कविता संग्रह: ‘देस’
कवि: विनोद पदरज
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन
टिप्पणी: देवेश पथ सारिया
विनोद पदरज देशज कवि हैं। वे राजस्थान की खाँटी संस्कृति का हिन्दी कविता में सशक्त प्रतिनिधित्व करते हैं। बीते वर्षों में सोशल मीडिया के उदय ने इस स्वभाव की कविताओं का स्वाद पूर्व की अपेक्षा त्वरित गति से हिन्दी समाज तक पहुँचाया है। विनोद पदरज इस कविता के अग्रदूत हैं, जिनका अनुसरण करती एक नयी पीढ़ी तैयार हो रही है।
विनोद जी के हालिया कविता संग्रह का नाम उनके कवि की प्रकृति के अनुकूल ही है— ‘देस’। इस संग्रह की कविताओं में राजस्थान की संस्कृति है, ग्राम्य जीवन है, दलित हैं, हिन्दू-मुसलमान हैं, किसान हैं, और सबसे अव्वल, स्त्रियाँ हैं। स्त्रियाँ हैं, तो उनके संघर्ष भी हैं। यह दीगर बात है कि स्त्री विषयक कविताओं का ट्रीटमेंट उन्होंने अपने अनूठे ढंग से किया है।
पचासी कविताओं का यह संग्रह लोक संस्कृति का काव्यिक दस्तावेज़ है। इसकी अनेक कविताएँ मुझे भायीं, ख़ास तौर पर तीन कविताएँ जिनका मैं विशेष ज़िक्र आगे विषय अनुरूप करूँगा।
संग्रह की पहली कविता ‘यात्री’ प्रवासी पक्षियों की हज़ारों किलोमीटर लम्बी उड़ान की व्यवहारगत और वैज्ञानिक पड़ताल करती है। मेरी पहली प्रिय कविता है— ‘भादवे की रात’। यह कविता मनुष्यता की नज़ीर है। एक वृद्ध दम्पति न केवल भटके हुए किशोर को रात में अपनी छान में पनाह देते हैं, बल्कि सुबह हो जाने पर भी बूढ़ा उसे सही रास्ते पर छोड़कर आता है, ताकि वह दोबारा रास्ता न भटक जाए।
‘उनकी बातचीत’ कविता विलुप्त पुश्तैनी धंधों की बात करती है। मशीनीकरण और पुरातन के विरुद्ध पूर्वाग्रह ने जाने कितने रोज़गारों, काम-धंधों की इतिश्री की है। पूर्वजों से सीखा हुआ कौशल जब किसी काम का न रहे, तब व्यक्ति मज़दूरी करने को विवश हो जाता है। कवि यहाँ वर्ग-संघर्ष का सन्दर्भ देता है कि ऐसा सबके साथ नहीं होता। सेठ-साहूकारों, पण्डित-ब्राह्मणों, ठाकुर-ज़मीदारों के साथ क़तई नहीं।
एक देश के तौर पर भारत की नींव सौहार्द पर टिकी है। इससे तनिक-सा विचलन यहाँ भूकम्प और सुनामी ले आता है। राजस्थान हिंदू-मुस्लिम के बीच सामंजस्य बनाए रखने के लिए जाना जाता रहा। फिर भी बीते समय की घटनाओं के मद्देनज़र कुछ गाँठ तो पड़ी ही है। माॅब लिंचिंग जैसी हृदय विदारक घटना राजस्थान में भी हुई। ऐसे में एक व्यक्ति अपनी गाय को कोस भर दूर ले जाने से डरता नज़र आता है। एक आदमी अपने बचपन के दोस्त से दूर भागता है, क्योंकि उसका नाम ग़ुलाम मोहम्मद है। कवि, धर्म का चोला ओढ़े भौंडे राजनीतिज्ञों को इस बिगड़ी हुई हालत के लिए ज़िम्मेदार मानता है—
“मुझे मौलवी से इतनी ही नफ़रत है
जितनी पण्डित से
बादशाह को अर्दब में लाना
मेरा मक़सद है”
संग्रह की शीर्षक कविता ‘देस’ आज भी भारत के गाँवों में दलितों की स्थिति को मार्मिकता से प्रस्तुत करती है। जीवन-भर अत्याचार और हीनता झेलने के बाद भी एक मरणासन्न दलित बूढ़ा अपने गाँव को याद करता हुआ बेटे से कहता है—
“मोकू घरां ले चाल
गांव का रूंखड़ा दखा”
