‘Deh Chhoo Li Ki Aatma’, a poem by Rupam Mishra
जाने कैसी-कैसी स्त्रियाँ हैं
जिनकी दीठि मुझ पर है!
जो औचक आकर मुझे छू लेती हैं
मैं गिनगिना जाती हूँ! कुछ सूझता नहीं!
कहती हूँ अभी स्नान किया था
देवता को भोग और अर्घ्य भी नहीं दिया
और तुम लोगों ने देह छू लिया
अब चौके में भी कैसे जाऊँ?
वे हँसने लगती हैं
कहती हैं कि देह छू ली कि आत्मा!
एक ख़ूब गहरे रंग की प्रौढ़ा स्त्री उलाहना देती है
बरसों से तुम्हारे मन की देहरी पर बैठी हूँ
तुम कुछ बोलती क्यों नहीं!
कि तुम्हें भी मेरे काले रंग से घिन आती है
मेरे पति और सास की तरह!
मैं कहती हूँ मुझे तो ये रंग ख़ूब सुहाता है!
वो हँसते हुए जांघ से अपनी साड़ी हटा देती है
अच्छा तभी पति ने दागकर
और भी काले निशान बना दिये!
मैं जड़ सी देखती रह जाती हूँ!
एक और भी स्त्री वहीं आकर खड़ी हो जाती है
जिसकी बाँह पर उग आया था एक उजला फूल!
वो मुझसे कहती है
अच्छा! इसे तो काले रंग की सजा मिली और मुझे?
पति अमानवीय और गंदे तरीक़े से
बस इसलिए मारता था कि
मेरी देह पर ये गोरे दाग क्यों हैं!
मुझे क्रोध आता है मैं कहती हूँ
तुम लोग बदला क्यों नहीं लेतीं?!
तभी एक और स्त्री आती है कहती है
बदला किससे लें हम!?
ससुराल से काले रंग के कारण ठुकरायी गयी मैं!
आजतक अचरज में हूँ उस रात के लिए
जब अचानक कुलटा कहकर भाई ने शोर किया
कि कहीं उसके घर में हिस्सा न माँग लूँ!
इस घृणिततम कृत्य के लिए भी
मैं अपने माँजाये से बदला नहीं ले सकती!
और भी बदचलन स्त्रियाँ हैं
जो ससुर जेठ देवर को फाँस बैठी हैं
ऐसा मैंने कुछ स्त्रियों से सुना!
और हँसकर कहा-
बड़ी क्रूरता हुई बेचारे उन पुरुषों पर!
फिर एक और स्त्री ने चिढ़कर कहा
तुम हँस रही हो! दिन भर बस किताबें पढ़ो!
तुम्हें क्या पता त्रियाचरित्र?
देव् भी नहीं जान पाये!
मैंने कहा ऐसा देव् ने कहा कि पुरूष ने
या तुम जैसी स्वजाति डाह में डूबी स्त्री ने!
तिलमिलाते हुए उसने ज़माने को कोसा
जैसे चीन छटपटाता है
दक्षिण कोरिया के मिसाइल परीक्षण पर!
तभी एक सितारे जैसी लड़की
जिसका नाम भी सितारा है
ख़ुशी से झूमते हुए आती है
कहती है दीदी! अब्बा मेरे लिए लड़का देखने गये हैं!
लीजिये अपनी किताबें
मुझे नहीं बनना कलेक्टर-वलक्टर
मुझे तो दुल्हन बनना है!!
यह भी पढ़ें:
राहुल बोयल की कविता ‘लज्जा’
विक्रांत मिश्र की कविता ‘प्रेम में’
अमर दलपुरा की कविता ‘होंठों से आत्मा तक’