‘Chuppi’, a poem by Bhupendra Singh Khidia

बातें लिखने में नहीं आतीं
समझाने में नहीं आतीं
कभी गर खींच पाए
ग़लती से भी पटरियाँ ये मन
तब भी वहाँ पर रेल कोई
आ नहीं पाती।

स्याही मना कर देती है
उंगलियाँ अकड़ जाती हैं
हवा के झोंकों से ख़ाली
पन्ने फड़फड़ाते हैं
डसा करती है अंदर से
रहा करती है अंदर ही
कसक मन काटती जैसे
कुल्हाड़ी काटती डाली।
रगड़कर याद चलती है
पोली रेत पर मन की
लकीरें टेढ़ी-मेढ़ी
नाग जैसी छोड़ देती है

मगर कुल्हाड़ी जैसे, बोलती
आवाज़ करती है
वहीं चुपचाप रहती डाल
और चुपचाप कटती है
खटाखट जो भी होती है
वो है आघात की केवल
वगरना डाल तो ख़ुद से कभी
‘चूँ’ तक नहीं करती
यही जीवन की पीड़ा आंतरिक
तूफ़ान उठने पर
अचानक से फटी आँखों में
आकर बैठ जाती है
बवण्डर उठ तो जाता है
मगर रहता है सन्नाटा
कम्पन शब्द लगता है पर,
जिह्वा तक नहीं आता
यहाँ से धूल उठती है
कहीं पर बैठ जाती है
झरा करते हैं आँसूँ
और कहीं पर
सूख जाते हैं

यहाँ से शोर उठता है
वहाँ पर खो भी जाता है
मेरा एक अंक
हर एक रोज़
मुझसे छूट जाता है

मगर इस वेदना सागर के तट पर
मुस्कुराता मैं
ये हँसकर टाल देता हूँ।
ज़रा चुपचाप रहता हूँ।

भूपेन्द्र सिँह खिड़िया
Spoken word artist, Script writer & Lyricist known for Naari Aao Bolo, Makkhi jaisa Aadmi, waqt badalta hai. Instagram - @bhupendrasinghkhida Facebook - Bhupendra singh Khidia Fb page :- @bhupendrasinghkhidia