एक बेरोज़गार युवा अपने माता-पिता पर खुन्नस निकालता दिखता है। बेरोज़गारी द्वारा उत्पन्न असहाय स्थिति से ग़रीब या निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में रिश्ते दरक जाते हैं। उक्त कविता पढ़कर मुझे एक पुरानी फ़िल्म याद आयी जिसमें नायक के माता-पिता उसे उलाहना देते हैं कि हमने तुझे डिग्री दिलायी, अब तू छोटे भाई-बहनों का ध्यान रख। नायक जिसे बहुत भटकने पर भी रोज़गार नहीं मिला था, वह जवाब देता है कि उसकी डिग्री के टुकड़े करके भाई-बहनों को खिला दिए जाएँ।
‘औरत’ कविता एक गाय के माध्यम से मनुष्य की नीच स्वार्थपरता पर चोट करती है। यूँ भी स्त्री विमर्श इस संग्रह की कविताओं का प्रमुख स्वर है। कवि प्रश्न उठाता है कि जिस बोली या भाषा को हम सीखते हैं और उसे मातृभाषा कहते हैं, क्या वह सच में माँ के प्रदेश की भाषा होती है, या वह भाषा जिसका चोला माँ, पिता के प्रदेश में रहकर ओढ़े रहती है? पीहर आयी बेटी के देर तक सोने का प्रसंग भी इस संग्रह में है। बेटी के देर तक सोने के पक्ष में सिर्फ़ माँ होती है क्योंकि वह जानती है कि ससुराल किस अज़ाब का नाम हो सकता है।
“स्त्री को जानने के लिए
स्त्री के पास स्त्री की तरह जाना होता है
और स्त्री के पास स्त्री की तरह
केवल स्त्री ही जाती है”
‘नाते की’ कविता में पति के अत्याचारों से आजिज़ आकर किसी और के साथ भाग आयी स्त्री इतनी मुखर और हिम्मती हो चुकी है कि वह स्वीकारती है कि जिस दिन यह प्रेमी पीटने लगेगा, उसे भी छोड़कर भाग जाएगी। ‘गीत’ कविता में जीवन के सात दशक देख चुकी वृद्धाओं के पास निजी सुख की कोई स्मृति नहीं है। वे अपने सुख के बारे में कोई गीत गा ही नहीं पातीं, क्योंकि उन्होंने उसे कभी जाना ही नहीं। ‘बेटियाँ’ कविता कन्या भ्रूण हत्या के बारे में बात करती हुई उन अनचाही मासूम बच्चियों का ज़िक्र करती है, जो अपने नवजात भाई को गोदी में खिलाती घूम रही हैं।
अक्षय तृतीया यानी आखातीज विवाह का अबूझ सावा होता है। इस दिन बिना पत्री-कुण्डली इत्यादि दिखाए भी विवाह सम्भव होता है। ख़ास तौर पर आदिवासी समाज में इस दिन बहुत विवाह होते हैं। इनमें सरकारी नियमों के बावजूद बाल विवाह भी हो ही जाते हैं। ‘आखातीज’ शीर्षक से संग्रह में दो कविताएँ हैं। पहली में कविता की नायिका चंगा पौ खेलने की कच्ची वय में दो बच्चियों की माँ बन चुकी है और दूसरों के घरों में चौका-बर्तन का काम करती है। दूसरी कविता में दस साल के दूल्हे की माँ अपने बेटे को चुस्की दिलाती है और सात साल की बहू को टुकुर-टुकुर देखती रहने देती है। यह निश्चय ही पितृसत्ता का वह भयावह चेहरा है, जिसे छोटी-सी बच्ची को आगे ताउम्र झेलना है। यह कविता इस संग्रह की मेरी दूसरी सबसे प्रिय कविता इसलिए है क्योंकि इसमें दस साल का दूल्हा अपनी दुल्हन के पक्ष में खड़ा होता है और उसे भी चुस्की दिलवाकर ही दम लेता है।
‘कौन’ कविता में एक व्यथित स्त्री अपना सारा ग़ुस्सा बच्चे को पीटकर निकाल रही है। दरअसल जो भी प्रताड़ना मनुष्य झेलता है, वे उसके अंतर्मन पर असर डालती हैं। विदेशों में मन के घावों की चिकित्सा को गम्भीरता से लिया जाता है और बाक़ायदा मनोचिकित्सक से मदद ली जाती है। पर भारत में, गाँव-देहात में, यह प्रताड़ना का क्रम जारी रहता है।
‘अस्सी वर्षीय वृद्धा’ इस संग्रह की मेरी तीसरी सबसे प्रिय कविता है। वृद्धा, जो अपने पति के जीवित रहते उससे पिटती रही, जिसके बेटे उसे छोड़ शहर चले गए, जिसके पास याद करने को कोई नहीं है, वह उस एक बेटे को याद करती है जो ढाई साल की उम्र में मर गया था। वही उसकी आख़िरी उम्मीद हो सकता था। हम एक ऐसे समय में हैं जब हम किसी जीवित उम्मीद का आसरा नहीं ले सकते। ‘आईने में अक्स’ कविता में एक सेक्स-वर्कर मर्दों की काली कामनाओं के बारे में बताती है। वह अपना अंत जानती है—
