अभी तो हुई थी हमारी मुलाक़ात
पिछली रात
विजय इंटरनेशनल के
भीतरी प्रांगण में
कोणार्क से कानों-कान आयी
छोटी-सी ख़बर फैली
जंगल की आग-सी
छू गयी जलस्त्रोत
चन्द्रभागा के
मुझे बुलवाया था तुमने
अनजाने जिस युवक से
आँखों में, चेहरे पर उसके भी थी
एक चंचल आभा
सागर-संगम की गुलाल-सनी संध्या-सी
मिले घाट पर फिर हम
दर्शन कर मन्दिर से लौटी
तब तुमने दी थी मुझे
ग्रेनाइट की मोमदानी
झाऊ के वन में लोगों की भीड़
अवसर न था करने को
कोई बात नीलकण्ठी
दोनों यूँ ही चलते रहे
थोड़ी-सी दूरी बनाए हुए
फिर भी
उस दिन बंगोपसागर की
सुनहरी बालू में, यों ही
फिसल पड़े थे हम
अकारण ही।
नीलिम कुमार की कविता 'चिरैया'