किताब अंश: ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ – विनोद कुमार शुक्ल
विभागाध्यक्ष से रघुवर प्रसाद ने बात की, “महाविद्यालय आने में कठिनाई होती है सर! टैम्पो, बस समय पर नहीं मिलती। देर होने पर आधे दिन की छुट्टी लेनी पड़ती है।”
“स्कूटर नहीं ख़रीद लेते!”
“सर इतने पैसे कहाँ से लाऊँगा?”
“साइकिल से आया करो।”
“साइकिल से आने का मन नहीं करता। पिताजी की पुरानी साइकिल है, बिगड़ती रहती है।”
“चलाओगे तो उसकी देखभाल होगी। साइकिल ठीक रहेगी।”
“यही करना पड़ेगा। आप ने स्कूटर कब ख़रीदी?”
“आठ साल हो गए!”
“आते-जाते आपको हाथी मिलता है?”
“हाँ! कुछ दिनों से तो रोज़ मिलता है।”
“स्कूटर का हॉर्न सुनकर हाथी हट जाता है?”
“हाथी सुनकर हटता है यह पता नहीं। महावत सुनकर हटा देता हो।”
“हाथी तो समझदार होता है। उसको अपने मन से हट जाना चाहिए।”
“सामने बस, ट्रक को आते देखकर हाथी किनारे हो जाता होगा।”
“हो तो जाना चाहिए। हाथी के बाज़ू से स्कूटर निकालने में आपको डर नहीं लगता? मैं होता तो मुझको डर लगता।”
“डर लगता है। हाथी अपनी समझदारी और महावत की समझदारी के साथ-साथ चलता है। दोनों की समझदारी में फ़र्क़ पड़ जाए तब मुश्किल होगी।”
“यह भी हो सकता है कि महावत की ग़लती को हाथी सम्भाल ले।”
“हाँ। और महावत सही हो तो हाथी से ग़लती हो जाए।”
“जी हाँ।”
“हाथी के पास से निकलते समय, मैं स्कूटर धीमी कर लेता हूँ। हाथी से दूर होकर निकलता हूँ कि अचानक वह घूम जाए तो उसकी सूँड की पहुँच की सीमा पर न रहूँ। हाथी से आगे होते ही तुरन्त गति बढ़ा देता हूँ।”
“क्यों?”
“इसलिए कि हाथी इतना बड़ा होता है, सूँड लम्बी होती है कि सूँड बढ़ाकर पकड़ न ले।” हँसते हुए विभागाध्यक्ष ने कहा।
“अच्छा बताइए, हाथी बैलगाड़ी से आगे निकल सकता है?”
“स्कूटर से जाते हुए यह कैसे पता चलेगा। या तो हाथी पर बैठे रहो या बैलगाड़ी पर तब पता चलेगा।”
“फिर भी आप क्या सोचते है?”
“हाथी बैलगाड़ी से आगे निकल जाएगा।”
“मुझे भी यही लगता है और साइकिल?”
“साइकिल हाथी से आगे निकल जाएगी।”
“यदि हाथी पैदल चले तो!”
“हाथी पैदल चले क्या मतलब। यदि न चले तो घोड़े पर चलेगा?”
“नहीं सर! मैं कह रहा था, हाथी दौड़ेगा तो साइकिल आगे न निकल पाए।”
“हाँ, आख़िर हाथी दौड़ेगा तो पैदल ही। भैंस को भागते हुए देखे हो। तेज़ दौड़ती है।”
“नहीं सर! भैंस उतनी तेज़ नहीं दौड़ती जितनी तेज़ दौड़ते हुए दिखती है। भारी-भरकम होने के कारण उसका दौड़ना तेज़ दौड़ना लगता है।”
“हाथी दौड़ में भैंस से पिछड़ जाएगा।”
“हो सकता है।”
“पर साइकिल हाथी से आगे निकल जाएगी।”
“हाँ, साइकिल आगे निकल जाएगी।”
“एक कुत्ता तक तो हाथी से आगे निकल जाता है।”
“मालूम नहीं क्यों राजा महाराजा हाथी पर बैठते थे।”
“ऊँचाई पर रहने और बैठने के कारण।”
“और कोई ऊँची सवारी तो नहीं थी।”
“ऊँट भी ऊँचा होता है।”
“हाथी से?”
“क्या पता।”
“जहाँ जो चीज़ होती है, उसी का उपयोग होता है। धान होती है इसलिए भात खाते हैं।”
“किसान यहाँ गेहूँ भी पैदा करते हैं। पर हाथी और ऊँट यहाँ पैदा नहीं होते।”
“जी सर!” रघुवर प्रसाद ने कहा।
लौटते समय रघुवर प्रसाद विभागाध्यक्ष की स्कूटर पर पीछे बैठे। विभागाध्यक्ष ने ही स्कूटर में चलने के लिए कहा था। आज उन्होंने स्कूटर में हवा भरवायी थी।
“हवा ठीक है सर?” रघुवर प्रसाद ने बैठने से पहले पूछा था।
“हाँ!”
“बैठ जाऊँ?”
“हाँ, बैठ जाओ। स्कूटर चालू किए खड़ा हूँ। तुमसे स्कूटर पर बैठने के लिए नहीं कहता तो तुम कल अपने लिए एक हाथी ख़रीद लेते।”
“पेट्रोल भी बहुत मँहगा है।”
“यह पेट्रोल से चलने वाला हाथी है।”
रघुवर प्रसाद को आगे जाते हुए हाथी दिखा। वे विभागाध्यक्ष से कहना चाहते थे ‘सर हाथी!’ पर नहीं कहा।
मानव कौल के उपन्यास 'अंतिमा' से एक अंश