे छाती से भींच लिया।
बाहर निकलकर आए तो देखा कि नदी किनारे वाली बुर्जी के पास राका जी चुपचाप दूर शहर और लाल पुल की ओर देखती खड़ी हैं। सिन्दूरी आसमान के गहरे सिलेटी बादल नदी के चौखटे में वाश-कलर की तरह फैल गए हैं। बुर्जी से लेकर बीच के मक़बरे तक चबूतरे की काली-सफ़ेद शतरंजी को सिमटती धूप ने तिरछा बाँट लिया है… हवा में साड़ी उनके शरीर से चिपक गई है और कानों के ऊपर की लटें उच्छृंखल हो आयी हैं। देव बहुत देर तक उन्हें यों ही देखते रहे, जैसे उन्हें पहचानते ही न हों। और उस सारे वातावरण में, सफ़ेद पत्थर के उस विराट क़ैदख़ाने में जैसे किसी अभिशप्त जलपरी को यों भटकने के लिए छोड़ दिया गया हो…। यह जगह, यह वातावरण है ही कुछ ऐसा। विजय ने अपने-आपसे कहा और जान-बूझकर दूसरी तरफ़ हट गया। शायद राका जी मुमताज के प्रेम की बात सोच रही हों, अपने मरने के बाद अपनी ऐसी ही यादगार चाहती हों या कुछ भी न सोच रही हों – बस, पुल से गुज़रती रेल की खिड़की से झाँकती हुई, ताज को देखकर सौन्दर्य और कल्पना की स्तब्ध ऊंचाइयों में खो गई हों…
अपनी छाती तक ऊँची पीछे की दीवार से मुनमुन नदी की ओर झाँकता हुआ हाथ हिला-हिलाकर नीचे जाते बच्चों को बुला रहा था। कौवे काँव-काँव करने लगे थे। मुनमुन के पास वह संगमरमर की दीवार पर झुककर हथेलियाँ टेके सामने की धारा और पेड़ों की घनी पाँतों को देखता रहा। जाने कब देव भी बराबर ही आ खड़े हुए… काफ़ी देर हटकर उसी तरह बुर्जी के पास झुकी राका जी… हवा में फहरती साड़ी को एक हाथ से पकड़कर रोके हुए…
“भीतर की आवाज़ और गूँज को सुनकर बड़ी अजीब-सी अनुभूति होती है… होती है न? जैसे जाने किन वीरान जंगलों और पहाड़ों में आपका कोई बहुत ही निकट का आत्मीय खो गया है और आपकी निष्फल पुकारें टूट-टूटकर उसे गुहराती चली जाती हैं… चली जाती हैं और खो जाती हैं…। न वह आत्मीय लौटता है और न आवाज़ें – जैसे युगों से किसी की भटकती आत्मा उसे पुकारती रही हो और वह है कि गूँजों और झाइयों में ही घुल-घुलकर बिखर जाता है… डूब जाता है… बिलमता है और साकार नहीं हो पाता…”
नदी में ताज की घनी-घनी परछाईं लहरों में टूट-टूट जाती थी… अनजाने ही देव की आँखों में आँसू भर आए।
“ऐसा ही होता है, ऐसे वातावरण में ऐसा ही होता है।” विजय ने अपने-आपसे कहकर मानो स्थिति को शब्द देकर समझना चाहा, “जब कोई किसी को बहुत प्यार करे, बहुत प्यार करे, और फिर ऐसी ख़ूबसूरत मनहूस जगह आ जाए तो कुछ ऐसी ही अनुभूतियाँ मन में आती हैं… अभी लॉन पर चलेंगे, मुनमुन के साथ किलकारियाँ मारेंगे – सब ठीक हो जाएगा…”
देव ने सुना और गहरी साँस लेकर बड़ी कातर निगाहों से विजय की ओर देखा। कुछ कहते-कहते रुक गए। और दोनों चुपचाप ही टहलते हुए सामने की ओर आ गए… मुनमुन राका जी के पास चला गया था। नीचे की सीढ़ियाँ उतरते-उतरते सहसा ही देव ने विजय के कंधे पर हाथ रख दिया था। कुछ कहने को होंठ काँपे, “आपको पता है मिस्टर विजय…!” विजय स्वर और मुद्रा से चौंक गया था।
“नहीं… कुछ नहीं…” ऊपर हरी साड़ी की झलक दिखी और फिर दोनों सीढ़ियाँ उतर आए। जूते पहनते हुए बोले, “आपको ताज्जुब तो बहुत होगा कि हम यों अचानक आपको लिवा लाए…”
