‘Desh’, Hindi Kavita by Vijay Rahi
देश एल्यूमीनियम की पुरानी घिसी एक देकची है
जो पुश्तैनी घर के भाई-बँटवारे में आयी।
लोकतंत्र चूल्हा है श्मशान की काली मिट्टी का
जिसमें इस बार बारिश का पानी और भर गया है।
जनता को झौंका हुआ है इसमें
बबूल की गीली लकड़ी की तरह
आग कम है, धुआँ ज़ियादा उठ रहा है।
नेता फटी छाछ है
छाछ का फटना इसलिए भी तय था
क्योंकि खुण्डी भैस के दूध में
जरसी गाय की छाछ का जामण दे दिया गया।
संसद फटी छाछ की भाजी है
जो ना खाने के काम की है
ना किसी को देने का काम की।
प्रधानमंत्री पाँच साल का वह बच्चा है,
जो भयंकर मचला हुआ है।
चूल्हे के चारों तरफ चक्कर काटता हुआ,
वह मन की बात कहता है-
“भाजी दो!
नहीं चूल्हा फोड़ूँ,
देकची तोड़ूँ!”
अब क्या करें साहब! बच्चे तो बच्चे हैं!
कौन जाने, क्या पता?
भाजी के बाद चाय की फ़रमाइश कर दे!
हालाँकि सब सिर्फ़ बच्चे की बात कर रहे हैं
पर मुझे चूल्हे में दबी जली-बुझी राख का दु:ख है।
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