एक देह को चलते या जागते देखना किसी आश्चर्य से कम नहीं
जो गंध और स्पर्श का घर होते हुए भी उसके पार का माध्यम है
देह रूप है, इसकी एक अलग भीतरी भाषा है
बीतते दिनों के चलित व्यापार में यह सिर्फ़ ऊपर से जागती है
इसकी आत्मा उस समय भी खोज रही होती है अपना स्पंदन
यह एक विकल प्रतीक्षा है जिसकी निरंतरता में सोयी पड़ी रहती है देह
इसके भीतर निवास करते हैं कई जंगल,
गुफाएँ निबिड़ जगहें
बहुत भीतर कहीं मंद प्रकाश में पड़ा होता है प्रेम
कई जगहें हैं जहाँ प्रवेश वर्जित है
इन तक पहुँचने का पता भी हमें मालूम नहीं होता
पुनर्जन्म को न भी मानें तो इसी जन्म में सत्य हो सकती है देह
जब यह स्फुरित हो कोमल हो जाए पँखुरियों की तरह
प्रक्षेपित हो कहीं समूची
उसी क्षण यह जन्म लेती है और उसी क्षण होती है इसकी मृत्यु।
अनीता वर्मा की कविता 'स्त्री का चेहरा'