किलकारियाँ सिसकियों में बदल रही हैं,
अब वो बड़ी हो रही है,
मौन की भाषा समझने में निष्णात
कटु शब्दों के शूल चुभने के बावजूद
चुप्पी साध लेने में कुशल है वो।
अब उसे रास नहीं आती कोरी कल्पनायें हवामहल की,
सिर पर पानी ढो मीलों से आ रही है वो।
रोटियाँ बनाने की कला में निपुण है,
खाने को सबसे पीछे की कतार में बैठने का
सलीका भी सीख रखा है उसने।
क्या मजाल है ज़ुबाँ हिल जाए
लोगों की भीड़ में ,
होंठ सी लेने की कला भी
कमाल की है उसमें।
अब वो मिट्टी के बर्तनों से खेलना भूल चुकी है,
हकीकत की ज़िंदगी में अँगुस्ताना लगा
कपड़े सी रही है वो।
भुलाकर अपनी हर पसंद, नापसन्द
छोटे भाई-बहनों को सुला रही है वो,
जाती है स्कूल रोज वो
अपने छोटे भाइयों को हिफाजत से पहुँचाने,
खुद गिरते-सँभलते,
नंगे पाँव आने का हौसला भी बेहिसाब है उसमें।
अब किलकारियाँ सिसकियों में बदल गईं हैं
अब वह बड़ी हो गयी है ।

अनुपमा मिश्रा
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