“नहीं तो, इसमें ऐसी क्या बात है?” विजय ने शिष्टता से कहा।
“हाँ, बात कुछ नहीं है, लेकिन बहुत ही बड़ी बात है।” फिर गहरी साँस।
अब विजय को लगा कि सचमुच कोई बहुत बड़ी बात है जो देव के भीतर से निकलने के लिए छटपटा रही है। तब पहली बार उसका ध्यान उस स्थिति की विचित्रता की ओर गया। बीच के चबूतरे तक दोनों बिल्कुल चुप रहे… चबूतरे के ख़ूबसूरत कोनों वाले हौज में आग लग गई थी… गहरे साँवले आसमान में लाल-लाल गुलाबी बादलों के बगुले उतर आए थे। उल्टे ताज की परछाईं दम तोड़ते साँप-सी इनके क़दमों पर फन पटक-पटककर लहरा रही थी। धूप ऊपर बुर्जियों पर सिमट गई थी। उस पर आँखें टिकाए देव बड़ी देर तक यों ही देखते रहे। सामने मुनमुन को लिए राका जी चली आ रही थीं, लेकिन जैसे कोई किसी को नहीं देख रहा हो- हाँ, विजय कभी उसे और कभी इसे या मशक लेकर आते भिश्ती को देखता रहा। टप-टप बूँदों की सर्पाकार लाइनें उसकी उंगलियों से टपक रही थीं। बड़े साहस से शब्दों को धकेल-धकेलकर देव बोले,
“यह सारी स्थिति… यह… यह टूट जाने की हद तक आ जाने वाला चरमराता तनाव… मौत के पहले के ये क़हक़हे औपचारिकता का वह बर्फ़ीला कफ़न… शायद हममें से कोई इसे अकेला नहीं सह पाता… कोई एक चाहिए था जो इसकी ओर से हमारा ध्यान हटाए रखे… इस समाप्ति का गवाह बन सके।”
“मैं समझ नहीं सका, मिस्टर देव…” घबराकर विजय ने पूछा था।
बूटों के दोनों पंजों पर ज़रा-सा मचककर देव निहायत ही इतमीनान से धीरे से हँसे। “आप… आप-विजय साहब, यह हमारी आख़िरी संध्या है…” और विजय के कुछ पूछने से पहले ही उन्होंने कह डाला, “मैंने और राका ने निश्चय किया है कि अब हम लोगों को अलग ही हो जाना चाहिए… दोनों तरफ़ से शायद सहने की हद हो गई है… नसों का यह तनाव मुझे या उसे पागल बना दे, या कोई ऐसी-वैसी बेहदूगी करने पर मजबूर करे, इससे अच्छा हो कि दोनों अलग ही रहें। चाहे तो वह किसी के साथ सैटिल हो जाए। वह मुनमुन को रखना चाहती है, रखे। वैसे जब भी वह उसे बाधक लगे, निस्संकोच मेरे पास भेज दे…”
विजय का सिर भन्ना उठा। वह चुपचाप हौज की गहराई से तड़पती ताज की परछाईं पर निगाहें टिकाए रहा।
“लेकिन आप दोनों…” विजय ने कहना चाहा।
देव ने हाथ फैलाकर रोक दिया, “वह सब हो चुका। सारी स्थितियाँ ख़त्म हो गईं। हमने तय किया कि क्यों न अपनी अन्तिम संध्या हँसी-ख़ुशी काटें… मित्र बने रहकर ही हँसते-हँसते विदा लें…” फिर कुछ देर तक चुप रहकर कहा, “राका की बड़ी इच्छा थी कि ताज देखे, शादी की पहली रात उसने चाहा था कि हनीमून यहाँ ही हो… लेकिन… लेकिन…” फिर हाथ झटक दिया, “अजब संयोग है न? लेकिन…”
लेकिन विजय को लगा था जैसे किसी डैम की रेलिंग पर झुका खड़ा है और नीचे से लाखों टन पानी धाड़-धाड़ करता गिरता चला जा रहा है… गिरता चला जा रहा है… और उसका सिर चकरा उठा। नहीं, उससे किसी ने कुछ भी नहीं कहा। यह सब तो सिर्फ़ वह कल्पना कर रहा है। कहीं ऐसी अविश्वसनीय बात… ध्यान उसका टूटा देव की आवाज़ से, “उसे रोको राका, माली वगैरह मना करेंगे…नहीं मुनमुन!”
