‘Dharti Par Hi Swarg Ka Abhyas Hona Chahiye’, a poem by Bhupendra Singh Khidia
धर्म के घनचक्करों ने,
पथ बनाया क्या भला?
उल्टे पैरों से सिखाते दूर जाने की कला।
जिस तरफ़ जाना उधर है पीठ
पर, आँखें नहीं,
और कहते गर्व से तकनीक चलने की सही।
इस तरह के लम्पटों के
ज्ञान को झंझोड़ना,
और आवश्यक है जूठे पात्र को खँकोलना।
वरना मनु उल्टी दिशा में
साथ इनके आएगा,
पीठ को आगे कहेगा, गर्त में ही जाएगा।
जी रहे गति रोध कर,
केवल विरोधाभास में,
धरती पे जो ना छुआ, मिल जाएगा आकाश में?
आज तक मुल्ला जी
दोहराते रहे इक बात को,
दूर दारू से रखो, हम मोमिनों की जात को।
शराब को हराम कहती,
पुस्तकें अपनी कहो!
और नहरें बहती हैं जन्नत में मदिरा की, अहो !
इक तरफ़ बैठे मुनि,
यूँ मौन अद्भुत ओढ़कर,
अप्सरि की कामना करते हैं, नारी छोड़ कर।
स्वर्ग में भी
नारी जैसी अप्सरियों के सार्थ हैं
सोना, चाँदी, हीरे लेकिन! ‘पृथ्वी’ के प्रदार्थ हैं ।
क्या ही अंतर हो गया
जब कामना छूटी नहीं?
उस धरा से, इस धरा की लालसा छूटी नहीं।
ज़िन्दगी भर आदतें जो झेंप ली
क्या जाएँगी?
चाहे जाओ स्वर्ग में पर, पीछे-पीछे आएँगी।
इस तरफ़ छूना भी समझा पाप जिसको
उम्र भर,
उस तरफ़ कैसे अचानक छू लोगे मन मोड़कर?
बून्द भर से डरने वाला,
क्या नदी को जाएगा?
एक पल में चूर मानव, गुण सदी के गाएगा?
जिसको सोना भी न आया ठीक से,
गई रात में,
आँख मलता ही दिखेगा किरणों की बारात में।
जीभ पर अमृत का सा अहसास
होना चाहिए,
धरती पर ही स्वर्ग का अभ्यास होना चाहिए।
स्वर्ग तो मुमकिन है केवल कल्पना हो,
भान हो!
पर धरा तो सत्य है, तो सत्य की पहचान हो।
पर धरा तो सत्य है,
तो सत्य की पहचान हो।
मृत्यु के आने से पहले सब रसों का पान हो।
ज्ञान का आह्वान हो,
ज्ञान का आह्वान हो।