“मैं तो मर जाऊँगी किसी दिन भयंकर रोग से
पर मेरे लिए कोई आदमी नहीं रोएगा
रोएँगी मेरी जैसी ही”
कवि ने पिता की मृत्यु पर आत्मीय एवं मार्मिक कविताएँ लिखी हैं। पिता की देह को नहलाते हुए वह कहता है—
“आज मुझसे सम्भल नहीं पा रहे हो
मेरे हाथों से लुढ़के जा रहे हो
नींद मे डूबे बच्चे की तरह”
‘सौ पेड़ों के नाम’ कवि की एक चर्चित कविता है। इस कविता से कुछ पंक्तियाँ देखिए और जानिए कि कैसे पूर्वजों की रवायत हमें पेड़ों से प्रेम करना सिखाती थी और वही प्रेम, वर्षा लेकर आता था—
“बाबा चले गए
और किसी को याद नहीं है सौ पेड़ों के नाम
जितने नाम हम लेते हैं
उतनी-सी बरखा होती है”
‘कुलधरा’ कविता में इस उजाड़ गाँव को वर्तमान ऐतिहासिक महत्त्व अथवा किंवदंतियों के सन्दर्भ में नहीं देखा गया है। कवि इसे किसी भी और गाँव की तरह देखता है जिसे छोड़ते हुए इसके वासी, माल-असबाब सम्भाल रहे होते हैं, पितरों को नमन कर अपनी मिट्टी से दूर जा रहे होते हैं।
कृषकों के बारे में ‘लावणी’ कविता में एक महिला किसान के खेत पर ही आँख लग जाने पर पूरी प्रकृति उसे यथा-सम्भव शीतलता पहुँचाने की कोशिश करती है। ‘खेतिहर भाई’ एक अच्छी कविता है। कृषक भाई, अपनी भतीजी को ससुराल से लिवाने पैदल जाता है ताकि नौकरी-शुदा भाई से मिला किराए का कुछ पैसा बचा सके।
संग्रह में पारम्परिक तौर पर प्रेम कविताएँ कही जाने वाली विशुद्ध प्रेम कविताएँ कम ही हैं। यहाँ प्रेम सिर्फ़ स्त्री-पुरुष के मध्य न होकर, मनुष्यता एवं सम्वेदना का है। ‘बुद्धू का काँटा’ एक प्रेम कविता होते हुए भी वस्तुतः सम्वेदना की कविता है। कविता संग्रह में लगभग अंतिम पन्नों पर ‘पत्र’ शृंखला की कविताएँ हैं। यह शृंखला आपको पत्र लेखन के ज़माने के नॉस्टैल्जिया में ले जाएगी, जब मौसम की मार की टीस काग़ज़ पर लिख भेजी जाती थी। चूँकि पत्रों में प्रेम-पत्र भी हुआ करते थे, यहाँ कुछ प्रेम से सम्बन्धित कविताएँ भी आपको मिल जाएँगी—
“तीन घण्टे साथ रहने पर भी
कोई कुछ नहीं बोला
आख़िर चलते समय
लड़के ने लड़की को एक पत्र दिया
अब लड़की उड़कर घर पहुँचना चाहती थी”
उपहास में बदल गयी पंक्तियों की तह खोलती पंक्तियाँ भी देखिए—
“जिसने लिखा
ख़त लिखता हूँ ख़ून से, स्याही न समझना
निश्चय ही वह एक प्रेमी था
जिसका हम उपहास उड़ाते हैं”
‘बीड़ी’ कविता एक बूढ़ा-बूढ़ी के मध्य बीड़ी के कारण हुई मित्रता की प्यारी-सी कविता है। भारत एक बहु-सांस्कृतिक देश है। यहाँ एक राज्य से किसी सुदूर राज्य में चले जाने पर ही आप बिल्कुल अलग रंग में होते हैं। ‘सुशांतो दास’ कविता में प्रवासी जीवन का चित्र खींचा गया है। इस कवि की भाषा देशज एवं सहज है, किंतु निराला जी के लिए लिखते समय यह कुछ शास्त्रीय हो उठती है। कविता के अनुरूप यह अनुकूलन उचित भी है। ‘जोड़ा’ कविता में लुहार दम्पति के माध्यम से बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कही गई है—
“कुछ चीज़ों को आकार देने के लिए प्रहार में मुलायमीयत ज़रूरी है
गर पुरुष भी घण चलाए तो उसे स्त्री की तरह चलाना होगा।”
'देस' पर अमर दलपुरा की टिप्पणी यहाँ पढ़ें