स्वर बहुत मुलायम था। और फिर देव ने दौड़कर प्यार से मुनमुन को दोनों बाँहों में उठा लिया और उसके पेट में अपना मुँह गड़ा दिया… मुनमुन खिलखिलाकर हँस पड़ा… आँखों में लाड़-भरे राका जी मुस्कराती रहीं। नहीं, अभी जो कुछ उसने सुना था, वह इन लोगों के आपसी सम्बन्धों के बारे में नहीं था – हो नहीं सकता।
बहुत बार विजय ने राका जी का चेहरा देखना चाहा, लेकिन लगा वे इधर-उधर के सारे वातावरण को ही पीने में व्यस्त हैं। चिड़िया चहचहाने लगी थीं…
इन्हीं जालियों पर इसी तरह तो वे लोग चल रहे थे कि पास आकर धीरे से देव ने कहा था, “राका से कुछ मत पूछिएगा!”
क्या पूछेगा वह राका जी से…?
“सॉरी, आपको यों घसीट लाए हम लोग…”
और इस बार कातर निगाहों से देखने की बारी विजय की थी… इतना ग़लत समझते हैं आप…
चार-पाँच साल हो गए, लेकिन बात कितनी ताज़ा हो आयी है… वह, देव, राका जी और मुनमुन इसी तरह तो लौट रहे थे, चुपचाप, उदास और मनहूस…साँ झ का बज़रा रात का किनारा छूने लगा था। जैसे किसी वर्षों की तूफ़ानी यात्रा से वे तीनों लौटकर आ रहे हों। पेड़ों और इमारतों की परछाइयाँ ख़ूब लम्बी-लम्बी चौड़ी धारियों की तरह पीछे चली गई थीं… कुँजों और लॉन की हरियालियाँ अजीब टटकी-टटकी हो उठी थीं… हरियाली के सुरमई धुन्धले काँच पर सफ़ेद फूल छिटक आए थे…
मीरा के चश्मे के काँचों में झाँकती परछाईं को देखकर, जाने क्यों उसे वही याद ताज़ा हो गई थी… वही ताज जो उस दिन हौज में मानो आसमानी जार्जेट के पीछे से झाँक रहा था और अपने-आपसे लड़ते हुए देव उसे बता रहे थे।… आज अगर देव होते तो क्या जवाब देता…? तो क्या वे भी उसी तरह अलग हो रहे हैं…?
सहसा चौंककर उसने मीरा को देखा। उसे लगा, जैसे उसने कुछ कहा है, “कुछ कह रही थीं क्या?”
“मैं?… नहीं तो।” फिर वही मौन और घिसटती उदासी का कम्बल।
लगा, जैसे कोई मुर्दा-क्षण है जिसका एक सिरा मीरा पकड़े है और दूसरा वह, और उसे चुपचाप दोनों रात के सन्नाटे में कहीं दफ़नाने के लिए जा रहे हों… डरते हों कि किसी की निगाहें न पड़ जाएँ – कोई जान न ले कि वे हत्यारे हैं… कहीं किसी झाड़ी के पीछे इस लाश को फेंक देंगे और ख़ुशबूदार रूमालों से कसकर ख़ून पोंछते हुए चले जाएँगे… भीड़ में खो जाएँगे…। जैसे एक-दूसरे की ओर से देखने में डर लगता है… कहीं आरोप करती आँखें हत्या स्वीकारने को मजबूर न कर दें…
बाहर वे दोनों ताँगा लेंगे… झटके से मोड़ लेता हुआ ताँगा ढाल पर दौड़ पड़ेगा और ताजमहल पीछे छूटता जाएगा… और फिर ‘अच्छा’ कहकर सूखे होंठों के भरे स्वर पर मुस्कराहट का कफ़न लपेटकर दोनों एक-दूसरे से विदा लेंगे…।