सूरज को हर रोज़ तलब लगती है
सो वो जला लेता है एक सिगरेट
आसमां को चेहरे के सामने रखकर
हवा रोकता है
और उतनी देर तक उफ़क़ भी चमकता है
पीली-नारंगी रोशनी से

एक-एक कश खींचता सूरज
सुबह को शाम करता है
और फ़िर हो जाता है ग़ुरूब
सिगरेट का टुर्रा फेंककर
आसमान में राख फैलाकर

जाते-जाते
जो कभी दबा दे पैर से टुर्रे को
लोग कहे यहाँ- ‘अमावस्या है आज!’
जो छोड़ दे उसे यूं ही
वो रोज़ पूर्णिमा कहलाऐ

सूरज हर रोज़ सिगरेट पीता है
और फ़ेंक जाता है चाँद आसमां पर..

आयुष मौर्य
बस इतना ही कहना "कुछ नहीं, कुछ भी नहीं "